कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया में जिस तरह राष्ट्रपति को शक्तियां दी है उसी प्रकार गवर्नर को भी शक्तियां दी गई है। राष्ट्रपति की शक्तियों की तरह ही गवर्नर की शक्तियों को भी विभिन्न भागों में बांटा जा सकता है। जैसे कार्यपालिका शक्ति, वित्तीय शक्ति, विधायी शक्ति और न्यायिक शक्तियां।
राज्य की कार्यपालिका शक्ति गवर्नर में निहित है जिसका प्रयोग वह स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों द्वारा करता है। राज्य के समस्त कार्यपालिका कार्य गवर्नर के नाम पर ही किए जाते हैं। समस्त आज्ञा एवं लिखित गवर्नर के नाम विधिवत प्रमाणित किए जाएंगे जो उसके द्वारा बनाए गए नियमों के अनुसार किए जाएंगे।
किसी भी आदेश या अधिकार पत्र की जो इस प्रकार से प्रमाणीकरण थे विधि मान्यता पर इस आधार पर आपत्ति नहीं उठाई जाएगी कि व गवर्नर द्वारा निर्मित नहीं किए गए हैं।
गवर्नर की सिफारिश के बिना विधानसभा में कोई भी धन विधेयक पेश नहीं किया जा सकता। गवर्नर की ही स्वीकृति पर अनुदान की मांग पेश की जा सकती है। विधान मंडल के सदस्य दोनों सदनों के समक्ष गवर्नर द्वारा ही वार्षिक विवरण पेश करते है जिसे बजट कहा जाता है।
गवर्नर विधान मंडल के सदस्य दोनों सदनों को निश्चित समय एवं निश्चित स्थान पर अधिवेशन के लिए बुलाता है किंतु दोनों सत्रों के बीच 6 महीने की अधिक समय नहीं दिखना चाहिए। वह दोनों सदनों का सत्रावसान कर सकता है तथा विधानसभा को भंग कर सकता है।
विधानमंडल को संबोधित करता है गवर्नर की अनुमति के बिना भी विधेयक कानून नहीं बन सकता। वह कुछ विधेयकों को राष्ट्रपति के अनुमति के लिए अपने पास रखता है। वह विधान परिषद के एक 1/6 सदस्यों को मनोनीत करता है जो साहित्य विज्ञान कला सामाजिक सेवा के क्षेत्र में विशेष ज्ञान व्यवहार अनुभव रखते हैं।
गवर्नर की सबसे महत्वपूर्ण विधायी शक्ति उसकी अध्यादेश जारी करने की शक्ति है। आर्टिकल 123 के अधीन राष्ट्रपति को जो अधिकार संसद क्षेत्र में प्राप्त करें आर्टिकल 213 के अधीन विधानमंडल के विषय में वही अधिकार गवर्नर को प्राप्त हो।
जब कभी विधानमंडल सत्र में न हो गवर्नर को यह समाधान हो जाए किसी प्रकार की कार्रवाई करना आवश्यक है तो अध्यादेश जारी कर सकता है जो उसे अपेक्षित प्रतीत हो और गवर्नर उन मामलों में अध्यादेश जारी नहीं कर सकता जिन मामलों में राष्ट्रपति की सिफारिश की आवश्यकता है।
गवर्नर की क्षमादान की शक्ति-
आर्टिकल 61 के अनुसार गवर्नर को किसी अपराध के लिए सिद्ध दोष व्यक्ति के दंड को क्षमा, विराम और परिहार करने अथवा लघु करण करने की शक्ति प्राप्त है। राष्ट्रपति गवर्नर की क्षमादान की शक्ति को संभावित न्याय भूलों को सुधारने के उद्देश्य से प्रदान किया गया है। कोर्टों में न्याय प्रशासन का कार्य संपादन मनुष्य द्वारा ही किया जाता है जिनसे भूल हो सकती है। अपराध विधायिका द्वारा पारित किसी विधि के विरुद्ध किया गया होना चाहिए। प्रत्येक राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार के बारे में उस राज्य विधानमंडल को विधि बनाने की शक्ति है। भारत के राष्ट्रपति गवर्नर की शक्तियां में कुछ अंतर भी है।
