एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 6: अफीम से संबंधित प्रावधानों का उल्लंघन करने पर दंड

Update: 2023-11-01 07:09 GMT

एनडीपीएस एक्ट (The Narcotic Drugs And Psychotropic Substances Act,1985) अत्यंत वैज्ञानिक एवं तार्किक रूप से बनाया गया है। एनडीपीएस एक्ट की धारा 8 नशीले पदार्थों को प्रतिबंधित करती है एवं अलग अलग धाराएं अलग अलग पदार्थों के संबंध में दंड का उल्लेख करती है, जैसे पिछले आलेख में अफीम के पौधे के संबंध में दंड पर चर्चा की गई थी। धारा 18 में अफीम फल एवं अफीम के संबंध में दंड का उल्लेख है। पौधे में उगने वाले फल के रस को सुखाकर ही अफीम तैयार की जाती है। इस आलेख में धारा 18 पर चर्चा की जा रही है।

यह अधिनियम में प्रस्तुत धारा का मूल रूप है

धारा 18

अफीम पोस्त और अफीम के संबंध में उल्लंघन के लिए दंड-

जो कोई, इस अधिनियम के किसी उपबंध या इसके अधीन बनाए गए किसी नियम या निकाले गए किसी आदेश या दी गई अनुज्ञप्ति की शर्त के उल्लंघन में निर्मित अफीम पोस्त की खेती या अफीम का उत्पादन, विनिर्माण, कब्जा, विक्रय, क्रय, परिवहन, अंतरराज्यिक आयात, अंतरराज्यिक निर्यात या उपयोग करेगा, वह, -

(क) जहाँ उल्लंघन अल्पमात्रा अन्तर्ग्रस्त करता है वहाँ कठोर कारावास से जिसकी अवधि छह माह तक की हो सकेगी या जुर्माने से जो कि दस हजार रुपए तक का हो सकेगा या दोनों से;

(ख) जहाँ उल्लंघन वाणिज्यक मात्रा को अन्तर्गस्त करता है वहाँ कठोर कारावास से जिसकी अवधि दस वर्ष से कम की नहीं होगी किंतु बीस वर्ष की हो सकेगी, और जुर्माने से जो एक लाख रुपए से कम का नहीं होगा किन्तु दो लाख रुपए तक का हो सकेगा, दंडनीय होगा:

परन्तु न्यायालय, ऐसे कारणों से, जो निर्णय में लेखबद्ध किए जाएंगे, दो लाख रुपए से अधिक का जुर्माना अधिरोपित कर सकेगा;

(ग) किसी अन्य मामले में, कठोर कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी, और जुर्माने से भी, जो एक लाख रुपए तक का हो सकेगा, दंडनीय होगा।]

स्वापक औषधि एवं मनः प्रभावी पदार्थ (संशोधन) अधिनियम, 2001 (2001 का 9) द्वारा मूल अधिनियम की धारा 18 को प्रतिस्थापित किया गया है। यह संशोधन दिनांक 2/10/2001 से प्रभावी किया गया है। धारा 18 में अधिकतम दंड बीस वर्ष का है जो वाणिज्यिक मात्रा से अधिक के मामले में लागू होता है।

रामप्रकाश बनाम स्टेट ऑफ पंजाब, एआईआर 1973 सुप्रीम कोर्ट 498 के प्रकरण में अभियोजन का मामला संक्षिप्त में इस प्रकार का था कि अभियुक्त को जब मुखबिर की सूचना के आधार पर गिरफ्तार किया गया था तो वह 815 ग्राम अफीम के आधिपत्य में होना पाई गई थी। इस अफीम को जब्त कर लिया गया था। इसे अभियोजन साक्षी 1 एवं एक बाबूलाल नामक व्यक्ति की उपस्थिति में जब्त किया गया था।

