Constitution में शेड्यूल कास्ट और शेड्यूल ट्राइब के लिए प्रावधान

Update: 2024-12-27 08:05 GMT

जब भारत स्वतंत्र हुआ भारत के समाज की आर्थिक व सामाजिक स्थितियां अत्यंत अस्त व्यस्त थी। भारतीय समाज जातिगत व्यवस्था से एक लंबे युग से त्रस्त रहा है। किसी भी समाज के किसी भी देश की उन्नति के लिए आवश्यक है कि उस समाज देश का हर वर्ग समान रूप से आर्थिक व सामाजिक परिस्थितियों के अंतर्गत एक ही पंक्ति में खड़ा हो। जब किसी देश किसी समाज में उसके नागरिक एक ही पंक्ति में खड़े होते हैं उनकी सामाजिक आर्थिक हैसियत एक जैसी होती है तब ही देश और समाज की उन्नति संभव है।

भारत के कांस्टीट्यूशन में निहित समानता,लोकतांत्रिक गणराज्य, आर्थिक और सामाजिक और राजनीतिक स्वतंत्रता तब ही संभव थी जब समाज के प्रत्येक वर्ग के व्यक्ति एक पंक्ति में खड़े दिखाई दे। समाज का आर्थिक ढांचा ऐसा न हो के एक वर्ग ऊपर हो तथा 1 वर्ग अत्यंत नेपथ्य में हो। स्वतंत्रता के पूर्व भारत की परिस्थितियां कुछ ऐसी ही थी जहां कुछ समुदाय के लोग अत्यंत धनवान और शक्तिशाली थे तथा कुछ समुदायों के लोग अत्यंत पिछड़े थे। इस स्थिति से निपटना अत्यंत आवश्यक था क्योंकि समानता आधारित समाज की स्थापना के लिए समाज के सभी वर्गों का आगे आना नितांत आवश्यक था।

आरक्षण की व्यवस्था भारत के कांस्टीट्यूशन के मूल आदर्श के विपरीत है परंतु भारत में आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक पिछड़ापन जातियों पर ही आधारित था। कुछ जातियां उन्नत थी और आर्थिक रूप से संपन्न थी सामाजिक रूप से संपन्न थी और कुछ जातियां अत्यंत पीड़ा में थी। भारत में आरक्षण की आधारशिला भारतीय जाति व्यवस्था के अंतर्गत पेशे से बनी जातियों को ही बनाया गया क्योंकि जातियों के आधार पर ही आसमानताएं थी इसलिए जातिगत आरक्षण की व्यवस्था कर दी गई।

अनुसूचित जातियां तथा अनुसूचित जनजातियों को आरक्षण दिया गया, उनके साथ आंग्ल भारतीय समुदाय तथा पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यक समुदाय को भी कुछ आरक्षण दिए गए। अल्पसंख्यक समुदाय को आरक्षण देने का कारण यह था कि जब भारत स्वतंत्र हुआ तो तब भारत का विभाजन भी हुआ और अल्पसंख्यक समुदाय विशेषकर मुसलमानों द्वारा पाकिस्तान जाने से इनकार किया गया तथा उनकी निष्ठा भारत में ही बनी रहे। कांस्टीट्यूशन निर्माताओं ने भारत में निष्ठा रखने वाले मुसलमानों को अल्पसंख्यक मानकर इन्हें सांविधानिक विशेष उपबंध के माध्यम से कुछ ऐसे आरक्षण दिए जिससे बहुसंख्यक समुदाय के अत्याचारों से उन्हें बचाया जा सकें।

कांस्टीट्यूशन में इस प्रकार किए गए आरक्षण के प्रावधान अस्थाई प्रावधान है। कांस्टीट्यूशन में यह प्रावधान कोई स्थाई बुनियादी पत्थर नहीं है जिसे हटाया नहीं जा सकता। यदि समाज में समानता देखी जाने लगे और लोग आर्थिक राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर एक पंक्ति में दिखाई देने लगे तब कांस्टीट्यूशन से विशेष उपबंध की व्यवस्था हटाई जा सकती है।