राष्ट्रपति को इन सभी मामलों में जिनमें की मृत्यु का दंडादेश को माफ करने शक्ति प्राप्त है जबकि गवर्नर को मृत्यु के आदेश के विरुद्ध क्षमादान की शक्ति नहीं प्राप्त है। राष्ट्रपति को सेना कोर्ट द्वारा दिए गए दंडादेश के मामले में समाधान की शक्ति प्राप्त है। गवर्नर को ऐसी कोई शक्ति प्राप्त नहीं है। गवर्नर को प्रदान करने की शक्ति प्राप्त नहीं है किंतु परिहार के मामले में उसकी शक्ति राष्ट्रपति के समान ही है।
कमांडर के एम नानावती बनाम मुंबई राज्य के मामले में अपीलार्थी को हत्या के अपराध में आजीवन कारावास का दंड दिया गया था। हाई कोर्ट द्वारा सजा सुनाए जाने के तुरंत बाद ही प्रत्यार्थी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील के लिए प्रार्थना पत्र दे दिया। उसी दिन गवर्नर ने आर्टिकल 161 में शक्ति का प्रयोग करते हुए राजाज्ञा निकाली कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा जब तक निर्णय नहीं किया जाता तब तक सज़ा स्थगित कर दी जाती है और अपराधी अभिरक्षा में रखा जाएगा, अपराधी गिरफ्तार करने के लिए निकाला गया वापस निरुद्ध कर लिया गया।
इस मामले में विचार का प्रश्न यह था कि क्या दंडित व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट के आदेश 21 नियम के अंतर्गत अपने को सजा के लिए आत्मा समर्पित कर दें अथवा आर्टिकल 161 के अधीन गवर्नर द्वारा जारी किए गए आदेश का पालन करें।
कोर्ट ने कहा कि उन मामलों में अपीलों में जो सुप्रीम कोर्ट के विचार में दाखिल की गई है आर्टिकल 161 के अंतर्गत गवर्नर को प्राप्त किसी व्यक्ति की सजा को स्थगित करने की शक्ति अदालत द्वारा बनाए गए नियमों के अधीन होगी। जहां दंडित व्यक्ति के समर्पण का विषय है उस सीमा तक गवर्नर के आदेश होने के कारण है।
गवर्नर को इस विषय पर अधिकार है कि वह किसी भी समय जब तक कोर्ट में मामला लंबित नहीं है क्षमा दान प्रदान करें। उस समय गवर्नर इस शक्ति प्रयोग नहीं कर सकता है जब मामला लंबित है।
गवर्नर की शक्ति का उपयोग सुप्रीम कोर्ट में विचारार्थ के लिए लागू नहीं किया जा सकता जब तक निर्णय न हो जाए।
राज्य की मंत्री परिषद का गठन एवं कार्य केंद्र की मंत्रिपरिषद के समान नहीं है। केवल गवर्नर की शक्ति और राष्ट्रपति की शक्ति में थोड़ा अंतर है। आर्टिकल 163A उपबंधित करता है कि गवर्नर उसके कार्यों के प्रयोग करने में सहायता और मंत्रणा देने के लिए मंत्रिपरिषद होगी जिसका प्रधान मुख्यमंत्री होगा शिवाय वहां तक जहां कांस्टीट्यूशन के अंतर्गत अपने कृत्य उनमें से किसी को अपने विवेक अनुसार काम करना है।
राज्यों में मंत्री परिषद और गवर्नर के संबंध वही हैं जो केंद्र में केंद्रीय केबिनेट तथा राष्ट्रपति के हैं किंतु गवर्नर और राष्ट्रपति की शक्तियों में एक महत्वपूर्ण अंतर और है और वह यह है कि कांस्टीट्यूशन में राष्ट्रपति को अपने विवेक से कुछ करने की शक्ति नहीं प्रदान की गई है जबकि कुछ परिस्थितियों में गवर्नर अपने स्वविवेक से कुछ कार्य कर सकता है।