लक्ष्मीनारायण नामक व्यक्ति की नजदीक में होने वाली होटल पर इसका वजन कराया गया था। यह अभियोजन साक्षी 5 के रूप में था रासायनिक परीक्षक ने प्रयोगशाला में इसका परीक्षण किया था और इसे अफीम होना पुष्ट किया था अन्य अन्वेषण संबंधी औपचारिकताओं जैसे नक्शा मौका आदि के उपरांत अभियुक्त को अभियोजित किया गया था और अभियुक्त के द्वारा संपूर्ण इंकारी किए जाने के बावजूद भी उसे दोषसिद्ध किया गया था।

इस दोषसिद्धि को हाई कोर्ट में चुनौती दी गई थी। 5 स्वतंत्र साक्षीगण में से किसी ने भी अभियुक्त को प्रश्नगत अफीम के साथ संबद्ध नहीं किया गया था। इसके अलावा एक साक्षी जो कि पंचसाक्षी था उसका परीक्षण क्यों नहीं कराया गया था यह स्पष्ट नहीं किया गया। हाई कोर्ट ने व्यक्त किया कि यदि उपरोक्त कथित स्वतंत्र साक्षीगण की साक्ष्य में ऐसा कोई सारवान मेटर होता जिसके आधार पर यह कहा जा सकता कि ये मिथ्या कथन दे रहे हैं अथवा अभियुक्त के पक्ष में कथन दे रहे हैं अन्यथा यदि ऐसी स्थिति होती तो पुलिसजन की साक्ष्य को भी समुचित होना स्वीकार किया जा सकता था क्योंकि मात्र इस आधार पर कि साक्षी की प्रास्थिति पुलिस अधिकारी के रूप में है साक्षी के वृतान्त को अनदेखा करने का आधार नहीं होगा।

वर्तमान मामले में स्वतंत्र समर्थन का पूरा अभाव था और यह इस कारण नहीं था कि स्वतंत्र साक्ष्य को अभियुक्त ने मिला लिया था उब न्यायालय ने व्यक्त किया कि वर्तमान मामले में स्वतंत्र साक्ष्य को अभियुक्त के द्वारा मिला लेने के अवसर व्यवहारिक तौर पर शून्य थे। इसका कारण यह बताया गया कि अभियुक्त महिला उस स्थल से पूरी तौर पर अपरिचित थी। अभियुक्त महिला गुजरात की थी जैसा कि चालान स्वयं से दर्शित होता था। इस प्रकार उसका कोई स्थानीय प्रभाव नहीं था। दूसरा कारण यह था कि अभियुक्त महिला की प्रास्थिति गरीब महिला के रूप में थी।

अभियुक्त महिला के विरुद्ध जहां तलाशी हुई थी उसमें भी मात्र 25 रुपए ही निकले थे। आम तौर पर किसी को धन अथवा धमकी के प्रभाव के अधीन लाने की स्थिति होती है। वर्तमान मामले में जबकि अभियुक्त गरीब महिला थी। इस प्रकार के सभी तत्व लुप्त होना पाए गए। निष्कर्ष के तौर पर बताया गया कि जब संपूर्ण असमर्थन का कारण किसी मिथ्या तत्व के कारण न हो तो ऐसी स्थिति में मामले की सफलता में हितबद्ध पुलिस साक्षीगण की साक्ष्य मात्र के आधार पर दोषसिद्धि किया जाना अत्याधिक असुरक्षित होगा। सुप्रीम कोर्ट द्वारा अभी अंत में हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा गया।

