लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 भाग 5: अधिनियम में प्रवेशन लैंगिक हमले के लिए सज़ा
लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO) (The Protection Of Children From Sexual Offences Act, 2012) धारा 4 प्रवेशन लैंगिक हमले के लिए दंड का प्रावधान करती है। धारा 3 प्रवेशन लैंगिक हमले को परिभाषित करती है एवं धारा 4 उसके दंड को प्रावधानित करती है। इस आलेख के अंतर्गत धारा 4 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।
यह अधिनियम में प्रस्तुत की गई धारा का मूल रूप है
धारा- 4 प्रवेशन लैंगिक हमले के लिए दण्ड
[(1)] जो कोई प्रवेशन लैंगिक हमला कारित करेगा वह दोनों में से किसी भांति के कारावास से जिसकी अवधि दस वर्ष से कम की नहीं होगी किन्तु जो आजीवन कारावास तक की हो सकेगी और जुर्माने से भी दंडनीय होगा।
(2) जो कोई सोलह वर्ष से कम आयु के किसी बालक पर प्रवेशन लैंगिक हमला करेगा, वह कारावास से, जिसकी अवधि बीस वर्ष से कम की नहीं होगी, किन्तु जो आजीवन कारावास, जिसका अभिप्राय उस व्यक्ति के शेष प्राकृत जीवनकाल के लिए कारावास होगा, तक की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा और जुर्माने का भी दायी होगा।
(3) उपधारा (1) के अधीन अधिरोपित जुर्माना न्यायोचित और युक्तियुक्त होगा और उसका संदाय, ऐसे पीड़ित के चिकित्सा व्ययों और पुनर्वास पर पूर्ति के लिए ऐसे पीड़ित को किया जाएगा।]
यह धारा दंड के दो रूप उल्लेखित करती है। पहला दंड 18 वर्ष से कम आयु के बालक के साथ अपराध कारित करने के संबंध में है और दूसरा दंड 16 वर्ष से कम आयु के बालक के साथ अपराध कारित करने के संबंध में है। 16 वर्ष से कम आयु के बालक के साथ अपराध कारित करने पर दंड अधिक है जहां कम से कम दंड बीस वर्ष का कारावास है और अधिकतम आजीवन कारावास।
तीन वर्ष की आयु की पीड़िता के साथ बलात्संग जघन्य अपराध है और उस पर कठोरतापूर्वक और सशक्त रूप में विचार किया जाना आवश्यक है। ऐसी स्थिति में, भारतीय दण्ड संहिता और पॉक्सो अधिनियम के अधीन उपबन्धित न्यूनतम दण्डादेश प्रदान करना अपराध की गंभीरता के अनुरूप पर्याप्त दण्ड होना नहीं कहा जा सकता है मात्र इस कारण से कि अभियुक्त युवा है मुश्किल से पर्याप्त दण्डादेश अधिरोपित न करने और/या भारतीय दण्ड संहिता और पॉक्सो अधिनियम के अधीन उपबन्धित न्यूनतम दण्डादेश अधिरोपित न करने का आधार हो सकता है।
गुरुतर प्रवेशन लैंगिक हमले का सबूत
एक मामले में पीड़िता ने यह कथन किया था कि प्रत्येक रात अभियुक्त उसे पीटा करता था और उसके साथ गलत कृत्य कारित करता था। पीड़िता का साक्ष्य उस अध्यापिका तथा प्रधानाध्यापिका, जिनसे वह उस रीति को बतायी थी. जिसमें अभियुक्त उसका शोषण किया करता था. के साक्ष्य से संपुष्ट था। अस्थि विकास परीक्षण में पीड़िता लड़की की आयु को 9-10 वर्ष के बीच साबित किया था। चिकित्सीय रिपोर्ट ने पीड़िता के लैंगिक शोषण को साबित किया था। इस प्रकार अभियोजन ने अपने मामले को युक्तियुक्त संदेह से परे साबित किया था।
