NI Act में चेक बाउंस के केस संबंधित प्रक्रिया

Update: 2025-04-26 04:19 GMT
NI Act में चेक बाउंस के केस संबंधित प्रक्रिया

NI Act में चेक बाउंस के केस से संबंधित प्रक्रिया दी हुई है। इस एक्ट में तीन तरह के इंस्ट्रूमेंट से संबंधित प्रावधान हैं लेकिन चेक बाउंस से संबंधित प्रक्रिया धारा 142 में विशेष रूप से दी गयी है। यह धारा 142 धारा 138 के अंतर्गत गठित अपराध के संबंध में प्रस्तुत किए गए परिवाद के संज्ञान की शर्तों को निर्धारित कर रही है।

किसी परिवाद पर

परिवाद विधिक अवधि एक के अन्दर

महानगरीय मजिस्ट्रेट या प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट के समक्ष

किसी अपराध का संज्ञान लेना किसी अपराधी के विरुद्ध न्यायिक कार्यवाही को साशय प्रारम्भ करने या यदि कोई न्यायिक कार्यवाही प्रारम्भ करने का आधार है तो कोई कदम उठाने को सम्मिलित करता है।

परिवाद पर परिवाद मामला- धारा 142 का खण्ड (क) यह स्पष्ट करता है कि कोई कोर्ट धारा 138 के अधीन दण्डनीय किसी अपराध का संज्ञान, चेक के पाने वाले या सम्यक् अनुक्रम धारक के लिखित परिवाद पर ही करेगा, अन्यथा नहीं। अतः इस धारा से स्पष्ट है कि धारा 138 के अधीन कार्यवाही एक परिवाद मामला है और इसे-

लिखित में और

(क) पाने वाला द्वारा, या

(ख) सम्यक् अनुक्रम धारक द्वारा,

अतः एक सामान्य धारक धारा 142 के अधीन परिवाद नहीं ला सकेगा।हालांकि सामान्य विधि के नियमों के अनुसार परिवाद किसी अन्य व्यक्ति जो पाने वाले या सम्यक् अनुक्रम धारक की ओर से भी परिवाद दाखिल किया जा सकेगा।

परिवाद क्या है- परिवाद मजिस्ट्रेट के द्वारा अपराधी के विरुद्ध कोई कार्रवाई प्रारम्भ करने के लिए मौखिक रूप से या लिखित में किए गए ऐसे अभिकथन को, जो किसी संज्ञेय अपराध के कारित किए जाने के सम्बन्ध में होता है, अन्तर्विष्ट करने वाले आवेदन पत्र के सिवाय कुछ भी नहीं है। यह स्पष्ट तौर पर अपने दायरे से पुलिस रिपोर्ट अर्थात् चार्जशीट को अपवर्जित करती है।

धारा 142 के अधीन परिवाद दाखिल किया जा सकेगा-

पाने वाले द्वारा,

सम्यक् अनुक्रम धारक द्वारा (सामान्य धारक द्वारा नहीं),

प्रतिनिधि या अभिकर्ता दोनों (1) एवं (2) के द्वारा,

अटॉर्नी के धारक द्वारा दोनों (1) एवं (2) के,

कम्पनी की दशा में कम्पनी द्वारा किसी अधिकृत व्यक्ति, अटॉर्नी धारक द्वारा।

पावर ऑफ अटॉर्नी के धारक द्वारा विनिता एस० राव बनाम मे० एस्सेन कार्पोरेट सर्विस प्रा० लि० के मामले में सुप्रीम कोर्ट का सम्प्रेक्षण था कि धारा 138 के अधीन परिवाद पावर ऑफ अटॉर्नी के धारक द्वारा भी लाया जा सकता है चाहे पावर ऑफ अटॉर्नी समुचित था या नहीं या पावर ऑफ अटॉर्नी प्रस्तुत नहीं किया गया था, के तथ्य को विचारणीय स्तर पर हो उठाया जाना चाहिए न कि हाई कोर्ट या इससे ऊपर के स्तर की कार्यवाही पर धारा 138 के अधीन परिवाद कम्पनी के लिए। व्यक्ति द्वारा वाद लाया जा सकता है जो ऐसा करने का प्राधिकार रखता है।