अफीम के मामले में विभागीय साक्षीगण की अलग अलग साक्ष्य

गेंदालाल बनाम स्टेट ऑफ एम.पी.1988 (1) म.प्र.वी.नो. 215 मध्यप्रदेश के मामले में कहा गया है कि अधिनियम की धारा 18 के तहत होने वाला अपराध गंभीर दण्ड अधिरोपित करता है। इसलिए न्यायालय को ऐसी साक्ष्य से जो कि विधिक विश्वसनीय व बिना लांछन के है इस बाबत् आश्वस्त होना चाहिए कि युक्तियुक्त संदेह से परे मामला प्रमाणित हुआ है। वर्तमान मामले में अभियोजन साक्ष्य विश्वसनीय प्रकृति की होना नहीं पाई गई। विभागीय साक्षीगण की साक्ष्य भी भिन्नकारी थी। विभागीय साक्षीगण को संपूर्ण तौर पर विश्वसनीय साक्षी होना नहीं समझा जा सकता था। विभागीय साक्षीगण के वृत्तान्त का समर्थन करने के लिए कि अभियुक्त प्रश्नगत वस्तु के आधिपत्य में था प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं थी। मामले के तथ्यों व परिस्थितियों में अभियुक्त की प्रतिरक्षा सत्य होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता था। अपराध अप्रमाणित माना गया।

गेंदालाल बनाम स्टेट ऑफ एम.पी.1988 (1) म.प्र.वी.नो. 215 म.प्र के प्रकरण में ही साक्ष्य का मूल्यांकन किया गया। अभियोजन साक्षी क्रमांक 1 की साक्ष्य बरामदगी पत्रक से सारवान तौर पर खण्डनपूर्ण होना पाई गई। कथित बरामदगी पत्रक को जब्ती व बरामदगी के उपरांत तैयार करने का दावा किया गया था। मुख्य परीक्षण में वह यह बताता है कि तैयार किए गए बरामदगी पत्र की प्रतिलिपि अभियुक्त को दे दी गई थी। यह तथ्य बरामदगी पत्रक स्वयं में होना पाया जाता है। परंतु प्रतिपरीक्षण में उसने यह बताया था कि अभियुक्त ने कथित बरामदगी पत्रक पर उसके हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया था। यदि यह वास्तविक तथ्यात्मक स्थिति थी कि बरामदगी पत्र की प्रतिलिपि अभियुक्त को दी गई थी तो बरामदगी पत्रक पर उसके हस्ताक्षर होने चाहिए थे।

इस मामले में अभियुक्त ने उसके हस्ताक्षर बरामदगी करने वाले अधिकारी के कहने के बावजूद भी नहीं किए थे यह तथ्य भी बरामदगी पत्रक में पाया जाना चाहिए था। प्रतिपरीक्षण में अभियोजन साक्षी क्रमांक 1 का यह कथन था कि अभियुक्त ने बरामदगी पत्रक पर उसके हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया था इसे सही होना स्वीकार नहीं किया जाएगा क्योंकि वह इस तथ्य को बरामदगी पत्रक में भी वर्णित नहीं किया गया था न्यायालय ने व्यक्त किया कि साक्षी का ऐसा कथन यदि बरामदगी पत्रक से समर्थित नहीं होता है जिसे कि एक महत्वपूर्ण समर्थनकारी साक्ष्य होने का दावा किया गया है तो ऐसी स्थिति में बरामदगी की संपूर्ण कथा प्रभावित हो जाती है।

जड़ से मुख्य परीक्षण में अभियोजन साक्षी 1 ने यह बताया था कि बरामदगी पत्रक की एक प्रतिलिपि अभियुक्त को दी गई थी जबकि उसकी साक्ष्य का यह अंश अभियोजन साक्षी क्रमांक 2 से खंडित हो गया था जो यह बताता है कि बरामदगी पत्रक की प्रतिलिपि अभियुक्त को प्रस्तावित की गई थी परंतु उसने इसे लेने से इंकार कर दिया था। अभियोजन की संपूर्ण कथा संदेहास्पद मानी गई। अपराध अप्रमाणित माना गया।

