एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 5: अधिनियम में पोस्त तृण(अफीम का पौधा) के संबंध में दंड
एनडीपीएस एक्ट (The Narcotic Drugs And Psychotropic Substances Act,1985) की धारा 15 पोस्त तृण के संबंध में दंड का उल्लेख करती है। इस एक्ट में सभी नशीले पदार्थ धारा 8 में प्रतिबंधित किए गए हैं एवं सभी पदार्थो के लिए दंड अलग अलग धाराओं में अधिरोपित किए गए हैं। धारा 15 में पोस्त तृण के लिए दंड अधिरोपित किया गया है। अफीम के पौधे में डोडा का फल उगता है एवं इस पौधे के तने एवं सुखी पत्तियों को तृण कहते हैं। इस आलेख के अंतर्गत धारा 15 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।
यह अधिनियम में प्रस्तुत धारा का मूल रूप है
धारा 15 पोस्त तृण के संबंध में उल्लंघन के लिए दंड-
जो कोई, इस अधिनियम के किसी उपबंध या इसके अधीन बनाए गए किसी नियम या निकाले गए किसी आदेश या दी गई किसी अनुज्ञप्ति की शर्त के उल्लंघन में पोस्त तृण का उत्पादन, कब्जा, परिवहन, अंतरराज्यिक आयात, अंतरराज्यिक निर्यात, विक्रय, क्रय, उपयोग करेगा या उसको भांडागारण में रखने का लोप करेगा या भांडागारित पोस्त तृण को हटाएगा या उसकी बाबत कोई कार्य करेगा दंडित किया जाएगा-
(क) जहाँ उल्लंघन अल्पमात्रा अन्तर्ग्रस्त करता है वहाँ कठोर कारावास से जिसकी अवधि छह माह तक की हो सकेगी या जुर्माने से जो कि दस हजार रुपए तक का हो सकेगा या दोनों से;
(ख) जहाँ उल्लंघन वाणिज्यक मात्रा से कम मात्रा परन्तु अल्पमात्रा से अधिक मात्रा अन्तर्ग्रस्त करता है वहाँ कठोर कारावास से जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकेगी और जुर्माने से जो कि एक लाख रुपए तक का हो सकेगा या दोनों से;
(ग) जहाँ उल्लंघन वाणिज्यक मात्रा को अंतर्ग्रस्त करता है वहाँ कठोर कारावास से जिसकी अवधि दस वर्ष से कम की नहीं होगी किंतु बीस वर्ष की हो सकेगी, और जुर्माने से जो एक लाख रुपए से कम का नहीं होगा किन्तु दो लाख रुपए तक का हो सकेगा, दंडनीय होगा:
परंतु न्यायालय, ऐसे कारणों से, जो निर्णय में लेखबद्ध किए जाएंगे, दो लाख रुपए से अधिक का जुर्माना अधिरोपित कर सकेगा।]
स्वापक औषधि एवं मनः प्रभावी पदार्थ (संशोधन) अधिनियम, 2001 (2001 का 9) द्वारा मूल अधिनियम की धारा 15 को प्रतिस्थापित किया गया है। यह संशोधन दिनांक 2/10/2001 से प्रभावी किया गया है।
नंदू बनाम स्टेट ऑफ एमपी 1993 (2) म.प्र.वी.नो. 223 म.प्र) के मामले में अभिलेख से यह प्रतीत होना पाया गया कि जप्ती के संबंध में रिपोर्ट वरिष्ठ अधिकारीगण को नहीं भेजी गई थी। अभियुक्त को राजपत्रित अधिकारी अथवा वरिष्ठ अधिकारी के समक्ष नहीं ले जाया गया था। द.प्र.सं. की धारा 157 के प्रावधान के अधीन मामले में अधिकारिता रखने वाले मजिस्ट्रेट को अपराध की जानकारी नहीं भेजी गई थी। उपरोक्त विवेचन के आधार पर अभियुक्त को संदेह का लाभ पाने की पात्रता मानी गई। यह प्रमाणित होना नहीं पाया गया कि वह वास्तव में पोस्त के भूसे के आधिपत्य में पाया गया था अपराध अप्रमाणित माना गया।
