Constitution में सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया का जज होने की योग्यता

Update: 2024-12-16 11:31 GMT

भारत के सुप्रीम कोर्ट के जज पद पर नियुक्त होने के लिए किसी व्यक्ति के पास में कुछ योग्यताएं होना चाहिए। जैसे कि वह भारत का नागरिक होना चाहिए किसी हाई कोर्ट का लगातार कम से कम 5 वर्षों तक जज का होना चाहिए। किसी हाई कोर्ट में लगातार 10 वर्षों तक अधिवक्ता रहा होना चाहिए। राष्ट्रपति की राय में अच्छा विधिवेत्ता होना चाहिए।

भारत के सुप्रीम कोर्ट के जज 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर बने रह सकते हैं। जजों की आयु ऐसे अधिकारी द्वारा वृत्ति से आधारित की जाएगी जैसा कि संसद द्वारा उपबंध करें। कोई जज राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपने पद को त्याग सकता है।

कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया का आर्टिकल 145 जजों को पद से हटाने के लिए महाभियोग की व्यवस्था करता है। जजों को हटाने की प्रक्रिया उल्लेख की जाती है। सुप्रीम कोर्ट के जजों को केवल महाभियोग द्वारा हटवा जा सकता है। पहला आधार है सिद्ध कदाचार और दूसरा आधार है असमर्थता। राष्ट्रपति के आदेश द्वारा उनको पद से हटाया जा सकता है। हाई कोर्ट के जज को पद से हटाने के लिए समवेदनन लोकसभा और राज्यसभा दोनों कुल सदस्य संख्या के बहुमत द्वारा सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के कम से कम दो तिहाई बहुमत द्वारा समर्थित होना चाहिए।

इसके बाद राष्ट्रपति के समक्ष रखा जाना चाहिए और उसके आदेश देने पर उसके पद से हटा दिया जाएगा। ऐसे किसी प्रस्ताव के संसद में रखे जाने तथा जज के कदाचार और असमर्थता के अन्वेषण और साबित करने की प्रक्रिया संसद विधि द्वारा निर्मित करेगी। कोई भी जज उस समय तक अपने पद से नहीं हटाया जा सकता जब तक कि वह वास्तविक रूप से अयोग्य और दुराचारी न हो और यह आरोप उसके विरुद्ध साबित न कर दिया जाए। कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया द्वारा जजों की पदावधि को संरक्षण प्रदान करता है।

के वीरा स्वामी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1947 के अधीन अपराधों के लिए अभियोजन चलाया जा सकता है। आर्टिकल 124(4) में प्रयुक्त सिद्ध कदाचार शब्दावली का क्षेत्र बहुत विस्तृत है और इसमें भ्रष्टाचार निवारक अधिनियम 1947 की धारा 5(1) में वर्णित आपराधिक दुराचार भी सम्मिलित है।

इस मामले में अपीलार्थी के वीरा स्वामी को 1960 में मद्रास हाई कोर्ट में जज नियुक्त किया गया। 1970 में उन्हें मुख्य जज नियुक्त किया गया। 24 फरवरी 1976 सीबीआई ने उनके विरुद्ध दिल्ली दिल्ली के एक न्यायालय में फाइल किए गए। एफआईआर के आधार पर एक भ्रष्टाचार का मामला दर्ज किया जिसमें यह आरोप लगाया गया था कि मुख्य जज के रूप में उन्होंने अपने उपलब्ध आय के स्रोतों से अधिक धन एकत्र किया था जिसका उपयुक्त आधार प्रस्तुत करने में असमर्थ रहे थे और इस प्रकार भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1947 की धारा 5(1) में वर्णित अपराधों के लिए दोषी थे।