सुरेन्द्रसिंह बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, 2004 (3) क्राइम्स 634 म.प्र के मामले में 2.050 किलोग्राम अफीम जब्त होना बताया गया था। साक्ष्य का मूल्यांकन किया गया। अभियोजन का मामला यह था कि अफीम की जब्ती ढाबा के पीछे के कमरे से हुई थी। यह कमरा भी ढाबा का एक भाग था। इस बाबत कोई साक्ष्य नहीं था कि कथित कमरा जो कि ढाबा का एक भाग था किस व्यक्ति से संबंधित था और इसके आधिपत्य में कौन था। अभियोजन का मामला यह नहीं था कि कथित ढाबा व कमरा अभियुक्तगण के स्वामित्व व आधिपत्य का था।

हाईकोर्ट ने आगे स्पष्ट किया कि यदि यह भी मान लिया जाए कि अभियुक्तगण कथित कमरे के अंदर उपस्थित थे और वे बाहर आए थे और भागने की कोशिश की थी तो भी इसके आधार पर किसी अपराध का गठन नहीं होगा क्योंकि यह कमरा जिसमें से अफीम की जब्ती हुई थी वह अभियुक्तगण के आधिपत्य में नहीं था अभियोजन की इस बिन्दु पर साक्ष्य अभाव की स्थिति होना पाई गई कि ढाबा एवं कमरे का स्वामी कौन था एवं किसका इस पर आधिपत्य था।

ऐसी स्थिति में यह नहीं कहा जा सकता कि अफीम का पैकेट जो कि कमरे में पड़ा हुआ था वह अभियुक्तगण के आधिपत्य में था यह ढावा व कमरा के आधिपत्य में होने वाले व्यक्ति के आधिपत्य में हो सकता था परंतु अभियोजन की साक्ष्य इस बिन्दु पर पूरी तौर पर मौन थी। इसलिए प्रतिषिद्ध वस्तु अफीम जब अभियुक्तगण के आधिपत्य में होना नहीं पाई जाती है तो ऐसी स्थिति में उनकी दोषसिद्धि विधि में स्थिर रखने योग्य नहीं होगी।

एक अन्य मामले में 7 किलोग्राम अफीम का मामला था। जमानत उस दशा में ही स्वीकार की जा सकती है। जबकि यह विश्वास करने का युक्तियुक्त आधार हो कि अभियुक्त आरोपित अपराध का दोषी नहीं है और वह जमानत पर होने के दौरान कोई अपराध कारित करने वाला प्रतीत न होता हो। दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन प्रावधानित परिसीमाओं के अलावा अधिनियम की धारा 37 (1) (ख) में वर्णित शर्तें आती हैं। मामले में जमानत का आदेश उक्त आधार पर नहीं था अतः निरस्त कर दिया गया।

मेवाराम बनाम स्टेट, 2000 क्रि लॉ ज 114 देहली का मामला एफआईआर से संबंधित है। मामले में गिरफ्तारी तलाशी व जब्ती के उपरांत रुक्का पुलिस स्टेशन को भेजा गया था। इसके आधार पर प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की गई थी। मामले में विचित्र बात यह थी कि जब्ती तलाशी व स्थल पर तैयार विशेष रिपार्ट संबंधी कागजातों में प्रथम सूचना रिपोर्ट का क्रमांक अंकित था। यह समान रंग की स्याही से अंकित था।

यदि बरामदगी के उपरांत प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज किया जाना बताया गया हो तो ऐसी स्थिति में निम्न अनुमान निकलेगा-

1. बरामद के पूर्व ही प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज हो गई थी अथवा

2. जप्ती, तलाशी संबंधी कागजात व स्थल पर तैयार की गई विशेष रिपोर्ट पर प्रथम सूचना रिपोर्ट का नम्बर बाद में अंकित किया गया था। उपरोक्त दोनों ही स्थिति में अभियोजन की कथा असाखपूर्ण हो जाती है।

