भारत के कांस्टीट्यूशन का आर्टिकल 309 संघ और राज्य विधानमंडल को उनकी सेवा में नियुक्त लोक सेवकों की भर्ती और सेवा की शर्तों के विनियमन की शक्ति प्रदान करता है। आर्टिकल 309 कहता है कि संसद तथा राज्य विधानमंडल कांस्टीट्यूशन के उपबंधों के अधीन रहते हुए संघ या राज्यों के कार्यों से संबंध लोक सेवा और पदों के लिए भर्ती का और नियुक्ति व्यक्तियों की सेवा शर्तों का विनियमन करेंगे किंतु जब तक समुचित विधानमंडल के अधिनियम द्वारा उत्तर प्रयोजनों के लिए उपबंध नहीं बनाए जाते हैं तब तक ऐसी सेवा और पदों के लिए भर्ती नियुक्ति व्यक्तियों की शक्तियों का वर्णन करने के लिए नियमों को राष्ट्रपति और राज्यपाल बनाएंगे।
इस प्रकार बनाए गए नियम विधानमंडल द्वारा बनाए गए अधिनियम के अधीन होंगे। कांस्टीट्यूशन में लोक सेवकों की भर्ती में सहायता देने के लिए लोक सेवा आयोग की स्थापना को उपबंध किया गया है। आर्टिकल 309 में प्रावधान के अधीन रहते हुए यह स्पष्ट है कि विधान मंडलों की विधान की शक्ति और कार्यपालिका की शक्ति कांस्टीट्यूशन के विरुद्ध नहीं हो सकती। आर्टिकल 309 के अंतर्गत लोक सेवकों की भर्ती तथा उनकी सेवा की शर्तों के लिए बनाया गया। कोई अधिनियम किसी भी मूल अधिकार का अतिक्रमण नहीं कर सकता।
मध्य प्रदेश राज्य बनाम एमपी सिंह के मामले में यह कहा गया है कि एक सेवानिवृत्त सरकारी सेवक जो अपने पुत्र या जो स्वयं एक सरकारी सेवक है के साथ रहता है उसे पुत्र पर पूर्ण रूप से आश्रित माना जाएगा। इस बात के होते हुए कि वह स्वयं पेंशन पाता है। अतः पुत्र अपने पिता की चिकित्सा में हुए खर्च की प्रतिपूर्ति का हकदार है।
मध्य प्रदेश सिविल सेवा नियम 1958 के अधीन परिवार या पूर्णरूपेण आश्रित के अंतर्गत वित्तीय तथा शारीरिक रूप से आश्रित दोनों आते हैं। इसका अर्थ केवल वित्तीय रूप से आश्रित तक सीमित नहीं किया जा सकता। प्रस्तुत मामले में एक सरकारी कर्मचारी का पिता जो सेवानिवृत्त हो चुका था 70 वर्ष की आयु का था तथा बीमार था।
यह नहीं कहा जा सकता कि वह अपने पुत्र पर पूर्णरूपेण आश्रित था, बुढ़ापे में पुत्र को उसकी देखभाल करना पड़ती थी, वह 414 प्रति माह पेंशन पाता था जो एक छोटी सी रकम थी। यह नहीं कहा जा सकता कि वह अपने पुत्र पर पूर्णरूपेण नहीं था। मध्य प्रदेश मेडिकल नियमों के अधीन पिता अपने पुत्र के परिवार का सदस्य अपने पुत्र पर पूर्णरूपेण आश्रित है तथा पुत्र को अपने पिता की चिकित्सा खर्च को पाने का हक है।
पीके रंगराजन बनाम तमिलनाडु सरकार के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि सरकारी कर्मचारी को हड़ताल करने का अधिकार नहीं नहीं है और न ही मूल अधिकार है न कानूनी अधिकार है और न नैतिक अधिकार है।
इस मामले में सन 2003 में प्रारंभ में तमिलनाडु के सरकारी कर्मचारीगण अपनी मांगों को लेकर हड़ताल पर चले गए। सरकार ने आवश्यक सेवा बनाए रखने के 2002 के अधिनियम के अंतर्गत 2003 के अध्यादेश द्वारा उनको नौकरी करने से बर्खास्त कर दिया। हाईकोर्ट ने उनकी याचिका इस आधार पर अस्वीकार कर दी कि उन्होंने प्रशासनिक अधिकरण में जाने के अपने वैकल्पिक उपचार का प्रयोग नहीं किया था।
सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति ने यह अभिनिर्धारित किया कि उन्हें हड़ताल करने का कोई अधिकार नहीं है और न ही मूल अधिकार है। कोर्ट ने यह कहा कि व्यापार संघ के कर्मचारियों की ओर से सामूहिक सौदेबाजी करने का अधिकार है किंतु उन्हें हड़ताल करने का अधिकार नहीं है। कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि कोई भी राजनीतिक दल या संगठन देश की आर्थिक गतिविधियों और राज्य की औद्योगिक गतिविधियों को छिन्न-भिन्न करने यह नागरिकों को सुविधा पहुंचाने का अधिकार का दावा नहीं कर सकता है।