ए० सौ० नरायन बनाम महाराष्ट्र राज्यों के मामले में परिवाद कम्पनी के एक कर्मचारी द्वारा जो कम्पनी द्वारा जनरल पावर ऑफ अटॉर्नी का दावा करने वाला वाद लाया। परिवाद कम्पनी के न तो प्रबन्ध निर्देशक या निदेशक द्वारा हस्ताक्षरित नहीं था। इसके पश्चात् 'आर' कम्पनी के उपमहाप्रबन्धक कम्पनी की ओर से साक्ष्य प्रस्तुत किया गया, परन्तु उसे कुछ भी जानकारी नहीं थी और न तो अभिलेख पर ऐसा कोई तथ्य था जो यह स्पष्ट करे कि वह प्रबन्ध निदेशक या किसी निदेशक द्वारा प्राधिकृत था। अभियुक्त का दोषमुक्त होना समुचित धारित किया गया।

परिवाद बिना हस्ताक्षर के-धारा 142 में परिवाद के सम्बन्ध में केवल यह अपेक्षित किया गया है। कि इसे आवश्यक रूप में लिखित और इस चेक को पाने वाला या सम्यक् अनुक्रम धारक द्वारा किया जाना चाहिए। धारा 142 यह नहीं कहती है कि परिवाद पाने वाला या उसके प्रतिनिधि के द्वारा हस्ताक्षरित होना चाहिए। यहाँ प्रश्न है कि क्या बिना हस्ताक्षर के परिवाद को कोर्ट देख सकेगा? इस प्रश्न के उत्तर को सुप्रीम कोर्ट ने इन्द्र कुमार पटोदिया बनाम रिलायन्स इण्डस्ट्रीज लि० के मामले में यह सम्प्रेक्षित किया है-

"उपरोक्त के अतिरिक्त यह पूर्व में माना हुआ नहीं है कि इसे हस्ताक्षरित होना चाहिए। यह आपराधिक प्रक्रिया संहिता के धारा 2 (घ) से स्पष्ट होता है यह संहिता की धाराओं 61, 70 154, 164, 281 के प्रावधानों से अन्तर करता है। इन धाराओं के अध्ययन से यह दिखता है कि विधायिका ने इसे स्पष्ट किया है कि जहाँ कहीं भी एक लिखित अभिलेख को हस्ताक्षरित अपेक्षित करता है, इसे धारा में स्पष्टतः दिया होना चाहिए, जो आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 2 (घ) एवं इस अधिनियम की धारा 142 में गायब है। यहाँ तक कि सामान्य खण्ड अधिनियम, 1897 से भी अन्तर स्पष्ट है।

सुप्रीम कोर्ट ने यह धारित किया कि धारा 142 के अधीन कोई परिवाद बिना हस्ताक्षर के पोषणीय होगा यदि ऐसा परिवाद परिवादी द्वारा प्रमाणित है एवं प्रमाणीकरण के पश्चात् मजिस्ट्रेट ने प्रक्रिया जारी कर दिया है। इस प्रकार इससे यह स्पष्ट है कि धारा 142 के अधीन परिवाद बिना परिवादी हस्ताक्षर के पोषणीय है।

चेक का क्रेता

किसी चेक का क्रेता सम्यक् अनुक्रम धारक होता है भले ही उसके पक्ष में पृष्ठांकन न हो और वह परिवाद दाखिल कर सकता है जहाँ बैंक ने कोई चैक क्रय किया है, सम्यक् अनुक्रम धारक हो जाता है एवं धारा 138 के अधीन अभियोजित कर सकेगा।

संयुक्त खाते पर लिखा गया चेक-

जहाँ चेक किसी संयुक्त खाते पर लिखा गया है, केवल चेक का लेखीवाल ही धारा 138 के अधीन दायी होगा जब तक कि चेक पर संयुक्त हस्ताक्षर न हो। यही सिद्धान्त भागीदार फर्म पर भी लागू होगा। ऐसे मामलों में धारा 141 में स्थापित प्रतिनिधिक दायित्व लागू नहीं होगा। यह दाण्डिक विधियों के कठोर निर्वाचन की पुष्टि करता है। अतः एक संयुक्त खाते पर लिखा गया चेक की दशा में एक संयुक्त धारक को अभियोजित नहीं किया जाएगा जब तक कि चेक उनमें से प्रत्येक व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित न हो।

