पितृसत्ता, एक सामाजिक संरचना है जिसमें पुरुषों को महिलाओं पर वर्चस्व (Dominance) प्राप्त होता है। यह व्यवस्था संविधान में निहित समानता और व्यक्तिगत गरिमा (Dignity) के सिद्धांतों के विपरीत है। भारतीय संविधान हर व्यक्ति को समानता (Equality) और भेदभाव रहित व्यवहार का अधिकार देता है। लेकिन उत्पीड़न (Harassment) और मानसिक शोषण जैसी प्रथाएं इन मूल्यों को कमजोर करती हैं।
यह लेख इस बात की गहन समीक्षा करता है कि कैसे संविधानिक प्रावधान और न्यायालयों के ऐतिहासिक निर्णय पितृसत्ता और महिलाओं के प्रति भेदभाव से निपटने में मदद करते हैं।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत हर व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता (Equality Before Law) और समान संरक्षण (Equal Protection of Law) का अधिकार है। अनुच्छेद 15 लिंग (Gender) के आधार पर भेदभाव (Discrimination) को प्रतिबंधित करता है, और अनुच्छेद 21 हर नागरिक को गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार सुनिश्चित करता है।
महिलाओं के खिलाफ भेदभाव कई रूपों में सामने आता है—शारीरिक हिंसा (Physical Violence), मानसिक उत्पीड़न (Psychological Harassment), या भावनात्मक दमन (Emotional Manipulation)। यह भेदभाव न केवल व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Liberty) को कमजोर करता है, बल्कि महिलाओं के आत्मसम्मान को भी ठेस पहुंचाता है।
सुप्रीम कोर्ट ने पवन कुमार बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य (2017) (Pawan Kumar v. State of Himachal Pradesh) के महत्वपूर्ण फैसले में पुरुषों और महिलाओं के बीच मूलभूत समानता (Fundamental Equality) पर जोर दिया। अदालत ने कहा कि जिस प्रकार पुरुष का समाज में अपना एक स्थान है, उसी प्रकार महिला का भी है।
इस फैसले में महिलाओं के खिलाफ उत्पीड़न (Harassment) की व्यापक समस्या को रेखांकित किया गया और इसे बढ़ावा देने वाली पितृसत्तात्मक मानसिकता (Patriarchal Mindset) की कड़ी आलोचना की गई।
अदालत ने ईव-टीज़िंग (Eve-teasing) जैसे सामान्य लेकिन गंभीर उत्पीड़न के खिलाफ कड़े शब्दों में टिप्पणी की और समाज में सोच के बदलाव की तात्कालिक जरूरत पर जोर दिया।
ईव-टीज़िंग, जो मौखिक छींटाकशी (Verbal Taunts) से लेकर शारीरिक उत्पीड़न (Physical Harassment) तक फैली हुई है, महिलाओं में भय और असुरक्षा का माहौल पैदा करती है। अदालत ने कहा कि ऐसे व्यवहार को हल्के में नहीं लिया जा सकता और इसे कानूनी और सामाजिक रूप से गंभीरता से संबोधित किया जाना चाहिए।
न्यायालय ने लैंगिक संवेदनशीलता (Gender Sensitivity) के महत्व को भी रेखांकित करते हुए कहा कि महिलाओं को वही स्वतंत्रता (Freedom) और अवसर (Opportunities) प्राप्त हैं जो पुरुषों को मिलते हैं। अदालत ने इस विचार की निंदा की कि किसी पुरुष का मर्दानगी (Masculinity) या अहंकार (Ego) उसे महिलाओं पर वर्चस्व जमाने का अधिकार देता है।
यह फैसला समाज में बदलाव की वकालत करता है, जिसमें सम्मान (Respect) और समझ (Understanding) के आधार पर पुरुषों और महिलाओं के बीच एक समान समाज की नींव रखी जाए।
अदालत ने टिप्पणी की कि “सभ्य समाज में पुरुष प्रधानता (Male Chauvinism) के लिए कोई स्थान नहीं है।” यह बात इस ओर इशारा करती है कि समाज में बदलाव जरूरी है। पितृसत्तात्मक मानसिकता यह मानती है कि पुरुषों को महिलाओं पर नियंत्रण या प्रभुत्व (Dominance) का अधिकार है। यह सोच समाज के कई पहलुओं में गहराई से समाई हुई है और सामान्य छेड़छाड़ से लेकर गंभीर अपराधों जैसे धमकी और पीछा करने तक के रूप में सामने आती है।
मानसिक उत्पीड़न और गरिमा का अधिकार
(Psychological Harassment and the Right to Dignity)
भले ही शारीरिक हिंसा पर व्यापक कानूनी ध्यान दिया गया हो, मानसिक उत्पीड़न (Psychological Harassment) भी उतना ही हानिकारक है। किसी महिला को बार-बार अपमानित करना, धमकी देना या भावनात्मक रूप से प्रताड़ित करना उसकी मानसिक शांति और आत्मसम्मान को नुकसान पहुंचाता है।
संविधान के अनुच्छेद 21 में निहित गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार (Right to Life with Dignity) केवल शारीरिक हिंसा से बचाव तक सीमित नहीं है; यह मानसिक शांति और व्यक्तिगत सुरक्षा की भी गारंटी देता है।