ऐसा निर्णय कई मामलों में किया जा चुका है। किसी अधिनियम के अधीन उन्हें हड़ताल करने का अधिकार प्राप्त नहीं है। इस बात का दावा नहीं कर सकते कि हड़ताल करके पूरे समाज को दबा कर सकते हैं। यदि यह मान भी लिया जाए कि उनके साथ अन्याय हुआ है तो भी अधिनियम के अधीन उन्हें इसके निराकरण के लिए अधिकार दिए गए।
हड़ताल के कारण आम जनता परेशान हो जाती है, जनता के बीच अव्यवस्था फैल जाती है, हड़ताल पूरे समाज पर प्रतिकूल असर डालती है। जहां इतनी अधिक बेरोजगारी है और लोग सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों में नौकरी पाने के लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं वहां हड़ताल को किसी भी आधार पर उचित नहीं ठहराया जा सकता। कोर्ट के सुझाव पर सरकार अधिकतर कर्मचारियों को बहाल करने पर राजी हो गई।
डॉक्ट्रिन आफ प्लेज
लोक सेवक सम्राट के अधीन होते हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में राज्य संप्रभु है और सम्राट की भांति है। यदि कोई लोक सेवक नौकरी से सेवानिवृत्त के पहले ही निकाल दिया जाता है तो भी वह सम्राट से बकाया वेतन या किसी प्रकार का दावा नहीं कर सकता। प्रसाद का सिद्धांत लोक नीति पर आधारित है। भारत के कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 310 में यह उपबंध किया गया है कि प्रत्येक व्यक्ति जो संघ की प्रतिरक्षा से अखिल भारतीय सेवा में पदस्थ है अथवा संघ के अधीन प्रतिरक्षा से संबंधित किसी पद को अथवा किसी सैनिक पद को धारण करता है राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पद धारण करता है।
इसी तरह राज्य सेवकों के सदस्यगण राज्यपाल के प्रसादपर्यंत पद धारण करते हैं। यह एक सामान्य नियम है किंतु कांस्टीट्यूशन में उपबंध दिए गए हैं जहां प्रसाद का सिद्धांत लागू नहीं होता है। भारत के कांस्टीट्यूशन में प्रसाद का सिद्धांत बहुत सीमित रूप में लागू होता है। आर्टिकल 310 में प्रयुक्त प्रारंभिक शब्दावली कांस्टीट्यूशन द्वारा स्पष्ट उपबंधित अवस्था को छोड़कर प्रसाद के सिद्धांत के प्रयोग पर निर्बंधन लगाती है और उसके प्रयोग की सीमाओं को विहित करती हैम भारत में एक लोक सेवक अपने बकाया वेतन के लिए सरकार के विरुद्ध वाद चला सकता है।
बिहार राज्य के अब्दुल मजीद के मामले में एक पुलिस सब इंस्पेक्टर को कायरता के आधार पर सेवा से हटा दिया गया था। बाद में उसे पुनः बहाल कर दिया गया किंतु सरकार ने पद से हटाने की अवधि के लिए वेतन देना अस्वीकार कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि वह बकाया वेतन पाने का हकदार था क्योंकि उसने सेवा कांस्टीट्यूशन के अधीन कार्य किया। जिस प्रकार सेवा शर्तों के अनुसार सरकार को किसी सेवा को अनिवार्य सेवानिवृत्ति करने की शक्ति प्राप्त है उसी प्रकार सेवक को भी अपने पद से स्वेच्छापूर्वक 3 माह की सूचना देकर त्यागपत्र देने का अधिकार प्राप्त है।
चाहे उसे राज्य स्वीकार करें या नहीं करें। भारत का कांस्टीट्यूशन प्रसाद के सिद्धांत पर कुछ निर्बंधन लगाता है। जैसे सिद्धांत आर्टिकल 311 के अधीन जिसका प्रयोग आर्टिकल 311 में विहित प्रक्रिया के अनुसार ही किया जा सकता है।
आर्टिकल 311 के उल्लंघन होने पर प्रसाद के सिद्धांत का प्रयोग अवैध हो जाएगा और यह निम्न अधिकारियों पर लागू नहीं होता है- सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के न्यायाधीश, भारत का महालेखाकार, मुख्य चुनाव आयुक्त, लोक सेवा के अध्यक्ष और सदस्य, राज्यपाल के प्रसादपर्यंत पर निर्भर करते हैं। प्रसाद का सिद्धांत मूल अधिकारों के अधीन है इसके प्रयोग द्वारा नागरिकों के मूल अधिकारों का अतिक्रमण नहीं होना चाहिए।
भारत के कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 311 के अंतर्गत लोक सेवकों को अपने पद से मनमाने ढंग से पदच्यूत किए जाने के विरुद्ध कुछ सांविधानिक संरक्षण प्राप्त है।
कोई भी लोकसेवक आपने नियुक्तिकर्ता से नीचे के किसी अधिकारी द्वारा पदच्युत नहीं किया जाएगा हटाया।