अवयस्क के साथ बलात्संग का सबूत
विमल बनाम मध्य प्रदेश राज्य 2019 क्रिलॉज 4785 एआईआर 2019 एमपी 908 के मामले में अभियोक्त्री का मौखिक साक्ष्य न केवल चिकित्सीय के साथ ही साथ न्यायालयिक विज्ञान प्रयोगशाला की रिपोर्ट के द्वारा समर्थित था, वरन उसने घटना को तत्काल अपनी माँ (अभियोजन साक्षी 4) तथा अभियोजन साक्षी 5 से बताया था। इस प्रकार यह अभिनिर्धारित किया जाता है कि अभियोजन ने युक्तियुक्त संदेह से परे यह साबित किया है कि अपीलार्थी ने अभियोक्त्री के साथ बलात्सग कारित किया था। इसलिए अपीलार्थी की भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 के अधीन तथा पॉक्सो अधिनियम की धारा 4 के अधीन दोषसिद्धि को संपुष्ट किया जाता है।
प्रहलाद बनाम राजस्थान राज्य, एआईआर 2018 एससी डॉक्टर ने यह कथन किया था कि मृतका के जननांग स्वस्थ थे और मृतका के गुप्तांग पर क्षति का कोई चिन्ह विद्यमान नहीं था। मृतका के जननांग के नजदीक की बाह्य त्वचा पर वीर्य के स्खलन का भी कोई चिन्ह नहीं पाया गया था। अभियोजन डॉक्टर के साक्ष्य पर विश्वास व्यक्त करता है। अभियोजन के द्वारा अभिलेख पर कोई अन्य सामग्री प्रस्तुत नहीं की गयी है।
इस तथ्य की दृष्टि में कि प्रवेशन लैंगिक हमले के आरोप को साबित करने के लिए कोई अन्य विश्वसनीय साक्ष्य विद्यमान नहीं है विवारण न्यायालय और उच्च न्यायालय अभियुक्त को पॉक्सो अधिनियम की धारा 4 के अधीन अपराध के लिए दोषसिद्ध करने में न्यायसंगत नहीं है।
एक मामले में अभियुक्त जो अवयस्क अभियोक्त्री का पिता था अभिकथित रूप में अनेक बार बलात्कार कारित किया था। अभियोक्त्री का अनिसाध्य अन्य मौखिक तथा चिकित्सीय साक्ष्य के द्वारा सपुष्ट था। इस प्रकार अभियोजन मामले को युक्तियुक्त संदेह से परे साबित किया था। इसलिए अभियुक्त की दोषसिद्धि उचित अभिनिर्धारित की गयी थी।
एम लोगनाथन बनाम राज्य 2017 क्रिमिनल लॉ जर्नल 633 मद्रास के मामले में दोषसिद्धि की वैधानिकता वर्तमान मामले में स्वीकृत रूप में घटना दिनांक 28/09/2012 को घटित हुई थी, जबकि पॉक्सो अधिनियम दिनांक 14/11/2012 से प्रभावी रूप में प्रवर्तन में आया था। इस प्रकार अभिकथित घटना की तारीख पर यथा विद्यमान पॉक्सो अधिनियम प्रवर्तन में नहीं था और इसलिए पॉक्सो अधिनियम की धारा 4 के अधीन अपीलार्थी की दोषसिद्धि असवैधानिक है क्योंकि वह भारत का संविधान के अनुच्छेद 20(1), जिसे मौलिक अधिकार के रूप में गारण्टी प्रदान की गयी है का उल्लंघन करती है।
डॉक्टर के कथन की विश्वसनीयता
एक मामले में डॉक्टर ने यह कथन किया है कि पीड़िता के गुप्तांग पर क्षति विन्दुवत लकड़ी के द्वारा अथवा अगुली डालने के द्वारा सभाव्य नहीं थी। परन्तु अभियोक्त्री ने स्वयं यह कथन किया है कि वह आम लेने के दौरान गिर गयी थी और लकड़ी से क्षति कारित की थी। डॉक्टर की राय रोगनिदानी रिपोर्ट पर आधारित है, परन्तु अभिलेख पर कोई रोगनिदानी रिपोर्ट नहीं लायी गयी है। इस प्रकार डॉक्टर के द्वारा बलपूर्वक बलात्संग का निष्कर्ष आधारहीन और अप्राप्य होना प्रतीत होता है।
