हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 (Hindu Marriage Act, 1955) केवल विवाह के नियमों को संहिताबद्ध (Codify) ही नहीं करता, बल्कि यह कुछ आवश्यक शर्तों (Essential Conditions) को भी निर्धारित करता है जिन्हें एक विवाह को कानूनी रूप से वैध (Legally Valid) हिंदू विवाह मानने के लिए पूरा किया जाना चाहिए। ये शर्तें सामाजिक व्यवस्था (Social Order), नैतिकता (Morality) और व्यक्तियों के अधिकारों (Rights of Individuals) की रक्षा के लिए महत्वपूर्ण हैं।
धारा 5 (Section 5) इन मूलभूत शर्तों को स्पष्ट रूप से रेखांकित करती है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि विवाह एक पवित्र संस्कार (Sacred Sacrament) होने के साथ-साथ एक कानूनी रूप से स्वीकार्य (Legally Acceptable) संस्था भी है।
5. हिंदू विवाह की शर्तें (Conditions for a Hindu marriage)
कोई भी विवाह किन्हीं दो हिंदुओं के बीच solemnize किया जा सकता है (solemnized - विधिवत संपन्न), यदि निम्नलिखित शर्तें पूरी होती हैं:—
(i) एकल विवाह (Monogamy): किसी भी पक्ष का विवाह के समय कोई जीवित पति या पत्नी (Spouse Living) नहीं होना चाहिए;
यह शर्त एकल विवाह (Monogamy) के सिद्धांत को स्थापित करती है, जिसका अर्थ है कि विवाह के समय दोनों पक्षों में से कोई भी पहले से विवाहित नहीं होना चाहिए। यह हिंदू समाज में बहुविवाह (Polygamy) (एक पुरुष की कई पत्नियाँ) और बहुपतित्व (Polyandry) (एक महिला के कई पति) जैसी पुरानी प्रथाओं (Old Practices) को प्रभावी ढंग से समाप्त करता है।
यदि कोई व्यक्ति अपने पहले पति या पत्नी के जीवित रहते दूसरी शादी करता है, तो ऐसी दूसरी शादी शून्य (Void) मानी जाती है, अर्थात कानूनी रूप से अमान्य (Legally Invalid) होती है। ऐसा करने वाले व्यक्ति पर भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code) के तहत द्विविवाह (Bigamy) का आरोप भी लग सकता है।
उदाहरण: यदि राहुल की शादी सीमा से हुई है और सीमा अभी जीवित है, तो राहुल legally किसी और से शादी नहीं कर सकता। यदि वह ऐसा करता है, तो उसकी दूसरी शादी कानून की नजर में वैध नहीं होगी और उसे दंडित किया जा सकता है।
महत्वपूर्ण केस लॉ (Landmark Case Law): सरला मुद्गल बनाम भारत संघ (Smt. Sarla Mudgal v. Union of India), 1995: हालांकि यह मामला एक हिंदू पुरुष द्वारा इस्लाम में धर्मांतरण (Conversion to Islam) करके दूसरी शादी करने से संबंधित था, सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने इस बात पर जोर दिया कि एक हिंदू, हिंदू विवाह अधिनियम के तहत एकविवाह के नियमों से बंधा हुआ है। यदि वह अपनी पहली शादी के दौरान दूसरी शादी करता है, तो यह दंडनीय अपराध (Punishable Offence) है, भले ही उसने दूसरी शादी करने के लिए धर्म बदल लिया हो। इस निर्णय ने हिंदू विवाह अधिनियम के तहत एकविवाह के सिद्धांत (Principle of Monogamy) को और मजबूत किया।
(ii) मानसिक क्षमता (Mental Capacity): विवाह के समय, कोई भी पक्ष—
(a) अस्वस्थ मन (Unsoundness of Mind) के परिणामस्वरूप वैध सहमति (Valid Consent) देने में असमर्थ (Incapable) न हो; या (b) यद्यपि वैध सहमति देने में सक्षम (Capable) है, लेकिन मानसिक विकार (Mental Disorder) से इस हद तक पीड़ित (Suffering) न हो कि वह विवाह और बच्चों की संतानोत्पत्ति (Procreation of Children) के लिए अनुपयुक्त (Unfit) हो; या (c) पागलपन (Insanity) के बार-बार होने वाले हमलों (Recurrent Attacks) के अधीन (Subject to) न हो;