आर्टिकल 163 यह उपबंधित करता है कि जिन बातों में उससे कांस्टीट्यूशन के उपबंधों के अनुसार या अपने विवेक से कार्य करने की अपेक्षा की जाती है उसको छोड़ कर गवर्नर को अपने कृत्यों का निर्वहन करने में सहायता और मंत्रणा देने के लिए मंत्रिपरिषद होगी जिसका प्रधान मुख्यमंत्री होगा।
कांस्टीट्यूशन गवर्नर के विवेकाधिकार कि कहीं पर व्याख्या नहीं करता है। इससे एक प्रश्न यह उठता है कि क्या वास्तव में राष्ट्रपति की तरह गवर्नर भी नाममात्र का संवैधानिक प्रधान है जिसे मंत्रिपरिषद के परामर्श पर ही सारे कार्य करने हैं और उसके पास कोई वास्तविक शक्ति नहीं है या वास्तविक कार्यपालिका शक्ति उसी में निहित है।
कांस्टीट्यूशन के निर्माण के समय कांस्टीट्यूशन सभा के सदस्यों को गवर्नर के अधिकार संकटकारी दिखाई पड़े। उनके समक्ष गवर्नर का स्वरूप साम्राज्यवादी और स्वच्छंद अधिकारों वाला था। इस तरह से 1935 के अधिनियम के अनुसार गवर्नर के विषय में विचार रखते हुए शंकालु हो उठे किंतु भारतीय कांस्टीट्यूशन में संसदीय पद्धती की सरकार की स्थापना के कारण उनकी संख्या निर्धारित थी क्योंकि ऐसी प्रणाली में मंत्रिपरिषद अपने कार्यों के लिए राज्य विधान सभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदाई होती है तो उसके परामर्श के अनुसार कार्य करने के लिए अवहेलना कर सकता है।
सुनील कुमार बोस बनाम चीफ सेक्रेट्री पश्चिम बंगाल के मामले में कोलकाता हाई कोर्ट ने यह अभिनिर्धारित किया था कि गवर्नर वर्तमान कांस्टीट्यूशन के अंतर्गत मंत्रिपरिषद के परामर्श के बिना कोई कार्य नहीं कर सकता। गवर्नर गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के मामले में दूसरी परिस्थिति थी, कांस्टीट्यूशन के अधीन गवर्नर को सौंपे विवेक के अनुसार या अपने व्यक्तिगत रूप से कार्य करने के अधिकार से वंचित कर दिया गया इसलिए गवर्नर को अपने मंत्री के परामर्श पर ही कार्य करना है। कपूर बनाम स्टेट ऑफ पंजाब के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि हमारे कांस्टीट्यूशन के अधीन भारत में ब्रिटिश संसदीय सरकार की स्थापना की गई है जिसका मूल सिद्धांत यह है कि राष्ट्रपति और राज्य का गवर्नर कांस्टीट्यूशनिक प्रधान होते हैं और वास्तविक कार्यपालिका शक्ति गवर्नर में है।
शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अवलोकन किया कि राष्ट्रपति और राज्यों के गवर्नर संस्थानिक प्रधान है और वह अपनी शक्ति और कार्यों के पालन मंत्री परिषद की सहायता आमंत्रण से करते हैं न कि व्यक्तिगत समझ और सोच से करते हैं सिवाय उन मामलों को छोड़कर ने गवर्नर को अपने स्वविवेक से कार्य करने की जरूरत होती है। इस मामले में दो अधिकारियों को उनके पद से हटाने का आदेश दिया था कि नियुक्ति नहीं किया जा सकता।
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अधीनस्थ कोर्टों के सदस्यों की नियुक्ति और पद से हटाया जाना कार्यकारिणी के कार्य हैं जिनका प्रयोग गवर्नर अपने मंत्रिपरिषद की सलाह से करता है। जहां कई कांस्टीट्यूशन में राष्ट्रपति और गवर्नर के व्यक्तिगत समाधान शब्दावली का प्रयोग किया गया है उसका वास्तविक अर्थ है मंत्रिपरिषद का समाधान राष्ट्रपति और गवर्नर का समाधान नहीं है। इस कथन के साथ कोर्ट ने सरदारी लाल बनाम भारत संघ में निर्णय लिया अपने विवेक के अनुसार केवल उन्हीं विषयों में कर सकता है जिसमें उसके अंतर्गत ऐसा करने की स्पष्ट प्रावधान दिए गए हैं।