प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में देरी
आशिम स्टैनिस्लास राय बनाम सिक्किम राज्य, 2019 क्रिलॉज 4671 (सिक्किम) अध्यापक ने लगभग नौ वर्षीय अवयस्क पर लैंगिक रूप में हमला किया था यह ऐसी प्रथम घटना थी, जो उठाये जाने वाले कदमों के बारे मे आघात और भ्रम को अग्रसर की थी। केवल बहुत विचार-विमर्श करने के पश्चात् अध्यापकों ने घटना के बारे में पीड़िता के माता-पिता को सूचित किया था। पीड़िता के माता-पिता से आसानी से संपर्क नहीं किया जा सका था, क्योंकि उनका मोबाइल फोन स्विच ऑफ था, जिसने पुनः विलम्ब में योगदान दिया था इस प्रकार, प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में विलम्ब को पर्याप्त रूप में स्पष्ट किया गया था।
कार्यवाही को अभिखण्डित करना
प्रथम सूचना रिपोर्ट शिकायतकर्ता की ओर से गलत समझ पर दाखिल की गयी थी, क्योंकि पीड़िता अपने संरक्षक को कोई सूचना दिये बिना गायब हो गयी थी। पीड़िता घटना के समय अवयस्क नहीं थी। पीड़िता अभियुक्त के साथ विवाह करने के लिए स्वयं अपनी इच्छा से घर छोड़ी थी। ऐसी पृष्ठभूमि में दाण्डिक कार्यवाही अभिखण्डित किये जाने के लिए दायी थी।
बलात्संग का सबूत
विवेक बनाम उत्तराखण्ड राज्य 2019 क्रिमिनल लॉ जर्नल 2716 के मामले में अभियोक्त्री ने कहीं भी यह कथन नहीं किया था कि अभियुक्त ने उस पर लैंगिक रूप में हमला किया था अथवा उसके साथ बलात्संग कारित किया था। चिकित्सीय रिपोर्ट में भी लैंगिक हमला के बारे में कोई निश्चित राय नहीं है। इसलिए बलात्संग का अभिकथन या तो अभियोक्त्री के कथन के द्वारा या चिकित्सीय साक्ष्य के द्वारा साबित नहीं हुआ है। यद्यपि पक्षकारों के बीच सहवास हुआ था. फिर भी अभियोक्त्री ने स्वयं यह कथन किया था कि वह अभियुक्त के साथ विवाह कर ली है. इसलिए भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375 के अपवाद की दृष्टि में पत्नी के 15 वर्ष से कम आयु की न होने के कारण वह बलात्संग नहीं है। तदनुसार भारतीय दण्ड संहिता की धारा 376 के अधीन तथा पॉक्सो अधिनियम की धारा 4 और 6 के अधीन अभियुक्त के विरुद्ध कोई अपराध नहीं बनता है।
निष्पक्ष विचारण शीघ्रतापूर्वक निपटारा
अनोखीलाल बनाम मध्य प्रदेश एआईआर 2020 एससी 232 एआईआर 2019 एससी 17731 के प्रकरण में निस्संदेह दाण्डिक मामलों में आवश्यक होता है और वह स्वाभाविक रूप में निष्पक्ष विचारण की गारण्टी का भाग होगा। तथापि, प्रक्रिया को शीघ्रतापूर्वक करने का प्रयत्न अभियुक्त के प्रति निष्पक्षता और अवसर के मूलभूत तत्वों, जिस परिकल्पना पर संपूर्ण दाण्डिक न्याय प्रशासन पाया जाता है, की कीमत पर नहीं होना चाहिए। त्वरित निपटारे के अनुशीलन में न्याय के हेतुक को कभी भी भुगतने अथवा बलिदान होने के लिए अनुज्ञात नहीं किया जाना चाहिए।
