अदालत में सिविल सूट दर्ज़ करने से पूर्व बरती जानी वाली सावधानियां

Update: 2024-06-25 11:39 GMT

किसी भी सिविल को कोर्ट तक भेजना काफी जटिल प्रक्रिया है। कई बार केस को कोर्ट तक लाने में कुछ ऐसे डिफॉल्ट हो जाते हैं जिससे केस खारिज हो जाता है, कोई भी डिफॉल्ट का पूरा लाभ विरोधी पक्षकार को मिलता है। कोर्ट के समक्ष केस लाने वाला पक्षकार वादी कहलाता है। वादी को कोर्ट में केस लाने के पूर्व अनेकों सावधानियां बरतनी चाहिए जिससे प्रतिवादी को अधिक डिफॉल्ट नहीं मिले जिससे वादी का नुकसान हो जाए। सिविल सूट अदालत में दर्ज़ करने के पूर्व कुछ सावधानियां रखनी चाहिए जिन्हें आगे विस्तार से बताया जा रहा है।

वाद का कारण और नेचर जानना-

किसी भी को सर्वप्रथम अपने पास आए क्लाइंट की बात को समझना चाहिए तथा सर्वप्रथम इस तथ्य पर संज्ञान लेना चाहिए कि व्यक्ति अपनी बातों में तथा अपने तथ्यों से क्या बताना चाह रहा है तथा उसके किन अधिकारों का अतिक्रमण हुआ है तथा वह अधिकारो उल्लंघन दंड संहिता के अंतर्गत दंडनीय है या फिर वह एक वैधानिक अधिकार है।

सिविल कार्यवाही का उद्देश्य अधिकारों का प्रवर्तन करना है जबकि आपराधिक कार्यवाही का उद्देश्य अपराधी को दंडित करना है सिविल विधि का उद्भव किसी विधिक अधिकार के उल्लंघन के परिणाम स्वरूप होता है जबकि भी विधि द्वारा निषिद्ध कोई अपराध कृत्य कारित होने पर अपराधी के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही दर्ज़ की जाती है।

जैसे यदि कोई व्यक्ति अधिवक्ता के पास अपने ऋण वसूली के लिए सीपीसी की धारा 37 के अंतर्गत कोई वाद लगाने को कहता है तो पहले यह देखा जाए की मामले में वादी से ऋण लेते समय कर्ज़दार ने कोई छल तो नहीं किया यदि कर्ज़दार ने कोई छल किया है तो मामला आपराधिक हो सकता है यदि कर्जदार ने कर्ज़ लेते समय कर्ज़ को उपयोग करने का कोई कारण नहीं बताया था और कर्ज़ लेकर कर्ज़ को अपने हिसाब से खर्च किया है तो मामला सिविल में बनता है ऐसी परिस्थिति में आपराधिक मामला दर्ज नहीं कराया जा सकता अतः अधिवक्ता को सर्वप्रथम मामले की प्रकृति देख लेना चाहिए यदि मामला अपराधिक हो तो उसमें आपराधिक कार्यवाही हो यदि मामला सिविल कार्यवाही हो जो सिविल अधिकारों के अतिक्रमण से संबंधित है तो उसमें सिविल कार्यवाही होगी।

न्यायालय के क्षेत्राधिकार का निर्धारण-

सर्वप्रथम यह तय हो जाने के बाद कि मामला सिविल प्रकृति का है तथा यहां पर किन्ही वैधानिक अधिकारों का अतिक्रमण हुआ है तथा इन अधिकारों की क्षति पूर्ति के लिए कोई मुकदमा न्यायालय में लाया जा सकता है।यह तय हो जाने के बाद न्यायालय का निर्धारण करना चाहिए न्यायालय के निर्धारण में सबसे पहले इस विषय को देखना चाहिए कि मामला किसी विशेष न्यायालय द्वारा सुनवाई योग्य तो नहीं है जैसे कोई मेडिकल काउंसिल से जुड़ा मामला कोई वक्फ बोर्ड से जुड़ा मामला कोई रिवेन्यू बोर्ड से जुड़ा मामला कोई बार काउंसिल से जुड़ा मामला या फिर कोई अन्य मामला तो नहीं है यदि मामला किसी विशेष न्यायालय द्वारा सुनवाई योग्य है तो मामले को उसी न्यायालय में दर्ज किया जाना चाहिए यदि मामला इनमें से किसी भी न्यायालय द्वारा सुनवाई योग्य नहीं है तो मामला जिले के सिविल न्यायालय में जाएगा।