न्यायिक फैसलों में इस बात को समझा गया है कि ईव-टीज़िंग (Eve-teasing), यानी महिलाओं के खिलाफ मौखिक या शारीरिक छेड़छाड़, एक गंभीर समस्या है।
इसे पाँच प्रकारों में विभाजित किया गया:
1. मौखिक उत्पीड़न (Verbal Harassment)
2. शारीरिक उत्पीड़न (Physical Harassment)
3. मानसिक उत्पीड़न (Psychological Harassment)
4. यौन उत्पीड़न (Sexual Harassment)
5. वस्तुओं द्वारा उत्पीड़न (Harassment Through Objects)
इनमें से किसी भी रूप में उत्पीड़न, महिलाओं के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाता है और उनके स्वतंत्र रूप से जीने के अधिकार का उल्लंघन करता है।
ऐतिहासिक निर्णय और महिला अधिकारों की रक्षा
भारतीय न्यायालयों ने महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के मामलों में संविधानिक मूल्यों को लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। विशाखा बनाम राजस्थान राज्य (Vishaka v. State of Rajasthan) के मामले में न्यायालय ने कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न (Sexual Harassment at Workplace) रोकने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए।
इस निर्णय में कहा गया कि महिलाएं भयमुक्त वातावरण में कार्य करने का अधिकार रखती हैं, और यह अधिकार सीधे उनके समानता के अधिकार (Right to Equality) और गरिमा के अधिकार (Right to Dignity) से जुड़ा है।
इसी तरह, कर्नाटक राज्य बनाम कृष्णप्पा (State of Karnataka v. Krishnappa) के मामले में न्यायालय ने माना कि शारीरिक हिंसा के बिना भी मानसिक उत्पीड़न मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कर सकता है। इस प्रकार के उत्पीड़न से महिला की स्वायत्तता (Autonomy) और स्वतंत्रता को बाधित किया जाता है।
इन फैसलों से यह स्पष्ट होता है कि उत्पीड़न, चाहे शारीरिक हो या मानसिक, समान रूप से गंभीर है और इसे कानून के तहत दंडनीय होना चाहिए। न्यायिक दृष्टिकोण यह दर्शाता है कि मानसिक उत्पीड़न को भी वही महत्व दिया जाना चाहिए जो शारीरिक उत्पीड़न को दिया जाता है।
लैंगिक संवेदनशीलता (Gender Sensitivity) और सामाजिक बदलाव की आवश्यकता
महिलाओं के प्रति भेदभाव से निपटने के लिए केवल कानूनी सुधार पर्याप्त नहीं हैं; इसके लिए सामाजिक बदलाव की भी जरूरत है। पितृसत्तात्मक सोच, जो समाज के कई पहलुओं में गहराई से जड़ें जमाए हुए है, को समाप्त करना जरूरी है।
लैंगिक संवेदनशीलता का अर्थ है कि हर व्यक्ति को समान और स्वतंत्र रूप से जीने का अधिकार प्राप्त है, और यह समझना समाज के लिए अनिवार्य है।
व्यक्तिगत स्वायत्तता (Personal Autonomy) संविधानिक अधिकारों का आधार है। हर महिला को यह अधिकार है कि वह किसी भी प्रस्ताव या संबंध को अस्वीकार कर सके। किसी भी व्यक्ति को अपने अहंकार (Ego) या सामाजिक अपेक्षाओं के नाम पर महिला की स्वतंत्रता को बाधित करने का अधिकार नहीं है।
अनुच्छेद 21 के तहत मिलने वाली व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Right to Personal Liberty) में यह अधिकार भी शामिल है कि कोई व्यक्ति भय या दबाव के बिना अपने जीवन से जुड़े निर्णय ले सके।
समानता की दिशा में पितृसत्ता का अंत
पितृसत्ता और संविधानिक समानता आपस में मेल नहीं खा सकते। संविधान हर व्यक्ति को गरिमा और स्वतंत्रता के साथ जीने का अधिकार देता है। कोई भी ऐसा व्यवहार—चाहे वह शब्दों के माध्यम से हो या कृत्यों के द्वारा—जो इन अधिकारों का उल्लंघन करता है, उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।
समानता और व्यक्तिगत स्वायत्तता विशेषाधिकार नहीं, बल्कि मूल अधिकार हैं। उत्पीड़न के किसी भी रूप से ये अधिकार कमजोर होते हैं, जिससे समाज में असमानता बढ़ती है। न्यायालयों के फैसले और कानूनी ढांचा हमें भेदभाव से निपटने के लिए साधन प्रदान करते हैं, लेकिन इन सिद्धांतों को व्यवहार में लाने के लिए समाज का बदलना आवश्यक है।
पुरुषों के वर्चस्व की जगह अब आपसी सम्मान और सभ्यता को लेनी चाहिए। जब तक महिलाओं और पुरुषों को बराबरी से नहीं देखा जाएगा और उनकी स्वतंत्रता का सम्मान नहीं किया जाएगा, तब तक एक न्यायपूर्ण और समान समाज का सपना अधूरा रहेगा।