इसकी जानकारी होने पर अपीलार्थी ने लंबा अवकाश ले लिया था और 8 अप्रैल 1974 में रिटायर हो गए। सीबीआई ने विशेष न्यायालय में उनके विरुद्ध चार्जशीट फाइल की अपीलार्थी ने मद्रास हाई कोर्ट में अभियोजन को रद्द करने के लिए दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन याचिका फाइल की। हाई कोर्ट ने उनके पिटीशन को खारिज कर दिया। इस निर्णय के विरुद्ध प्रार्थी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील फाइल की अपीलार्थी ने अभिकथन किया कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जज भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1947 के अधीन नहीं है और उसका अभियोजन असंवैधानिक है।

सुप्रीम कोर्ट ने 4/1 के बहुमत से कहा कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1947 की धारा 56 सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की लागू होती है। धारा 6 में प्रयुक्त लोकसेवक शब्द में हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज भी आते हैं। आर्टिकल 124 (5) के अधीन संसद द्वारा बनाए गए जज जांच अधिनियम 1968 और जज जांच नियम 1970 केवल सिद्ध कदाचार असमर्थता के आधार पर जजों को उनके पद से हटाने का उपबंध करते हैं। यह अधिनियम भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1947 की धारा 5(1) के अधीन वर्णित अपराधों के लिए अभियोजन का उपयोग नहीं करते।

श्री रविंद्र चंद्र अय्यर बनाम जज एनके भट्टाचार्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा है कि केवल भारत का मुख्य जज हाई कोर्ट के जज या उसके मुख्य जज के विरुद्ध लगाए गए किसी आरोप जो महाभियोग से कम है के विरुद्ध कार्यवाही कर सकता है। न्यायालय के जज न्यायमूर्ति के रामास्वामी और मुख्य जज पीएल हंसरिया की खंडपीठ ने उक्त निर्णय दिया और कहा कि इस संबंध में मुख्य जज के ऊपर है कि वह आंतरिक जांच के लिए क्या प्रक्रिया अपनाएं।

न्यायालय के समक्ष मुख्य विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या बार एसोसिएशन को किसी जज को त्यागपत्र देने के लिए बाध्य करने के लिए प्रस्ताव पारित करने का अधिकार है?

बार एसोसिएशन को ने तर्क दिया कि आर्टिकल 124 की प्रक्रिया केवल तभी अपनाई जा सकती है जब सिद्ध कदाचार और असमर्थता स्थित हो जाए और उसका परिणाम अनिश्चित होता है जैसा कि सुप्रीम कोर्ट के जज श्री रामा स्वामी के विरुद्ध महाभियोग गिरने से स्पष्ट है जो इसलिए पारित नहीं हो सका क्योंकि कांग्रेस पार्टी ने मतदान में भाग नहीं लिया था। ऐसी स्थिति में उनके द्वारा जज से त्यागपत्र मांगना न्यायपालिका की स्वतंत्रता की संरक्षा करना है।

भारत के सुप्रीम कोर्ट को कई प्रकार से अधिकारिकता प्राप्त है जैसे कि-

अभिलेख न्यायालय

प्रारंभिक न्यायालय

अपीलीय अधिकारिकता

विशेष इजाजत से अपील

परामर्श दात्री अधिकारिता

भारत के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय सर्वोच्च विधि की तरह होते हैं। इस न्यायालय का कोई भी निर्णय पार्लियामेंट का बढ़ाएं किसी भी अधिनियम की तरह होता है। किसी विधान के संबंध में भारत का सुप्रीम कोर्ट जब कोई निर्णय प्रस्तुत करता है तो उसका निर्णय विधि का बल रखता है। आर्टिकल 29 सुप्रीम कोर्ट को अभिलेख न्यायालय घोषित करता है।

इसे न्यायालय की शक्तियां प्रदान करता है।अभिलेख न्यायालय का मतलब है इसे न्यायालय की कार्यवाही लिखित होती हैं उन्हें हमेशा संभाल कर रखा जाता है ताकि भविष्य में अधीनस्थ न्यायालय के समक्ष पूर्ण निर्णय के रूप में प्रस्तुत की जा सके। ऐसे न्यायालय को अपने अवमान के लिए किसी व्यक्ति को दंड देने की शक्ति होती है।