सुरजाराम बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान, 2004 (3) क्राइम्स 688 राजस्थान के मामले में अभियोजन साक्ष्य का मूल्यांकन किया गया। उससे यह प्रमाणित नहीं होता था कि पोस्त भूसी को अभियुक्त के आधिपत्य से बरामद किया गया था। अभियोजन साक्षी 1 ने उसके प्रतिपरीक्षण में यह मंजूर किया था कि पुलिसजन ने उसे यह सूचित किया कि देवाराम से संबंधित पोस्त भूसी को उनके द्वारा रोहिचा कालन के रास्ते से बरामद किया गया था।
स्टेशन हाउस ऑफिसर अभियोजन साक्षी 3 ने उसकी साक्ष्य में यह बताया था कि 1/8/1999 को दिन के 12.30 बजे उन्होंने पुलिस से सूरजराम के घर की ओर जाने की कार्यवाही की थी। सूरजराम के घर पर पहुँचने पर उन्होंने पाया था कि उसके घर के बाहर एक ट्राली खड़ी हुई थी और सूरजराम रस्सी से ट्राली को बाँध रहा था। प्रतिपरीक्षण में इस साक्षी ने हालांकि यह साक्ष्य दी थी कि वह सुबह 4 बजे के लगभग सूरजराम के घर पर पहुँच गया था परंतु बरामदगी पत्रक को सुबह 8 बजे बनाया गया था। यह देखने के उपरांत भी कि अभियुक्त ने ट्राली को रस्सी से बाँधा था ऐसा विश्वास करना कठिन माना गया।
स्टेशन हाउस ऑफिसर की साक्ष्य परिणामस्वरुप स्वीकार किए जाने योग्य नहीं मानी गई। इसे असंभाव्य एवं व्याख्या के अयोग्य मानी गयी। आगे स्पष्ट किया गया कि साक्ष्य से यह प्रमाणित हुआ था कि कथित ट्राली का स्वामी एक लालाराम था। इस ट्राली को देवाराम के द्वारा उसके ट्रेक्टर के माध्यम से ले जाया जा रहा था। रास्ते में ट्राली जब पंचर हो गई थी तो पुलिस पार्टी पहुँच गई थी एवं देवाराम ने ट्राली को छोड़ दिया था व भाग गया था।
पुलिस दल ने देवाराम का पीछा करने का प्रयास किया था और उसके बाड़े की तलाशी ली थी। तलाशी पत्रक प्रदर्श पी / 1 तैयार किया गया था। अभियोजन साक्षी 5 आरक्षक ने उसके प्रतिपरीक्षण में मंजूर किया था कि ट्राली रिहायशी भवनों से 5-7 फुट की दूरी पर रास्ते में पड़ी हुई थी।
अभियोजन साक्षी 7 ने भी यह अभिसाक्ष्य दी थी कि ट्राली लोक सड़क पर पड़ी हुई थी और इसे देवराम के द्वारा ले जाया जा रहा था। ट्राली रास्ते में पंचर हो गई थी और देवराम पुलिस दल को देखकर भाग गया था।
पुलिस ने देवाराम का पीछा किया था परंतु पुलिस देवाराम को पकड़ नहीं सकी थी। अभियोजन साक्षी 7 ने भी यह मंजूर किया था कि सूरज (अभियुक्त) उस समय ट्राली के नजदीक उपस्थित नहीं था। सूरज की धानी की ओर नेतृत्व करने वाले ट्राली के कोई टायर चिन्ह भी नहीं थे। यह वृतान्त अभियोजन साक्षी 2 मोतबिर एवं अभियोजन साक्षी 6 से समर्पित होना पाया गया था।
अन्वेषण अधिकारी ने भी यह मंजूर किया था कि ट्राली लोक स्थल पर पड़ी हुई थी। प्रतिरक्षा साक्षीगण क्रमांक 1 व 2 प्रतिरक्षा वृतान्त का समर्थन करते थे। प्रतिपरीक्षण में उनकी परिसाक्ष्य को तोड़ा नहीं जा सका था। यह माना गया कि अभियोजन यह प्रमाणित करने में विफल रहा था कि अभियुक्त के आधिपत्य से पोस्त भूसी की बरामदगी हुई थी। अभियुक्त के विरुद्ध अधिनियम की धारा 8/15 के तहत आरोप प्रमाणित होना नहीं माना गया।