कौन संयुक्त खाता धारक है, के सम्बन्ध में प्रसिद्ध वाद अपर्णा ए० शाह बनाम मे० सेठ डेवलपर्स प्रा० लि है। इस मामले में एक चेक अपीलकर्ता की पति (पत्नी अपर्णा ए० सेठ) मे० सेठ डेवलपर्स के पक्ष में लिखा गया था। चेक के अनादरण होने पर प्रत्यर्थी ने धारा 138 के अधीन अपीलकर्ता की पत्नी पर परिवाद किया। सुप्रीम कोर्ट यह निर्णय था कि खाता के संयुक्त धारक अभियोजित नहीं किए जा सकेंगे जब तक कि चेक उनमें से प्रत्येक व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित न हो। पत्नी के पक्ष में अपील स्वीकृत को गई।

पत्नी हालांकि संयुक्त धारक है, दायी नहीं होगी यदि उसने चेक पर हस्ताक्षर नहीं किया है। श्रीमती नीना चोपड़ा बनाम महेन्द्र सिंह वैश्य में चेक याची के माता के द्वारा उसके स्वयं के दायित्व के उन्मोचन में परिवादी को जारी किया गया था, माता की मृत्यु हो गई। पुत्रों ने चेक पर हस्ताक्षर नहीं किया था जो अनादृत हो गया। पुत्री उत्तरदायी धारित नहीं की गयी। परन्तु यही पुत्र के द्वारा चेक जारी किया गया होता तो वह आबद्ध होती।

मनाली मलिक बनाम रेखा खन्ना में बैंक ने मृतक ऋणी का 5 लाख ऋण साबित किया ऐसे चेक की धनराशि ऋणी एवं उसके पत्नी के संयुक्त खाते में जमा किया गया था। अनादृत चेक पर पत्नी ने अपने पति के हस्ताक्षर को अभिस्वीकृत किया। बैंक के पक्ष में 5 लाख रुपए पर 7% प्रतिवर्ष ब्याज की दर से पारित डिक्री को युक्तियुक्त एवं न्यायसंगत मान्य किया गया और यह अभिवाक् (Plea) कि चेक पर बैंक का नाम, तिथि, धनराशि के भिन्न लिखावट हैं, धारा 139 की उपधारणा के प्रभाव से चेक अवैध नहीं होता है। ऋण संव्यवहार की अनभिज्ञता को पत्नी द्वारा अभिवाक् किए जाने को बैंक के साक्ष्यों को खण्डित करने के लिए पर्याप्त नहीं माना गया।

चेक के संग्रहण के लिए पृष्ठांकिती- किसी चेक का संग्रहण के लिए पृष्ठांकिती, सम्यक् अनुक्रम धारक नहीं होता है, क्योंकि उसे चेक में कोई हित प्राप्त नहीं होता है।

मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट या प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट-

धारा 142 का खण्ड (ग) यह स्पष्ट करती है कि महानगर मजिस्ट्रेट या प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट के कोर्ट से अवर कोई कोर्ट धारा 138 के अधीन दण्डनीय किसी अपराध का विचारण नहीं करेगा।

इस प्रकार चेकों के अनादरण का प्रथम विचारण कोर्ट महानगर मजिस्ट्रेट/प्रथम वर्ग न्यायिक मजिस्ट्रेट होते हैं। इस कोर्ट के निर्णयों की अपील जिला सत्र न्यायाधीश, हाई कोर्ट एवं सुप्रीम कोर्ट क्रमशः होंगे।