भारतीय कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया सुप्रीम कोर्ट को अभिव्यक्त रूप से शक्ति प्रदान करता है। ऐसी शक्ति को ध्यान में रखते हुए न्यायालय अवमान अधिनियम 1971 पारित किया गया। इस अधिनियम के अनुसार न्यायालय का अवमान दो प्रकार से होता है। सिविल और आपराधिक। सिविल अवमान का अर्थ होता है न्यायालय की किसी डिक्री आदेश निदेश रिट या किसी अन्य प्रक्रिया को जानबूझकर अवज्ञा करना है या न्यायालय के दिए हुए किसी वचन को जानबूझकर न मानना। आपराधिक ऐसे विषय के प्रकाशन से है चाहे वह मौखिक या लिखित हो या ऐसे कार्यों से हैं जो निर्णय की निंदा करते हुए हो या उसके प्रतिकार को कम करते हुए हो पर प्रभाव डालने वाले हो डालते हो या न्यायिक कार्यो में बाधा डालते हैं।

भारत का सुप्रीम कोर्ट को पक्षकारों के किसी भी विवाद में प्राथमिक अधिकारिता प्राप्त है। यूनियन तथा एक से अधिक राज्यों के बीच होने वाले विवादों में, यूनियन और कई राज्य और एक तथा एक दूसरे राज्य, दो या दो से अधिक राज्यों के बीच होने वाले विवादों में सभी प्रकार के विवाद प्रारंभिक रूप से भारत के सुप्रीम कोर्ट के सामने प्रस्तुत किए जाएंगे। प्रारंभिक अधिकारिता के अंतर्गत हाई कोर्ट सरकार के विरुद्ध नागरिकों द्वारा प्रस्तुत मुकदमे को स्वीकार नहीं कर सकता है।

कर्नाटक राज्य बनाम भारत यूनियन के मामले में केंद्र सरकार ने जांच आयोग की धारा 3 के अधीन कर्नाटक राज्य के मुख्यमंत्री और अन्य मंत्रियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार भाई भतीजावाद पक्षपात सरकारी शक्तियों के दुरुपयोग के आरोपों की जांच करने के लिए आयोग नियुक्त किया। पुलिस ने कर्नाटक राज्य ने कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया के आर्टिकल 21 के अधीन सुप्रीम कोर्ट में भारत यूनियन के विरुद्ध संस्थित किया जिसमें उसने यह कहा कि केंद्र सरकार को जांच आयोग का कोई अधिकार नहीं है।

राज्य में निम्न आधारों पर केंद्र सरकार की अधिसूचना को चुनौती दी- पहला आधार था जांच आयोग अधिनियम 1992 केंद्र सरकार को उठाने का अधिकार नहीं देता है जो राज्य की विधायिका और कार्यपालिका शक्ति के अंतर्गत आता है, दूसरा आधार था- अधिसूचना कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया का मूल तत्व है पर आघात पहुंचाती है। भारत यूनियन की ओर से यह प्रारंभिक आपत्ति उठाई गई के यह वाद योग्य नहीं है क्योंकि केवल मुख्यमंत्री के विरुद्ध वाद लाया जा सकता है राज्य के विरुद्ध वाद नहीं चलाया जा सकता है।

कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया के आर्टिकल 32 के अधीन मूल अधिकारों के उल्लंघन के विरुद्ध नागरिकों के उपचार प्रदान करने के लिए सुप्रीम कोर्ट को प्रारंभिक अधिकारिता प्रदान की गई है जिसके अंतर्गत प्रत्येक नागरिक को अपने मूल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए उचित कार्यवाही द्वारा सुप्रीम कोर्ट को प्रचलित करने का अधिकार प्रदान किया गया है। इस प्रयोजन के लिए सुप्रीम कोर्ट को ऐसे निर्देश जिसमे रिट बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध अधिकार पृच्छा उत्प्रेषण जो भी समुचित हो जारी करने की शक्ति प्राप्त है।

