निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 भाग 20: संदाय या संतुष्टि तक किसी लिखत का परक्राम्य होना (धारा 60)
परक्राम्य लिखत अधिनियम 1881 (Negotiable Instruments Act, 1881) के अंतर्गत धारा 60 किसी लिखत की परक्राम्यता निर्धारित करती है। जैसा कि इस अधिनियम से संबंधित आलेखों में पूर्व के आलेख में समझाया गया था कि परक्राम्य का अर्थ किसी लिखत के हस्तांतरण से है।
अधिनियम की धारा 60 इस बात का उल्लेख करती है कि कोई भी लिखत कितना हस्तांतरित हो सकता है। वह कितना परक्रामित हो सकता है। इस धारा से संबंधित प्रावधानों पर सारगर्भित टिप्पणी इस आलेख के अंदर प्रस्तुत की जा रही है।
परक्राम्य का काल :-
परक्राम्य लिखत अधिनियम का आवश्यक लक्षण उसकी परक्राम्यता होती है। यह प्रश्न है कि परक्राम्य लिखत की यह परक्राम्यता कितने समय रहती है?
अधिनियम की धारा 60 यह उपबन्धित करती है कि परक्राम्य लिखत की परक्राम्यता अर्थात् वचन पत्र, विनिमय पत्र या चेक की परक्राम्यता होती है :-
(i) उसके संदाय एवं सन्तुष्टि तक।
(ii) रचयिता, ऊपरवाल या प्रतिग्रहीता द्वारा परिपक्वता पर या के पश्चात् परन्तु ऐसे संदाय एवं सन्तुष्टि के पश्चात् नहीं।
इस प्रकार, लिखतों की परक्राम्यता (अन्तरण) की अवधि उसके परिपक्वता पर या के पश्चात् संदाय या सन्तुष्टि तक होती है।
कैली बनाम लारेन्स के मामले में लार्ड एलेनवरो ने यह सम्प्रेक्षित किया था कि "विनिमय पत्र असंख्य व्यक्तियों के परक्रामणीय होते हैं जब तक कि प्रतिग्रहीता की ओर से इसे संदाय या उन्मुक्त नहीं कर दिया गया है। " एक परक्राम्य लिखत जो अपने उद्भव से परक्रामणीय है, परक्राम्य उस समय तक बना रहता है जब तक कि प्रतिग्रहीता या रचयिता द्वारा या उसकी ओर से परिपक्वता पर या के पश्चात् संदाय या सन्तुष्टि न कर दी गई हो।
अतः यह एक सुस्थापित सिद्धान्त बन गया है कि लिखतों को उनके संदाय या सन्तुष्टि (उन्मुक्ति) तक अन्तरित किया जा सकता है।
परन्तु लिखत के एक विधिमान्य संदाय या सन्तुष्टि के लिए निम्नलिखित मौलिक शर्त है :-
प्रथमतः, कि ऐसा संदाय या सन्तुष्टि कब होनी चाहिए, एवं द्वितीय, कि यह किसके द्वारा किया जाना चाहिए।
(1) परिपक्वता पर या के पश्चात् ( कब होनी चाहिये) – एक विधिमान्य संदाय या सन्तुष्टि के लिए यह आवश्यक है कि इसे परिपक्वता पर या इसके पश्चात् किया जाना चाहिए। जहाँ संदाय परिपक्वता के पूर्व किया जाता है, एक विधिमान्य संदाय या सन्तुष्टि नहीं होता है। यदि किसी लिखत का संदाय उसकी परिपक्वता के पूर्व किया जाता है, तो ऐसा संदाय, सम्यक् अनुक्रम में संदाय नहीं होता है और ऐसे संदाय के बावजूद लिखत परक्राम्य बना रहता है। यदि लिखत का रचयिता या प्रतिग्रहीता परिपक्वता के पूर्व संदाय करता है और लिखत को ले लेता है तो वह ऐसे लिखत को पुनः जारी करने से रोका नहीं जा सकता है।
लिखत की परिपक्वता उसके प्रकट भाव से जाना जा सकता है। किसी भी व्यक्ति जिसके द्वारा ऐसा किया जाता है उसे यह देखने में सावधानी की जानी चाहिए कि यह परिपक्व है या नहीं। एक बार जब कोई लिखत परिपक्वता पर पहुँच जाता है, उसका जीवन समाप्त हो जाता है और तत्पश्चात् वह परक्रामणीय नहीं रह जाता है और कोई भी व्यक्ति इसका सम्यक् अनुक्रम धारक नहीं हो सकता है।
परिपक्वता के पश्चात् अन्तरण व्यवहार के सामान्य एवं प्रायिक अनुक्रम के बाहर होता है, और परिस्थिति अपने आप में पर्याप्त होती है, सन्देह को उत्पन्न करने में कि पृष्ठांकिती को अच्छी स्थिति पृष्ठांकक से नहीं होती।
इस प्रकार एक लिखत को उन्मोचित होने के लिए संदाय या तुष्टि लिखत परिपक्वता पर या के पश्चात् किया जाना चाहिए और ऐसा संदाय या तुष्टि केवल रचयिता, ऊपरवाल या प्रतिग्रहीता या उनकी ओर से किया जाना चाहिए।