वाद की विषय वस्तु-

सिविल प्रक्रिया संहिता 1960 की धारा 15 से लेकर 21 तक वाद की विषय वस्तु के संबंध में विद्यालय का निर्धारण करने हेतु विधि का वर्णन किया गया है धारा 15 के अंतर्गत वाद सबसे पहले निम्न न्यायालय में दर्ज किया जाएगा जो न्यायालय सबसे निम्तर है उसके बाद सिविल अदालत में मामला विषय वस्तु के अंतर्गत दर्ज किया जाएगा।जैसे यदि मामला अचल संपत्ति से संबंधित है तो मामला उस जिले की सिविल न्यायालय में दर्ज किया जाएगा जिस न्यायालय में अचल संपत्ति स्थित है यहां विषय वस्तु अचल संपत्ति है इसलिए मामले का निर्धारण अचल संपत्ति के हिसाब से किया जाएगा इसी प्रकार मामले की जो विषय वस्तु होगी सीपीसी के बताएं प्रावधानों के अंतर्गत मामला उस ही न्यायालय में जाएगा।

परिसीमा काल-

वाद की प्रकृति तथा वाद संस्थित किए जाने वाले न्यायालय का निर्धारण हो जाने पर परिसीमा काल अध्ययन करना चाहिए।सिविल प्रक्रिया संहिता में अनुसूची के माध्यम से यह बताया गया है किस तथ्य से संबंधित कौनसा वाद कितने समय तक परिसीमा द्वारा बाधित नहीं होगा कॉज़ ऑफ एक्शन पर सबसे पहले परिसीमा काल का अध्ययन कर लेना चाहिए जैसे यदि सीपीसी की धारा 37 के अंतर्गत उधार दिए धन की वसूली के लिए वाद दाखिल करना है तो उसकी परिसीमा जिस समय को उधार चुका देने का वचन किया गया था उस समय से 3 वर्षों के भीतर तक धन की वसूली के लिए वाद न्यायालय में लाया जा सकता है इस अवधि के बाद कोई युक्तियुक्त कारण नहीं मिलने के कारण वाद को परिसीमा काल से बाधित माना जाएगा। अनुसूची में घोषणा संबंधी वाद, लेखा संबंधी विवाद,स्थावर संपत्ति संबंधी वाद एवं सभी प्रकार के वादों के संबंध में पूर्ण जानकारियां दी गई है।

रेस ज्युडिकेटा की जांच-

परिसीमा अवधि की जांच कर लेने के उपरांत मामले में रेस ज्युडिकेटा की जांच कर लेना चाहिए।रेस ज्युडिकेटा का सिद्धांत सीपीसी की धारा 11 में रखा गया है इसका अर्थ यह होता है- न्यायालय में मुकदमों की भरमार लगने से रोकना इसमें किसी भी एक प्रकार के तथ्य पर एक ही प्रकार के प्रश्न पर एक ही तरह के पक्षकरो द्वारादोबारा कोई वाद दर्ज़ नहीं कर सकते है या फिर किसी न्यायालय द्वारा उन्हीं तत्वों पर उन्हीं पक्षकारों के बीच में कोई निर्णय कर दिया गया है और अपील ना की गई या अपील न्यायालय द्वारा अंतिम निर्णय दे दिया गया है तो पुनः उन्हीं तथ्यों पर उन्हीं पक्षकारों द्वारा कोई मुकदमा नहीं लगाया जाएगा या फिर ऐसा मुकदमा यदि किसी न्यायालय में चल रहा था तो यही मुकदमा किसी अन्य न्यायालय में नहीं लगाया जाएगा वह मुकदमा सुनवाई योग्य नहीं होगा इसे रेस ज्युडिकेटा का सिद्धांत कहा जाता है।

इन सभी प्रश्नों के उत्तर मिल जाने के बाद मामले का वाद पत्र बनाया जाना चाहिए वाद पत्र बनाने का तरीका सीपीसी के आदेश 7 में दिया गया है वाद पत्र की रचना करने के बाद में जो प्रक्रिया प्रक्रिया विधि में दी गई है उसके अनुरूप मुकदमा सिविल न्यायालय में चलाया जा सकता है।

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