आर्टिकल 32 नागरिकों के मूल अधिकारों के उल्लंघन के विरुद्ध शीघ्र उपचार का उपलब्ध करता है। इस आर्टिकल के अंतर्गत कोई भी व्यक्ति जिसके मूल अधिकारों पर कोई आघात किया गया है उपचार के लिए सीधे हाई कोर्ट में जा सकता है इसलिए सुप्रीम कोर्ट को नागरिकों के मूल अधिकारों का संरक्षण भी कहा जाता है।

संवैधानिक मामलों में अपील को आर्टिकल 132 के अंतर्गत उपबंधित किया गया है कि भारत सरकार किसी हाई कोर्ट के निर्णय डिग्री या अंतिम आदेश चाहे वह दीवानी फौजदारी में दिए गए हो की अपील सुप्रीम कोर्ट में की जा सकती है। यदि उस राज्य का हाई कोर्ट आर्टिकल 31 प्रमाणित करता है कि उस मामले में कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया से संबंधित कोई सामान विशिष्ट अंतर्गत है यदि हाई कोर्ट प्रमाण पत्र दे देता है तो मामले का कोई पक्षकार सुप्रीम कोर्ट में अपील इस आधार पर कर सकता है कि इस प्रश्न पर दिया गया निर्णय गलत है।

आर्टिकल 132 के अधीन सुप्रीम कोर्ट में अपील फाइल करने के लिए कुछ शर्ते दी गई हैं जैसे अपील हाई कोर्ट के सिविल, दाण्डिक के अन्य कार्यवाही में दिए गए किसी निर्णय डिक्री या अंतिम आदेश के विरुद्ध होना चाहिए और मामले में कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया के निर्वचन के बारे में कोई विधि का सारवान प्रश्न अन्तर्निहित हो।

यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में आर्टिकल 136 के अधीन सुप्रीम कोर्ट की प्रकृति और विस्तार के संबंध में न्यायालय ने निर्णय की पुष्टि करते हुए कहा है कि शक्ति अत्यंत विस्तृत है। इसके अंतर्गत जिला न्यायालय के न्यायालय से मूल वाद को वापस लेने या अंतरित करने की शक्ति प्राप्त है। आर्टिकल 139A वादों को वापस लेने और अंतरित करने की शक्ति 136 के अधीन प्राप्त शक्ति को समाप्त नहीं करता है।

भोपाल गैस कांड के संबंध में यूनियन कार्बाइड कंपनी के लिए वाद किया गया और कंपनी के विरुद्ध कार्रवाई प्रारंभ की गई। इस बीच केंद्र सरकार ने एक अधिनियम पारित करके वाद चलाने का अधिकार स्वयं ले लिया। इस अधिनियम के अनुसार भोपाल के जिला न्यायालय से कंपनी के विरुद्ध संस्थित सभी वाद और आपराधिक कार्रवाई वापस ले लिया और पक्षकारों के बीच समझौता करा दिया। प्रस्तुत मामले में समझौते की अन्य बातों की तो न्यायालय ने पुष्टि कर दी किंतु आपराधिक कार्यवाहियों के उठाने का आदेश रद्द घोषित कर दिया।

भारत का सुप्रीम कोर्ट यूनियन की न्यायपालिका का प्रमुख अंग है। कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया एक यूनियनीय कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया है हालांकि यहां राज्यों को भी शक्तियां प्राप्त है पर व्यवस्था ऐसी की गई है जिससे भारत के सुप्रीम कोर्ट को सर्वोच्च रखा जाए। कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया की न्यायपालिका की निष्पक्षता और स्वतंत्रता पर्याप्त रूप से संरक्षित है।

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