कांस्टीट्यूशन के भाग-3 में भी अल्पसंख्यकों के अधिकार के संरक्षण के लिए अनेकों बंद है। आर्टिकल 14 भारत के प्रत्येक व्यक्ति को विधि के समक्ष समता और विधियों के समान संरक्षण की गारंटी करता है। आर्टिकल 15 धर्म मूल वंश जाति लिंग में जन्म स्थान के आधार पर सार्वजनिक स्थानों के प्रवेश पर राज्य द्वारा भेदभाव का प्रतिषेध करता है। आर्टिकल की कोई बात राज्य को सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जातियों के लिए उपबंध करने में बाधक न होगी।

आर्टिकल 16 सरकारी नौकरियों के लिए अवसर की समानता की गारंटी करता है। धर्म, मूल, वंश, जाति,जन्म स्थान, निवास के आधार पर भेदभाव को वर्जित करता है किंतु राज्य उक्त वर्गों के व्यक्तियों के लिए यदि उन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिल सका है नियुक्तियों या पदों पर आरक्षण का प्रावधान कर सकता है। आर्टिकल 17 अस्पृश्यता का उन्मूलन करता है जो भारतीय समाज पर एक महान कलंक है। आर्टिकल 19(5) अनुसूचित आदिम जातियों के हितों की रक्षा के लिए इस आर्टिकल के खंड - 4 में प्रदत्त मूल अधिकारों पर निर्बंधन लगाता है।

भारत के कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 330 से लेकर 342 तक निम्न वर्गों के लिए विशेष उपबंध किए गए हैं जिन सभी का उल्लेख इस आलेख में संक्षेप में किया जा रहा है-

अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजातियां-

भारत के कांस्टीट्यूशन के अंतर्गत अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जातियां की कोई विशेष परिभाषा नहीं दी गई है तथा यह निर्धारित नहीं किया गया है कि कौन व्यक्ति अनुसूचित जातियों की श्रेणी में आते हैं। आर्टिकल 341 342 राष्ट्रपति को इन जातियों को उल्लेखित करने की शक्ति प्रदान करता है। राष्ट्रपति उल्लेखित करते हैं उसके लिए अनुसूचित जाति या अनुसूचित जातियां समझी जाएगी।

ऐसी कोई अधिसूचना किसी राज्य से संबंधित है तो वह राज्यपाल के परामर्श से की जा सके। संसद विधि द्वारा खंड 1 के अधीन निकाली अधिसूचना में उल्लेखित सूची के अंतर्गत किसी क्षेत्र में जनजातीय समुदायों को सम्मिलित कर सकती है या निकाल सकती है। कोई जनजाति क्षेत्र के अंतर्गत जनजाति है या नहीं हमें राष्ट्रपति के द्वारा निकाली गई अधिसूचना पर ध्यान देना होगा। अनुसूचित जातियों की श्रेणी के संबंध में राष्ट्रपति का आदेश पर्याप्त है। इस सूची की मान्यता पर इस आधार पर आपत्ति नहीं की जाएगी कि इसमें किसी जाति को अनुसूचित जाति के रूप में उल्लेखित नहीं किया गया है।

भारत के कांस्टीट्यूशन का आर्टिकल 332 के अधीन लोकसभा तथा राज्यों की विधानसभाओं में अनुसूचित जातियों अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित किए जाने का उपबंध किया गया है। आर्टिकल 332 उपबंधित करता है कि लोकसभा में अनुसूचित जातियों के लिए अनुसूचित जनजाति सिवाय असम के स्वशासी जिलों की अनुसूचित जनजातियों को छोड़कर असम के जिलों की अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित रहे। आर्टिकल 332 उपबंध करता है कि प्रत्येक राज्य की विधानसभा में अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थान आरक्षित होंगे।

42 वें कांस्टीट्यूशन संशोधन 1976 द्वारा इस आर्टिकल में संशोधन करके यह स्पष्ट कर दिया गया है कि इस आयोजन के लिए जनसंख्या से तात्पर्य सन 1971 में की गई जनगणना पर आधारित जनसंख्या है और वह सन 2000 तक वैसे ही बनी रहेगी। इसका तात्पर्य यह था कि इन वर्गों के लिए लोकसभा और राज्यसभा तथा राज्यों की विधानसभाओं में स्थानों का आरक्षण सन 2000 तक 1971 की जनगणना के आधार पर किया जाएगा और नई जनगणना पर इस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