लैगिक हमले का सबूत जब अभिलेख पर साक्ष्य स्पष्ट रूप में यह कथन करता है कि अभियुक्त ने उक्त मृतका की योनि तथा शरीर के अन्य गुप्त भागों को स्पर्श किया था, तो अभियुक्त के विरुद्ध निसदेह लैगिक हमला कारित करने का अपराध बनता है और इसलिए उसका कृत्य पॉक्सो अधिनियम की धारा 8 के अधीन दण्डनीय था।
बिहार राज्य बनाम हेमलाल शाह 2014 क्रिमिनल लॉ जर्नल 1767 (पटना) मृत्यु दण्ड की वैधानिकता वर्तमान मामले में अभियुक्त घटना के समय लगभग 25 वर्ष की आयु का था। यह दर्शाने के लिए कोई साक्ष्य नहीं था कि वह अतीत में किसी दाण्डिक मामले में लिप्त था और इन सबके अलावा अभिलेख पर यह दर्शाने के लिए कुछ भी नहीं था कि अभियुक्त यदि जीवित रहता है तो वह भविष्य में समाज के लिए अभिशाप होगा। निस्संदेह कारित किये गये अपराध घोर थे परन्तु वर्तमान मामले को किसी भी माध्यम से विरले से विरलतम मामलों के रूप में नहीं समझा जा सकता है जो मृत्यु दण्ड का दायी बनाए। इसलिए अभियुक्त के विरुद्ध पारित किया गया मृत्यु दण्ड सधार्य नहीं हो सकता है।
अपराध के लिए प्रदान किया गया दण्ड सुसंगत होना चाहिए
अपराध और दण्ड के बीच का अनुपात ऐसा लक्ष्य है जिसका सिद्धांत सम्मान किया गया था और भ्रामक विचारधाराओं के बावजूद दण्डादेश के निर्धारण में यह सशक्त प्रभाव रखता है। समान कठोरता के साथ सभी गम्भीर अपराधों को दण्डित करने का व्यवहार अब सभ्य समाजो में अज्ञात है. परन्तु आनुपातिकता के सिद्धांत से ऐसा मूलभूत विचलन विधि से केवल हाल के समयों में ही समाप्त हुआ है। अपर्याप्त दण्डादेश अधिरोपित करने के लिए असम्यक् सहानुभूति विधि की प्रभावकारिता में जन विश्वास को क्षीण करने के लिए न्यायिक प्रणाली को और अधिक हानि कारित करेगी तथा समाज ऐसी गम्भीर धमकियों के अधीन अब सहन नहीं कर सकता है। इसलिए अपराध की प्रकृति तथा उस रीति जिसमें उसे निष्पादित अथवा कारित किया गया था आदि को ध्यान में रखते हुए उचित दण्डादेश प्रदान करना प्रत्येक न्यायालय का कर्तव्य है।
आपराधिक आचरण के प्रत्येक प्रकार की अपराधिकता के अनुसार दायित्व विहित करने में आनुपातिकता का सिद्धांत
दण्ड विधि सामान्यतः आपराधिक आचरण के प्रत्येक प्रकार की अपराधिकता के अनुसार दायित्व विहित करने में आनुपातिकता के सिद्धांत का अनुपालन करती है। यह सामान्यतः प्रत्येक मामले में दण्डादेश पर पहुंचने में न्यायाधीश के कुछ महत्वपूर्ण विवेकाधिकार को अनुज्ञात करता है, जो उपधारणात्मक रूप में ऐसे दण्डादेशो को अनुज्ञात करने के लिए होता है, जो अपराधिकता के और अधिक सूक्ष्म विचारण को प्रदर्शित करता है, जिसे प्रत्येक मामले में विशेष तथ्यों के द्वारा उद्भूत किया गया हो। न्यायाधीश सारत यह बात अभिपुष्ट करते हैं कि दण्ड को सदैव अपराध के लिए उपयुक्त होना चाहिए फिर भी व्यवहार में दण्डादेश व्यापक रूप में अन्य विचारणों के द्वारा निर्धारित किए जाते है।