कोर्ट को मामले की विचारण की अधिकारिता—यह महत्वपूर्ण एवं मुख्य प्रश्न है कि कौन सा आपराधिक कोर्ट चेक के अनादरण के मामलों की अधिकारिता का प्रयोग कर सकेगा। चेकों के अनादरण में अनेक कृत्यों को अनुध्यात किया गया है और जहाँ कहीं भी कोई कृत्य होता है, वहाँ के कोर्ट को संज्ञान लेने की अधिकारिता होगी। कोर्ट की अधिकारिता के प्रश्न के सम्बन्ध में सुप्रीम कोर्ट ने के० भास्करन बनाम शंकरन वैद्यन बालन के मामले में विधि सिद्धान्तों को स्थापित किया है। यह धारित किया गया है कि धारा 138 के पाँच घटक हैं, अर्थात्:-

चेक का लिखना;

संदाय के लिए बैंक में चेक का उपस्थापना;

बैंक द्वारा असंदत्त चेक की वापसी,

चेक के अनादरण के पश्चात् लेखीवाल को लिखित सूचना देना;

लेखीवाल को संदाय करने में असफलता। यह कोई आवश्यक नहीं है कि उक्त सभी पाँच कृत्यों को एक ही स्थान पर किया गया होगा। यह सम्भव है कि इसमें से प्रत्येक कृत्यों को विभिन्न पाँच स्थानों पर किया गया होगा। परन्तु उक्त सभी पाँचों कृत्यों की कड़ियों की जंजीर एक दूसरे से आवश्यक रूप में धारा 138 के अधीन अपराध को पूर्णता से जुड़ी हुई है।

जहाँ यह अनिश्चित है कि कई स्थानीय क्षेत्रों में से किसमें अपराध किया गया है, अथवा

जहाँ अपराध अंशत: एक स्थानीय क्षेत्र में और अंशत: किसी दूसरे में किया गया है, अथवा

जहाँ अपराध चालू रहने वाला और उसका किया जाना एक से अधिक स्थानीय क्षेत्रों में चालू रहता है, अथवा

जहाँ वह विभिन्न स्थानीय क्षेत्रों में किए गए कई कार्यों से मिलकर बनता है, यहाँ उसकी जाँच या विचारण ऐसे स्थानीय क्षेत्रों में से किसी पर अधिकारिता रखने वाले कोर्ट द्वारा की जा सकती है।

धारा 138 (परक्राम्य लिखत अधिनियम) के सम्बन्ध में विशेष रूप से सम्बन्धित है।

नवीन भाई बनाम कोटक महिन्द्रा बैंक लिo के मामले में उक्त सभी कृत्य बाम्बे में घटित हुआ केवल विधिक सूचना बंगलौर में दी गई था। यह धारित किया गया कि केवल सूचना भेजना मात्र बंगलौर कोर्ट को अधिकारिता प्रदान नहीं कर सकता।

अधिकारिता नवीन सिद्धान्त स्थापित-

चेकों के अनादरण के संज्ञान लेने का कोर्ट को अधिकारिता के सम्बन्ध में अद्यतन सीमा चिह्न को निर्धारित करने वाला मामला दशरथ रूप सिंह राठौड़ बनाम महाराष्ट्र राज्य है। सुप्रीम कोर्ट ने यह धारित किया है कि चेकों के अनादरण के परिवादों को केवल उन न्यायालयों में दाखिल किया जाएगा जिसके स्थानीय अधिकारिता में ऊपरवाल बैंक स्थित है। यह निर्णय भास्करन मामले में स्थापित सिद्धान्त के विपरीत है और उसे पलटता है।

इस सिद्धान्त को सुप्रीम कोर्ट ने सुकु बनाम जगदीश के मामले में अपनाया है। प्रश्नगत चेक प्रत्यर्थी ने सिंडिकेट बैंक, गोकरन शाखा, कर्नाटक पर लिखा था। परिवादी ने चेक को संग्रहण के लिए कृष्णापुरम कायकुलुम, केरल में जमा किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने यह धारित किया कि केरल में चेक के संग्रहण के लिए जमा करना केवल इस आधार पर केरल कोर्ट पर अधिकारिता प्रदान नहीं करता है। इसी प्रकार हरमन इलेक्ट्रॉनिक प्रा० लि० बनाम नेशनल पैनासोनिक इण्डिया प्रा० लि के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह धारित किया है कि चेक के लेखीवाल को सूचना भेजने का स्थान केवल इस आधार पर वाद हेतुक के लिए कोर्ट को संज्ञान लेने की अधिकारिता प्रदान नहीं करता।