संदाय या तुष्टि लिखत के परिपक्वता पर या के पश्चात्- किसी लिखत के उन्मोचन के लिए यह आवश्यक है कि लिखत का संदाय या तुष्टि उसके परिपक्वता पर या के पश्चात् ही किया जाना चाहिए, अन्यथा तरीके से नहीं। परिपक्वता के पूर्व संदाय लिखत का संदाय परिपक्वता के पूर्व किये जाने पर ऐसा संदाय सम्यक् अनुक्रम संदाय नहीं होता है और लिखत को परक्राम्यता बनी रहती है, और ऐसे संदाय से लिखत उन्मोचित नहीं होता है।
यदि प्रतिग्रहोता या रचयिता संदाय करता है और लिखत को प्राप्त कर लेता है तो उसे लिखत को पुनः परक्रामित करने से रोका नहीं जा सकेगा। जहाँ वह इसे किसी अन्तरिती को अन्तरित करता है तो इसे सद्भावना पूर्वक प्रतिफलार्थ प्राप्त करता है तो वह उस व्यक्ति से जो परिपक्वता के पूर्व संदाय किया है, से पुनः संदाय पाने का हकदार लिखत का धारक (अन्तरिती) होगा जब तक कि ऐसे संदाय के पश्चात् लिखत को रद्द नहीं किया गया है।
संदाय रचयिता, ऊपरवाल या प्रतिग्रहीता या उसकी ओर से होना चाहिए- किसी लिखत को उन्मोचित होने के लिए धारा 60 पुनः यह अपेक्षा करती है कि संदाय केवल रचयिता, ऊपरवाल या प्रतिग्रहोता या उसकी ओर से किसी व्यक्ति द्वारा किया जाना चाहिए, परन्तु इसके सिवाय किसी अन्य व्यक्ति द्वारा नहीं इस प्रकार अजनबी जब तक कि वह रचयिता, ऊपरवाल या प्रतिग्रहीता का अभिकर्ता नहीं है, के द्वारा किया गया संदाय अधिनियम की धारा 10 के अनुसार सम्यक् अनुक्रम में संदाय नहीं होगा।
आदरणार्थ संदाय (धारा 113) - परन्तु अधिनियम की धारा 113 में आदरणार्थ संदाय का उपबन्ध किया गया है। धारा 113 के अनुसार जबकि विनिमय पत्र असंदाय के लिए टिप्पणित या प्रसाक्ष्यित किया जा चुका है, तब कोई भी व्यक्ति ऐसे किसी पक्षकार के आदरणार्थ उसका संदाय कर सकेगा जो उसका संदाय करने का दायो है, परन्तु यह तब, जबकि ऐसा संदाय करने वाले व्यक्ति ने (या तन्निमित्त उसके अभिकर्ता) ने नोटरी पब्लिक के समक्ष उस पक्षकार की पूर्व में ही घोषणा कर दी हो, जिसके आदरणार्थं वह संदाय करता है और ऐसी घोषणा उस नोटरी पब्लिक द्वारा अभिलिखित कर दी गई हो।
एक चेक सदैव माँग पर देय होता है और इसलिए यह तकनीकी तौर पर कभी भी अतिशोध्य नहीं हो सकता।। पुनः एक चेक नगद भुगतान के समान होता है और ऐसा संदाय चेक के जारी किये जाने की तिथि पर ही किया जाना चाहिए। परन्तु अधिनियम की धारा 84 यह अपेक्षा करती है कि चेक को भुगतान के लिए जारी किए जाने की तिथि से युक्तियुक्त समय के अन्दर उपस्थापित किया जाना चाहिए।
चेक के संदाय से सम्बन्धित प्रथम सूचक वाद डान बनाम हैलिंग है। एक चेक के स्वामी ने इसे दुर्घटना में खो दिया। एक महिला तिथि के पाँच दिन के बाद और चेक के खोने के बाद इसे क्रय किए गये माल की कीमत के संदाय में एक दुकानदार को दिया। दुकानदार ने संदाय में इसे स्वीकार कर चेक के अवशेष धनराशि को कीमत घटाने के बाद वापस कर दिया।
दूसरे दिन दुकानदार ने चेक को बैंक के समक्ष उपस्थापित किया और भुगतान प्राप्त कर लिया। चेक के वास्तविक स्वामी ने दुकानदार पर चेक के मूल्य के ने वसूली के लिए वाद लाया।
न्यायालय का कथन था-
"एक चेक तत्काल संदाय के लिये आशयित होता है न कि प्रचालन के लिये" और इस प्रकार "इसका धारक अपने जोखिम पर इसे रखता है और कोई भी व्यक्ति जो इसे अतिशोध्य होने के बाद प्राप्त करता है वह भी अपने जोखिम पर इसे लेता है। इस मामले में चेक को शोध्य होने के पाँच दिन पश्चात् प्राप्त किया गया था यह एक ऐसी परिस्थिति थी जिसमें सन्देह उत्पन्न सकता था।"