इन अपराधों में अभियोजन की असफलता और कुछ मामलों में हमारी न्यायपालिका की उदारता अपराधियों को इन अपराधों को दुहराने के लिए विश्वास तथा प्रोत्साहन प्रदान करती है। दहेज के मामलों में अपराधी दहेज की सम्पत्ति का लाभ प्राप्त करते हैं. परन्तु लम्बे समय तक चलने वाले विधिक युद्ध में कोई दण्ड प्राप्त नहीं करते हैं. इसलिए दण्ड की बुराई को अपराधों के लाभ से अधिक नहीं होना चाहिए।
बलात्संग
हीरा लाल बनाम राजस्थान राज्य, 2017 क्रि.लॉ.ज 2213 के मामले में अभियुक्त, अवयस्क अभियोक्त्री का पिता उसके साथ अनेक अवसरों पर बलात्संग कारित करने के लिए अभिकथित किया गया था। अभियोक्त्री का अभिसाक्ष्य अन्य मौखिक और चिकित्सीय जांचों से सपुष्ट था। चिकित्सीय रिपोर्ट अभियोक्त्री को लैंगिक आसक्ति की अभ्यस्त होना प्रकट करती थी। अभियुक्त की दोषसिद्धि को उचित होना अभिनिर्धारित किया गया।
बलात्संग के मामले में दण्डादेश
अपराध और दण्ड के बीच अनुपात का सिद्धांत "न्यायसंगत अभित्यजन के सिद्धांत के द्वारा शासित
अभियुक्त को अवयस्क लड़की के साथ बलात्संग का अपराध कारित करने का दोषी पाया गया था। अभियुक्त लगभग 20 वर्ष की आयु का था और पीडिता लड़की लगभग 10 वर्ष की आयु की थी और वे एक ही स्थानीय क्षेत्र के पड़ोसी थे। अभियुक्त लगभग 6 वर्ष और 4 मास का कारावास पहले ही भुगत चुका था। तथ्यों और परिस्थितियों पर दण्डादेश को 10 वर्ष के कठोर कारावास से 7 वर्ष तक कम किया गया. जो न्यायसंगत अभित्यजन की मात्रा होने के कारण न्याय के उद्देश्यों को पूरा करेगा।
यदु कुमार पटेल बनाम छत्तीसगढ़ राज्य, 2007 के मामले में अभियुक्त को लगभग 12 वर्षीय पीड़िता लड़की के साथ बलात्संग कारित करने का दोषी पाया गया था। अभियुक्त घटना की तारीख पर लगभग 22 वर्ष की आयु का था। अभियुक्त लगभग 5 वर्ष की अवधि का दण्डादेश पहले ही भुगत चुका था। तथ्यों और परिस्थितियों पर उसके दण्डादेश को 10 वर्ष से 7 वर्ष तक कम किया गया था. जो न्यायसंगत अभित्यजन की मात्रा होने के कारण न्याय के उद्देश्यों को पूरा करेगा।
लैंगिक हमला
नीम सिरिंगा लेपचा बनाम सिक्किम राज्य, 2017 क्रि. लॉज 3168 सिक्किम के मामले में अभियुक्त ने अभिकथित रूप में अवयस्क पीड़िता को सदोष रूप में अवरुद्ध किया था और उस पर लैंगिक रूप में हमला किया था। पीड़िता के संरक्षक और दो अन्य साक्षीगण पीड़िता को तलाशने और हरे-घर के अन्दर उसे पाए जाने के बारे में अभिसाक्ष्य दिए थे।
पीड़िता ने अभियुक्त के बलपूर्वक उसे हरे-घर में घसीट कर ले जाने तथा लैंगिक हमला कारित करने के बारे में अभिसाक्ष्य दिया था। पीडिता ने अपने गुप्तांग में दर्द महसूस करने पर घटना के कुछ दिन पश्चात् अपने संरक्षक को सम्पूर्ण घटना बताया था। घटना के 7 दिन पश्चात् पीड़िता की विलम्बित जांच के बावजूद उसके गुप्तांग पर डाक्टर ने लालिमा पाया था, जो चोट का संकेत करती थी। पीड़िता के अन्त वस्त्रों पर पाया गया रक्त उसके रक्त समूह से मिलता था। दोषसिद्धि को उचित होना अभिनिर्धारित किया गया।