यह शर्त सुनिश्चित करती है कि विवाह के लिए दोनों पक्षों की सहमति (Consent) स्वतंत्र (Free) और सूचित (Informed) होनी चाहिए। मानसिक स्वास्थ्य (Mental Health) का स्तर इतना होना चाहिए कि व्यक्ति विवाह के महत्व (Significance of Marriage) और उसके निहितार्थों (Implications) को समझ सके। यदि कोई व्यक्ति इन उप-खंडों (Sub-clauses) में वर्णित मानसिक स्थिति से पीड़ित है, तो विवाह शून्यकरणीय (Voidable) हो सकता है, अर्थात, पीड़ित पक्ष द्वारा न्यायालय (Court) में इसे रद्द (Annulled) कराया जा सकता है।
उदाहरण: यदि रवि की शादी कविता से हुई है और बाद में यह पता चलता है कि शादी के समय कविता गंभीर स्किज़ोफ्रेनिया (Schizophrenia) से पीड़ित थी और वह विवाह की वास्तविक प्रकृति को समझने में असमर्थ थी, तो रवि इस आधार पर विवाह को शून्यकरणीय घोषित करने के लिए याचिका दायर कर सकता है।
महत्वपूर्ण केस लॉ: राम नारायण गुप्ता बनाम रामेश्वरी गुप्ता (Ram Narain Gupta v. Rameshwari Gupta), 1988: इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने "मानसिक विकार" (Mental Disorder) की व्याख्या की। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि 'मानसिक विकार' का अर्थ केवल चिकित्सा दृष्टि से रोग (Disease) होना नहीं है, बल्कि यह ऐसा होना चाहिए जो व्यक्ति को वैवाहिक जीवन के लिए अयोग्य (Unfit for Matrimonial Life) बनाता हो, खासकर बच्चों की संतानोत्पत्ति के संबंध में। यह परिभाषा मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति को विवाह की शर्त के रूप में स्पष्ट करती है।
(iii) विवाह की आयु (Age of Marriage): विवाह के समय दूल्हे (Bridegroom) ने 21 वर्ष की आयु और दुल्हन (Bride) ने 18 वर्ष की आयु पूरी कर ली हो;
यह शर्त विवाह के लिए न्यूनतम आयु (Minimum Age) निर्धारित करती है। मूल रूप से, दुल्हन के लिए यह आयु 15 वर्ष थी, जिसे बाद में बाल विवाह निरोधक (संशोधन) अधिनियम, 1978 (Child Marriage Restraint (Amendment) Act, 1978) द्वारा संशोधित कर 18 वर्ष कर दिया गया। यदि इस शर्त का उल्लंघन होता है, तो विवाह शून्य नहीं (Not Void) होता है, बल्कि वैध (Valid) रहता है। हालांकि, ऐसे विवाह में शामिल पक्षों को बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 (Prohibition of Child Marriage Act, 2006) के तहत दंडित किया जा सकता है। नाबालिग (Minor) पक्ष के पास ऐसे विवाह को रद्द करने का विकल्प (Option to Annul) होता है।
उदाहरण: यदि 22 वर्षीय लड़के की शादी 17 वर्षीय लड़की से होती है, तो यह विवाह हिंदू विवाह अधिनियम के तहत वैध माना जाएगा, लेकिन बाल विवाह निषेध अधिनियम, 2006 के तहत यह एक child marriage है, और इसमें शामिल व्यक्तियों को दंडित किया जा सकता है। लड़की 18 वर्ष की होने के बाद इस विवाह को रद्द करने के लिए याचिका दायर कर सकती है।
महत्वपूर्ण केस लॉ: लीला गुप्ता बनाम लक्ष्मी नारायण (Lila Gupta v. Laxmi Narain), 1978: सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में स्पष्ट किया कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 5(iii) के तहत आयु सीमा का उल्लंघन करने वाला विवाह शून्य नहीं है, बल्कि पूरी तरह से वैध है। न्यायालय ने कहा कि अधिनियम ने विवाह के लिए आयु निर्धारित की है, लेकिन यह नहीं कहा कि उल्लंघन होने पर विवाह शून्य हो जाएगा। यह केवल दंडनीय अपराध (Punishable Offence) है जिसके लिए बाल विवाह निरोधक अधिनियम जैसे अन्य कानूनों में प्रावधान हैं।
(iv) निषिद्ध संबंध की डिग्री (Degrees of Prohibited Relationship): पक्ष निषिद्ध संबंध की डिग्री के भीतर (Within the degrees of prohibited relationship) नहीं होने चाहिए, जब तक कि उनमें से प्रत्येक को नियंत्रित करने वाला रीति-रिवाज या उपयोग (Custom or Usage) दोनों के बीच विवाह की अनुमति न दे;