रोथ्स चाइल्ड बनाम कारने में यह धारित किया गया कि केवल यह तथ्य कि प्रतिवादी ने चेक को उसके जारी किए जाने की तिथि से 6 दिन बाद अभिप्राप्त किया था, उसे सम्यक् अनुक्रम धारक होने से रोकने के लिए पर्याप्त नहीं है।" और यह तथ्य कि उसने तिथि के 6 दिन के बाद चेक को प्राप्त किया था केवल एक परिस्थिति थी जिसे उनके सद्भाव को अवचारित करने को ध्यान में रखना चाहिए।
इस मामले को सन्दन काउन्टी बैंकिंग कम्पनी बनाम ग्रोम के मामले में अनुसरण किया गया जहाँ वादी एक चेक जो 21 अगस्त, 1880 को लिखित था, परन्तु 29 अगस्त, 1880 को सम्यक् अनुक्रम धारक के रूप में मान्य किया गया था।
अतः चेक संचलन के लिए आशयित नहीं होता, बल्कि शीघ्र संदाय के लिए होता है। यद्यपि कि यह एक युक्तियुक्त समय के लिए संचालन में रह सकता है। जब युक्तियुक्त समय का अवसान हो जाता है तो चेक अतिशोध्य हो जाता है और इसके उपरान्त जो भी चेक को अभिप्राप्त करता है, वह अपने जोखिम पर स्वीकार करता है और जो इसे रखता है वह अपने जोखिम पर रखता है।
भारतीय विधि- अधिनियम की धारा 72 में यह अपेक्षित है कि लेखीवाल को भारित करने के लिए ऊपरवाल बैंक के समक्ष संदाय के लिए चेक को उपस्थापित करना आवश्यक होता है और धारा 84 के अनुसार चेक को संदाय के लिए बैंक के समक्ष चेक के जारी करने की तिथि से युक्तियुक्त समय के अन्दर उपस्थापित करना आवश्यक होता है।
यह अवधारित करने के लिए कि युक्तियुक्त समय क्या है लिखत की प्रकृति, व्यापार और बैंकों की प्रथा को और उस विशिष्ट मामले के तथ्यों को ध्यान में रखा जाएगा। भारत में चेक को विधिमान्य अवधि रिजर्व बैंक के परिपत्र से इसके जारी किए जाने की तिथि से 3 माह की होती है।
(2) किसके द्वारा इसका संदाय किया जाना चाहिए- धारा 60 इसे स्पष्ट करती है कि लिखत का संदाय या सन्तुष्टि किया जाना चाहिए
(क) रचयिता लेखीवाल या प्रतिग्रहीता द्वारा या
(ख) रचयिता, लेखीवाल या प्रतिग्रहीता के अभिकर्ता या इनकी ओर से किसी द्वारा, या अन्य व्यक्ति
(ग) आदरणार्थ संदाय (धारा 113) (केवल विनिमय पत्र के लिए) धारा 60 के अनुसार यह आवश्यक है कि संदाय या सन्तुष्टि रचयिता, लेखोवाल या प्रतिग्रहोता द्वारा परिपक्वता पर या उसके पश्चात् या उनकी ओर से किसी अन्य व्यक्ति के द्वारा किया जाना चाहिए लिखत के परक्रामणीयता को रोकने के लिए लिखत के अधीन अन्तिम रूप से दायी व्यक्ति द्वारा संदाय किया जाना चाहिए।
कोई अजनबी एक विधिमान्य उन्मोचन नहीं कर सकता है-लिखत का एक विधिमान्य उन्मोचन के लिए यह आवश्यक है कि ऐसा संदाय या संतुष्टि रचयिता, लेखोवाल या प्रतिग्रहीता द्वारा या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा ऐसे रचयिता, लेखीवाल या प्रतिग्रहोता की ओर से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किया जाना चाहिए।
कोई अजनबी व्यक्ति लिखतों का विधिमान्य उन्मोचन नहीं कर सकता है परन्तु धारा 113 इसका एक अपवाद है कि कोई अजनबी के द्वारा लिखत का संदाय या सन्तुष्टि नहीं किया जा सकता है। इसके अनुसार जबकि विनिमय पत्र असंदाय के लिए टिप्पणित या प्रसाक्ष्यित किया जा चुका है, तब कोई भी व्यक्ति ऐसे किसी पक्षकार के आदरणार्थ, उसका संदाय कर सकेगा जो उसका संदाय करने का दायो है, परन्तु यह तब, जबकि ऐसा संदाय करने वाले व्यक्ति ने या तन्निमित उसके अभिकर्ता ने नोटरी पब्लिक के समक्ष उस पक्षकार की पूर्व में ही घोषणा कर दी हो जिसके आदरणार्थ वह संदाय करता है और ऐसी घोषणा उस नोटरी पब्लिक द्वारा अभिलिखित कर दी गई हो।
ऐसा आदरणार्थं संदाय केवल विनिमय पत्र के ही सम्बन्ध में हो सकेगा। पुनः एक जिकरीवाल पूर्व प्रसाक्ष्य के बिना विनिमय पत्र का प्रतिग्रहण और संदाय कर सकेगा।