मथुरा प्रसाद बनाम स्टेट ऑफ यूपी 2005 क्रिलॉज 2741 इलाहाबाद के मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट का मूल्यांकन किया गया। प्रथम सूचना रिपोर्ट के मूल्यांकन से यह स्पष्ट नहीं था कि अधिनियम में यथाप्रावधानित कोई नमूना स्थल से लिया गया था। वस्तुतः प्रथम सूचना रिपोर्ट में ऐसा कुछ नहीं था जिसके आधार पर न्यायालय के द्वारा ऐसा अनुमान निकाला जा सके।

वस्तुतः इसे दियासलाई की डिब्बी में लिया गया था ऐसा दोनों चतुदर्शी साक्षीगण में से किसी के द्वारा कहीं भी नहीं बताया गया था। अन्वेषण अधिकारी के द्वारा भी एक भी शब्द बाबत् नहीं बताया गया था। अतः यह माना गया कि संदेह से परे यह प्रमाणित नहीं हुआ था कि कब और कहाँ और किस रीति में नमूने को लिया गया था। अभियुक्त के विरुद्ध मामला प्रमाणित नहीं माना गया।

राजवीर सिंह बनाम स्टेट, 2000 क्रिलॉज 1652 देहली के मामले अभियुक्त का एनडीपीएस एक्ट की धारा 18 के अंतर्गत अभियोजन किया गया था। ट्रायल कोर्ट ने अभियुक्त को अधिनियम की धारा 18 के अंतर्गत दोषी होना माना था और उसे 10 वर्ष का सश्रम कारावास एवं 1,00,000 रुपए का 1 जुर्माना अधिरोपित किया था। साक्ष्य का मूल्यांकन किया गया।

स्थल पर सब-इंस्पेक्टर के द्वारा तैयार (प्रदर्श पी.डब्ल्यू-3 ) से यह प्रकट होता था कि प्रतिषिद्ध वस्तु की अभिकथित बरामदगी दोपहर 3.00 बजे हुई थी व पुलिस स्टेशन को रुक्का 4.30 बजे भेजा गया था । यह आश्चर्य होना पाया गया कि एसएचओ को भेजी गई सूचना गोपनीय सूचना थी जिसे सब- इन्सपेक्टर के द्वारा प्राप्त किया गया था। अधिनियम की धारा 50 के अंतर्गत तलाशी लिए जाने के पूर्व अभियुक्त पर सूचना पत्र का निर्वाह कराया गया था जबकि पत्रक एवं अपीलांट के तलाशी पत्रक में प्रथम सूचना रिपोर्ट का क्रमांक था।

उपरोक्त कथित दस्तावेजों में समान स्याही एवं समान हस्तलेख में ऊपर की तरफ प्रथम सूचना रिपोर्ट का क्रमांक दिया गया था। इससे स्पष्ट तौर पर इंगित होता था कि यह दस्तावेज समान समय पर तैयार किए गए थे। अभियोजन ने इस बाबत् कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया था कि किन परिस्थितियों में उपरोक्त कथित दस्तावेजों के ऊपरी भाग पर प्रथम सूचना रिपोर्ट का क्रमांक था।

न्यायालय ने व्यक्त किया कि ऐसी स्थिति में दो अनुमान निकाला जाना संभव है। एक यह कि या तो प्रथम सूचना रिपोर्ट को गोपनीय सूचना प्राप्त होने एवं प्रतिषिद्ध वस्तु की अभिकथित बरामदगी के पूर्व रजिस्ट्रीकृत कर लिया गया था अथवा प्रथम सूचना रिपोर्ट का क्रमांक इन दस्तावेजों पर इसके रजिस्ट्रेशन के उपरांत अन्तःस्थापित किया गया था दोनों ही स्थिति में अभियोजन का वृतांत असाख पूर्ण हो जाता है और प्रतिषिद्ध वस्तु की बरामदगी के बाबत् सन्देह उत्पन्न होता है इसका लाभ अभियुक्त को दिया जाना चाहिए परिणामतः अभियुक्त के विरुद्ध अपराध प्रमाणित नहीं माना गया।

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