यह शर्त विवाह को अनैतिक संबंधों (Incestuous Relationships) से बचाने के लिए है। "निषिद्ध संबंध की डिग्री" को अधिनियम की धारा 3(g) में परिभाषित किया गया है (जैसे सीधा आरोही या अवरोही, भाई-बहन, चाचा-भतीजी, आदि)। इस सीमा के भीतर विवाह शून्य होता है, जब तक कि कोई स्थापित और वैध रीति-रिवाज इसकी अनुमति न दे। रीति-रिवाज को धारा 3(a) में दी गई परिभाषा के अनुसार निरंतर (Continuous), समान रूप से पालन किया गया (Uniformly Observed), निश्चित (Certain), उचित (Reasonable) और सार्वजनिक नीति के विरुद्ध नहीं होना चाहिए।
उदाहरण: एक भाई और बहन आपस में शादी नहीं कर सकते, क्योंकि वे निषिद्ध संबंध की डिग्री में आते हैं। हालांकि, कुछ समुदायों में चचेरे भाई-बहनों (First Cousins) के बीच शादी की प्रथा होती है, जो यदि उस समुदाय में एक मान्य रीति-रिवाज है, तो धारा 5(iv) के अपवाद (Exception) के तहत ऐसे विवाह को वैध बनाया जा सकता है।
महत्वपूर्ण केस लॉ: डॉ. सूरज मणि स्टेला कुजूर बनाम दुर्गा चरण हंसदाह (Dr. Suraj Mani Stella Kujur v. Durga Charan Hansdah), 2001: सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में इस बात पर जोर दिया कि एक रीति-रिवाज, जो कानून के किसी भी प्रावधान से हटकर अनुमति देता है, उसे कठोरता से साबित (Strictly Proved) किया जाना चाहिए। रीति-रिवाज को प्राचीन (Ancient), निश्चित और उचित होना चाहिए और सार्वजनिक नीति के खिलाफ नहीं होना चाहिए। यह निर्णय निषिद्ध संबंध या सपिंड संबंध के अपवाद के रूप में रीति-रिवाज के उपयोग को नियंत्रित करता है।
(v) सपिंड संबंध (Sapinda Relationship): पक्ष एक-दूसरे के सपिंड (Sapindas) नहीं होने चाहिए, जब तक कि उनमें से प्रत्येक को नियंत्रित करने वाला रीति-रिवाज या उपयोग दोनों के बीच विवाह की अनुमति न दे;
यह शर्त भी निकट संबंधों (Close Relationships) के बीच विवाह को रोकती है, जिसे "सपिंड संबंध" के रूप में परिभाषित किया गया है (धारा 3(f) में परिभाषित, जो माता की ओर से तीसरी पीढ़ी और पिता की ओर से पाँचवीं पीढ़ी तक फैला हुआ है)। निषिद्ध संबंध की डिग्री के समान, सपिंड संबंध में विवाह भी शून्य होता है, जब तक कि स्थापित और वैध रीति-रिवाज (Valid Custom) इसकी अनुमति न दे।
उदाहरण: एक लड़का अपनी माँ के भाई की बेटी (मामा की बेटी) से शादी नहीं कर सकता यदि वे सपिंड संबंध में आते हैं, जब तक कि उनके समुदाय में ऐसे विवाह की अनुमति देने वाला एक स्थापित और मान्य रीति-रिवाज न हो (जैसा कि दक्षिण भारत के कुछ समुदायों में प्रचलित है)।
महत्वपूर्ण केस लॉ: जी.एम. रेवनसिद्दैया बनाम के.एम. अंबिका (G.M. Revannasiddaiah v. K.M. Ambika), 2005: इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि सपिंड संबंध के भीतर विवाह केवल तभी वैध हो सकता है जब इसे एक सत्यापित रीति-रिवाज (Verified Custom) द्वारा स्पष्ट रूप से अनुमति दी गई हो। न्यायालय ने रीति-रिवाज को साबित करने की आवश्यकता पर फिर से बल दिया, जिसमें उसकी प्राचीनता (Antiquity), निरंतरता (Continuity), निश्चितता (Certainty) और सार्वजनिक नीति के अनुरूप (Consistent with Public Policy) होना शामिल है।
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 5 में उल्लिखित ये शर्तें विवाह की पवित्रता (Sanctity of Marriage) और समाज में उसके स्वस्थ संचालन (Healthy Functioning) को बनाए रखने के लिए आधारशिला (Cornerstone) हैं। वे एक तरफ तो प्राचीन हिंदू विवाह के sacramental प्रकृति को बनाए रखने का प्रयास करती हैं, वहीं दूसरी ओर इसे आधुनिक सामाजिक मूल्यों (Modern Social Values) और न्याय (Justice) के सिद्धांतों के अनुरूप ढालती हैं। इन शर्तों का अनुपालन (Compliance) सुनिश्चित करता है कि एक हिंदू विवाह कानूनी रूप से मजबूत और सामाजिक रूप से स्वीकार्य है।