अब कांस्टीट्यूशन के 84 वें संशोधन अधिनियम 2000 द्वारा आर्टिकल 332 में संशोधन किया गया और इस प्रयोजन हेतु जनसंख्या को पुनः परिभाषित किया गया। इस संशोधन द्वारा आर्टिकल 332 के स्पष्टीकरण के प्रवर्तक में सन 2000 और 1971 के स्थान पर सन 2026 और 1991 स्थापित कर दी गई है इसका तात्पर्य है कि इस प्रयोजन के लिए जनसंख्या से तात्पर्य 1991 की गई जनगणना पर आधारित जनसंख्या है और वह 2026 तक ऐसी ही बनी रहेगी।

कांस्टीट्यूशन के 73वें संशोधन अधिनियम 2003 द्वारा आर्टिकल के 332 के स्पष्टीकरण को फिर से संशोधित किया गया और सन 1991 के लिए सन 2001 प्रतिस्थापित किया गया। इसका तात्पर्य यह है कि इस प्रयोजन के लिए जनसंख्या का आधार 2001 की जनगणना होगी न कि 1991 की जनगणना। इनमें कांस्टीट्यूशन संशोधन अधिनियम द्वारा कांस्टीट्यूशन सभा में आरक्षण जिलों को छोड़कर पूरे प्रदेश में होगा।

प्रथम आरक्षण कांस्टीट्यूशन लागू होने की तारीख से 10 वर्ष के लिए किया गया था। इसके पश्चात अवधि को समय-समय पर बढ़ाया जाता रहा। कांस्टीट्यूशन संशोधन अधिनियम द्वारा इसे बढ़ाकर 20 वर्ष के लिए कर दिया गया। फिर 1970 में आर्टिकल 334 में प्रयुक्त 20 के स्थान पर कांस्टीट्यूशन के 23 वे संशोधन से 30 शब्दों को प्रतिस्थापित कर दिया गया।

कांस्टीट्यूशन के 95वें संशोधन अधिनियम 2009 द्वारा शब्दावली 60 वर्ष के स्थान पर 70 वर्ष कर दी गई अर्थात विभिन्न वर्गों के लिए लोकसभा और राज्यसभा विधानसभा में आरक्षण 70 वर्ष तक का बना रहेगा अर्थात् सन् 2010 के पश्चात तक इनके लिए स्थान आरक्षित है किंतु वह चुनाव क्षेत्र के सभी मतदाताओं द्वारा निर्वाचित किए जाते हैं उनके लिए कोई पृथक निर्वाचन मंडल नहीं है। आर्टिकल 325 निर्वाचन के लिए एक साधारण निर्वाचन नामावली का उपबंध करता है इसका अर्थ यह इन जातियों के लोग सामान्य स्थानों के लिए भी निर्वाचित किए जा सकते हैं।

आर्टिकल 335 में संशोधन किया गया और एक नया परंतुक जोड़ा गया है। नया परंतुक यह कहता है कि आर्टिकल 335 की कोई बात राज्य को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के सहयोग के लिए उपबंध करने से नहीं रोकेगा जो संघ ने राज्य से संबंधित किसी वर्ग या सेवा के वर्गों में पदोन्नति के संबंध में आरक्षित है। किसी परीक्षा में और उनको या मूल्यांकन की मांगों को लेकर बनाया गया।

कांस्टीट्यूशन के कुल 89वें संशोधन अधिनियम 2003 द्वारा आर्टिकल 338 में एक अनुसूचित जाति आयोग रखा गया और खंड 2 के लिए नया खंड रखा गया है। इसके अनुसार अनुसूचित जातियों के लिए राष्ट्रीय अनुसूचित आयोग की स्थापना का उपबंध किया गया है। संसद द्वारा इस निमित्त बनाई गई किसी विधि के उपबंधों के अधीन रहते हुए आयोग एक अध्यक्ष उपाध्यक्ष व तीन अन्य सदस्यों से मिलकर बनेगा। आयोग के सदस्यों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी।

कांस्टीट्यूशन संशोधन द्वारा नया आर्टिकल 338 (ए) जोड़ा गया है। आर्टिकल 338 (ए) का कार्य आयोग के कार्य करने की प्रक्रिया और उसके कर्तव्यों को उपबंध करना है।

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