गवर्नर की Cabinet को अपदस्थ करने की शक्ति-
कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया के आर्टिकल 164 के अनुसार मंत्री गण गवर्नर को प्रसादपर्यंत अपने पदों पर बने रहते हैं किंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि गवर्नर जब चाहे स्वेच्छा से मंत्री परिषद को अपदस्थ कर दे। गवर्नर के प्रसाद का अर्थ संसदात्मक प्रणाली वाली सरकार के संदर्भ में विधानमंडल के बहुमत के विश्वास है।गवर्नर को अपने प्रसाद का प्रयोग केबिनेट के परामर्श पर करना पड़ता है।
आर्टिकल 154(2) से यह स्पष्ट हो जाता है जिसके अनुसार केबिनेट अपने कार्यों के लिए विधानमंडल के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदाई है। जब तक केबिनेट को सदन के बहुमत का विश्वास प्राप्त है। गवर्नर केबिनेट को बर्खास्त कर सकता है।
एसपी शर्मा बनाम सीसी घोष के मामले में कोलकाता हाई कोर्ट ने गवर्नर की इस कार्यवाही को संवैधानिक घोषित किया। कोर्ट ने कहा कि आर्टिकल 164 के अंतर्गत गवर्नर के मुख्यमंत्री की नियुक्ति और केबिनेट के अपदस्थ करने की शक्ति पर कोई निर्बंधन नहीं लगाया गया। इन मामलों में वह अपने विवेक से कार्य करता है। इस आर्टिकल के अनुसार मंत्रीगण गवर्नर के प्रसादपर्यंत पद धारण करते हैं। गवर्नर द्वारा अपने प्रसाद को वापस लेने की शक्ति अबाध है। कोर्ट ने इस तर्क के पक्ष में नाइजीरिया के कांस्टीट्यूशन के उपबंध को उल्लेखित किया।
एसआर बोम्मई बनाम भारत संघ 1994 के ऐतिहासिक निर्णय में यह कहा गया है कि कोई केबिनेट बहुमत में है या नहीं इसका उदाहरण सदन के भीतर ही किया जाना चाहिए किंतु कोर्ट ने यह भी कहा कि ऐसी परिस्थितियां हो सकती है जबकि गवर्नर को इस मामले में स्वविवेक का प्रयोग करना पड़ सकता है।
कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया के आर्टिकल 174 के अंतर्गत गवर्नर विधानसभा को आहूत करता है तथा उसे भंग भी करता है। सामान्य परिस्थितियों में गवर्नर विधानसभा को तब तक भंग नहीं करता जब तक कि उसकी सामान्य अवधि 5 वर्ष समाप्त न हो जाए।
जहां एक केबिनेट सदन का विश्वास हो चुका है वहां किसी स्थाई वैकल्पिक केबिनेट की स्थापना संभव नहीं है तो सदन को भंग कर दिया जाता है। ऐसी परिस्थितियों में गवर्नर अपने विवेक के अनुसार कार्य करने को स्वतंत्र है वह चाहे तो सदन को भंग करें स्थाई सरकार की नियुक्ति करें। एकमत यह है कि गवर्नर मुख्यमंत्री की सलाह मानने को बाध्य है और उसे राज्य विधानसभा को भंग करना ही पड़ेगा दूसरा मत है कि यदि वह चाहे तो विधानसभा को विघटित करें या ऐसे व्यक्ति की खोज करें जो प्रदेश में पराजित मंत्री परिषद के स्थान पर वैकल्पिक केबिनेट का संगठन कर सकें। भारत में कांस्टीट्यूशन शास्त्रियों का समर्थन दूसरे मत के पक्ष में है।