चेक का संदाय के लिए उपस्थापन, अधिकारिता प्रदान नहीं करता-

चेक का उपस्थापन स्थान धारा 138 के अधीन वहाँ के कोर्ट को अधिकारिता प्रदान नहीं करता है। यह टाइम्स बिजनेस सालुशन लि० बनाम दत्याबाइट के मामले में धारित किया गया कि दिल्ली के बैंक में चेक का उपस्थापन से, जबकि ऊपरवाल बैंक दिल्ली में स्थित है, दिल्ली बैंक पर अधिकारिता प्रदान नहीं करता है।

पटियाला कास्टिंग प्रा० लि० बनाम भूषण स्टील लिक में परिवादी ने चेक के संग्रहण के लिए दिल्ली के एक बैंक में जमा किया, माँग सूचना दिल्ली से भेजा गया। परिवादी का पंजीकृत कार्यालय दिल्ली में स्थित था एवं वाद हेतुक दिल्ली में उत्पन्न हुआ, अतः दिल्ली हाई कोर्ट ने यह धारित किया कि दिल्ली हाई कोर्ट को अधिकारिता थी। 2015 का संशोधन एवं अधिकारिता- 2015 में संशोधन द्वारा धारा 142 में नया खण्ड (2) जोड़ा गया-

धारा 138 के अधीन दण्डनीय अपराध की जाँच और विचारण, केवल किसी ऐसे कोर्ट द्वारा किया जाएगा, जिसकी स्थानीय अधिकारिता के भीतर (क) यदि चेक किसी खाते के माध्यम से संग्रहण के लिए परिदत्त किया जाता है, तो बैंक की शाखा जहाँ पर यथास्थिति पाने वाला या सम्यक् अनुक्रम में धारक, खाता बनाए रखता है, स्थित है; या (ख) यदि चेक, पाने वाले या सम्यक् अनुक्रम में धारक द्वारा संदाय के लिए खाते के माध्यम से अन्यथा प्रस्तुत किया जाता है, ऊपरवाल बैंक की शाखा, जहाँ लेखीवाल खाता बनाए रखता है, स्थित है।

अब धारा 138 के अधीन अपराध की 'जाँच और विचारण' केवल किसी ऐसे कोर्ट द्वारा किया जाएगा जिसकी स्थानीय अधिकारिता के भीतर

(क) जहाँ चेक संग्रहण के लिए जमा किये जाते हैं - यदि चेक किसी खाते के माध्यम से संग्रहण करने के लिए परिदत्त किए जाते हैं तो बैंक की शाखा जहाँ पाने वाला या सम्यक् अनुग्रह धारक खाता रखता है स्थित है, या

(ख) जहाँ चेक संदाय के लिए उपस्थापित किया जाता है- यदि चेक पाने वाला या सम्यक् अनुक्रम धारक द्वारा संदाय के लिए प्रस्तुत किया जाता है, ऊपरवाल बैंक की शाखा जहाँ लेखीवाल खाता बनाए रखता है।

धारा 138 के अधीन दण्डनीय अपराध के लिए कोर्ट की अधिकारिता के सम्बन्ध में धारा 142 (2) द्वारा परिवर्तन की विधिमान्यता को विकास बाफना बनाम भारत संघ, में चुनौती दी गयी थी जिसे छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने विधिमान्य ठहराया।

(ग) जैसा कि संशोधन से उपबन्धित किया गया है, न्यायालयों की अधिकारिता सर्वोपरि खण्ड (अध्यारोही खण्ड)- चेकों के अनादरण का उपबन्ध करने वाला अधिनियम एक विशेष अधिनियम है एवं धारा 138 अपने आप में स्वयं की पूर्ण संहिता है। यह अपराध एवं उसके दण्ड दोनों का उपबन्ध करती है और उसका सर्वोपरि खण्ड जिसे धारा 142 में उपबन्धित किया गया है कि " दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 में किसी बात के होते हुए भी" धारा 142 के उपबन्ध को दण्ड प्रक्रिया संहिता के उपबन्धों पर सर्वोपरि प्रभाव दिया गया है। इस प्रकार दण्ड प्रक्रिया संहिता की अधिकारिता के प्रावधान यहाँ लागू नहीं होंगे।