कोई भी व्यक्ति तब तक पद से पदच्युत नहीं जाएगा जब तक की उसे अपने विरुद्ध दोषसिद्धि से अवगत न करा दिया गया हो और उसके संबंध में सुनवाई के उपयुक्त अवसर का दे दिया गया है।
जहां ऐसी जांच के फलस्वरुप कोई शास्ति अधिरोपित किए जाने का प्रस्ताव है वह ऐसी शास्ति जांच के दौरान दिए गए साक्ष्य के आधार पर ही अधिरोपित की जाएगी और ऐसे व्यक्ति को उनके विरुद्ध अभ्यावेदन करने का अवसर देना आवश्यक नहीं होगा। आर्टिकल 311 के खंड 2 में 42 वें कांस्टीट्यूशन संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा संशोधन किया गया और लोक सेवकों की जांच के दूसरे प्रकरण में उसके विरुद्ध अधिरोपित की जाने वाली शक्ति के विरुद्ध अभ्यावेदन के अधिकार से उन्हें वंचित कर दिया गया है। प्रस्तुत संकलन के पूर्व लोक सेवकों को दो स्थानों पर उचित कार्रवाई का अवसर प्राप्त था, एक आरोप लगाते समय दूसरा जांच के फलस्वरुप हटाते समय या फिर आरोपित करते समय।
भारत सिंह बनाम छोटेलाल एआईआर 1999 उत्तम कोर्ट 376 के मामले में यदि निर्धारित किया गया है कि राष्ट्रीय रक्षा अकादमी के कैडेटों के कपड़े धोने के लिए नियुक्त धोबी आर्टिकल 311 के अंतर्गत इस कारण सिविल पद के धारणकर्ता नहीं हो जाते क्योंकि उन्हें सेना के रेजिमेंटल को से वेतन मिलता है। धोबियों को वेतन का भुगतान भारत की संचित निधि या रक्षा मंत्रालय के नियंत्रण वाले किसी लोग को से नहीं किया जाता, अतः केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण को ऐसे धोबियों की सेवा शर्तों के निर्धारण के प्रश्न पर विचार करने के लिए कोई अधिकारिता प्राप्त नहीं है।
आर्टिकल 311 का खंड 2 यह उपबंधित करता है कि किसी भी एक सिविल सेवक को तब तक पद से नहीं हटाया जा सकता या पंक्ति से नीचे नहीं किया जा सकता जब तक कि उसे अपनी प्रस्तावित कार्यवाही के विरुद्ध लगाए गए आरोप के विरुद्ध सुनवाई का युक्तियुक्त अवसर प्रदान किया गया हो। 42 वें संशोधन के पूर्व लोक सेवकों को सुनवाई का अवसर दो स्थानों पर देने का उपबंध था उसके विरुद्ध जांच के समय जो नैसर्गिक न्याय के नियमों के अनुसार अपेक्षित है।
किसी भी व्यक्ति को उसे सुनवाई का अवसर दिए बिना दंडित नहीं किया जा सकता और दंड देने के समय जबकि जांच के परिणामस्वरूप उसके विरुद्ध आरोप सिद्ध हो चुका है और उसे पद से हटाया जाना है पद से नीचे गिराया जाना। 42 वें कांस्टीट्यूशन संशोधन 1975 द्वारा दूसरे स्तर पर सिविल सेवकों को प्राप्त सुनवाई का युक्तियुक्त अवसर के अधिकार को समाप्त कर दिया गया।
भारत के कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 311 के खंड 2 के अनुसार कुछ परिस्थितियां ऐसी है जिसमें किसी सरकारी सेवक को युक्तियुक्त अवसर प्रदान किए जाने का अधिकार प्राप्त नहीं है, वह परिस्थितियां निम्न हैं-
जहां कोई व्यक्ति ऐसे आचरण के आधार पर पद से हटा दिया जाता है या पद से नीचे गिराया जाता है जिसके लिए अपराध के आरोप पर उसे दोषसिद्ध किया गया है।
जहां किसी व्यक्ति को पदच्युत करने या पद से हटाने या पद से नीचे गिराने वाले अधिकारी को यह समाधान हो जाता है कि किसी कारण से जो उस अधिकारी द्वारा लेखबद्ध किया जाएगा कि युक्तियुक्त रूप से व्यवहार नहीं है कि सुनवाई का ऐसा अवसर प्रदान किया जाए।
जहां राष्ट्रपति और राज्यपाल का समाधान हो जाता है कि राज्य की सुरक्षा के हित में यह समीचीन नहीं है कि ऐसी जांच की जाए।
एक मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्धारित किया है कि आर्टिकल 311 (2)के दूसरे परंतु खंड(ग) के अंतर्गत पारित पद्धति का आदेश न्यायिक पुनर्विलोकन के अधीन है और कोर्ट इसकी जांच कर सकता है कि क्या इसका प्रयोग दुर्भावना से प्रेरित होकर आसन आधारों पर किया गया है। कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि इस मामले में न्यायिक पुनर्विलोकन का क्षेत्र उतना ही है जितना एसआर बोम्मई के मामले में निहित किया गया है अर्थात क्या इसका प्रयोग दुर्भावना से या गलत आधारों पर किया गया है।