सर्वोपरि खण्ड के विस्तार एवं सीमा को सुप्रीम कोर्ट ने अद्यतन वाद इन्द्र कुमार बनाम रिलायन्स इण्डस्ट्रीज लि. के मामले में विचार किया है। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट इस मत का था कि सर्वोपरि खण्ड को सीमित अर्थ देना चाहिए और कोई धारा जो इस खण्ड को सम्मिलित करती है तो किसी विशेष उपबन्ध को यह सन्दर्भित नहीं करती है कि वह सर्वोपरि है, परन्तु यह संविधि को सामान्य रूप में सन्दर्भित करती है, यह धारित करने के लिए अनुज्ञेय नहीं किया जा सकता कि यह सम्पूर्ण अधिनियम को अपवर्जित करती है और अपने आप में स्वयं में है।

दूसरे शब्दों में यह विनिश्चित करने की अपेक्षा करते है कि कौन सा उपबन्ध वर्णन का उत्तर देता है और कौन नहीं। सर्वोपरि खण्ड का निर्वचन करते समय कोर्ट से यह अपेक्षा होती है कि वह पता करे कि किस सीमा तक विधायिका का आशय ऐसा करना है एवं किस सन्दर्भ में सर्वोपरि खण्ड का प्रयोग किया गया है।

सर्वोपरि खण्ड के अनुसार धारा 142 (क) सीमित है और संहिता से केवल दो चीजों को अपवर्जित करता है, अर्थात्

(क) मौखिक परिवाद का अपवर्जन, एवं

(ख) परिवाद का संज्ञान केवल पाने वाला या सम्यक् अनुक्रम के परिवाद पर लेना।

दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 190 उपबन्धित करती है कि एक मजिस्ट्रेट परिवाद का संज्ञान ले सकता है जो अपराध गठित करे इस तथ्य को बिना ध्यान में रखे कि किसने परिवाद किया है, या पुलिस रिपोर्ट पर, या पुलिस अधिकारी के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति से प्राप्त सूचना पर या स्वयं अपने संज्ञान पर। सर्वोपरि खण्ड जब यह मर्म को सन्दर्भित करता है, यह मजिस्ट्रेट को संज्ञान लेने को सीमित करता है कि केवल पाने वाला या सम्यक् अनुक्रम धारक के परिवाद पर ही संज्ञान लेने को और संहिता की धारा 190 के अन्य को अपवर्जित करता है।

दूसरे शब्दों में संहिता के अन्य उपबन्ध इससे अपवर्जित नहीं होते हैं। अत: मजिस्ट्रेट ने यदि परिवाद का संज्ञान ले लिया है तो उसे संहिता की धारा 200 में अन्तर्निहित प्रक्रिया को अपनाना होगा। जब वह पाने वाला या सम्यक् अनुक्रम धारक से परिवाद को लेता है तो वह परिवादी का कथन एवं अन्य साक्षियों का जो उस तिथि पर है, अभिलिखित करेगा एवं संशोधन के पश्चात।

(ग) जैसा कि संशोधन से उपबन्धित किया गया है, न्यायालयों की अधिकारिता । केवल परिवाद का प्रस्तुतीकरण केवल पहला कदम है एवं कोई वाद हेतुक को नहीं लिया जाएगा जब तक कि प्रमाणीकरण की प्रक्रिया पूरी न हो और, इसलिए मजिस्ट्रेट को शपथ पर कथन लेना होगा, अर्थात् धारा 200 के अधीन कथन का प्रमाणीकरण एवं अन्य साक्षियों के कथन एवं मजिस्ट्रेट को यह निर्णीत करना होगा कि वहाँ पर्याप्त आधार है जिससे धारा 203 के प्रभाव से प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जाय या नहीं अर्थात् परिवाद की खारिजी करना। यहाँ पर सुप्रीम कोर्ट ने जापानी साहू बनाम चन्द्र शेखर मोहन्ती, के मामले में प्रतिपादित सिद्धान्त को भी अनुसरित किया है।

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