बलवीरसिंह उफ वीरा बनाम स्टेट ऑफ पंजाब, 2005 क्रि. लॉज. 2917 पंजाब-हरियाणा के मामले में रासायनिक परीक्षक की रिपोर्ट में शब्द "शराब (Liquor)" का नमूना अंकित हो गया था जबकि मामला चूरा पोस्त का था इस आधार पर अभियुक्त ने उसकी दोषमुक्ति चाही थी। इस बिन्दु पर विचार किया गया। अभियुक्त को इस आधार पर लाभ पाने की पात्रता नहीं मानी गई। हाई कोर्ट ने व्यक्त किया कि कथित रिपोर्ट का परिशीलन करने पर यह दर्शित होता है कि वस्तुतः चूरा पोस्त के 8 नमूने को स्थल पर सील किया गया था।
वह 22 मई 1997 को प्रयोगशाला में प्राप्त हुए थे और ये वही नमूने थे जिनका कि शासकीय प्रयोगशाला पटियाला में रासायनिक परीक्षण के द्वारा विश्लेषण किया गया था। निःसन्देह तौर पर रिपोर्ट के आरंभ में शब्द "शराब (Liquor)" लिखा गया था। परंतु संपूर्ण रिपोर्ट में विश्लेषण की की गई डिटेल चूरा पोस्त के नमूनों से संबंधित थी यह माना गया कि रिपोर्ट के इस भाग में सद्भावी तौर पर चूरा पोस्त शब्द के स्थान पर शब्द " शराब" लिखा हो गया था। इस आधार पर अभियुक्त को कोई लाभ पाने की पात्रता नहीं मानी गई।
रंगीराम बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा, 2001 क्रि लॉ ज 1166 सुप्रीम कोर्ट) के प्रकरण में यह तर्क दिया गया कि अभियुक्त की गिरफ्तारी व वस्तुओं की जब्ती के समय स्वतंत्र साक्षीगण उपस्थित नहीं रखे गए थे। घटना के तथ्य इस प्रकार के थे कि अभियुक्त अर्ध रात्रि में नदी के किनारे पर पोस्ता भूसी ले जाने वाला पाया गया था। गांव आधा फर्लांग की दूरी पर था। अन्वेषण अधिकारी की साक्ष्य से यह स्पष्ट था कि जब्ती पत्रक के स्वतंत्र साक्षी के रुप में कार्य करने के लिए कोई व्यक्ति आगे नहीं आया था। इन परिस्थितियों में स्वतंत्र साक्षीगण न होने का विपरीत प्रभाव नहीं माना गया। दोषसिद्धि की गई।
हवासिंह बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा, 2005 ईएफआर 741:2006 क्रि लॉ ज 8 एनओसी पंजाब-हरियाणा के मामले में साक्ष्य का मूल्यांकन किया गया। अभियोजन ने मामले में स्वतंत्र साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की थी। अभियुक्त से अभिकथित प्रतिषिद्ध सामग्री की बरामदगी के समय स्वतंत्र साक्षी नहीं बुलाए गए थे। उनको न बुलाने के संबंध में जो स्पष्टीकरण दिया गया था वह विश्वासयोग्य नहीं था। अभियोजन का मामला प्रमाणित नहीं माना गया।
सिकन्दरसिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब, 2006 (1) क्राइम्स 433 पंजाब-हरियाणा के प्रकरण में पॉपी की बरामदगी का मामला था। अभियुक्त से बरामद प्रतिषिद्ध वस्तु का वजन या तो 50 किलोग्राम था अथवा उससे कम था यह निष्कर्ष निकलता था। ऐसी स्थिति में यह नहीं कहा जा सकता था कि अभियुक्त के पास 50 किलोग्राम से अधिक की प्रतिषिद्ध वस्तु थी। 2001 के संशोधन अधिनियम क्रमांक 9 के द्वारा जो संशोधन किया गया है उसके अनुसार न्यूनतम दण्डादेश अधिरोपित करने की प्रयोज्यता उस दशा में हो सकती थी जबकि बरामदगी की मात्रा 50 किलोग्राम से अधिक होती थी।
इसलिए वर्तमान मामले में इसे प्रयोज्य नहीं किया जा सकता और अभियुक्त पर समुचित दण्डादेश अधिरोपित किया जा सकता है मामले के संपूर्ण तथ्यों के आधार पर यह अभिमत दिया गया कि न्याय के उद्देश्य की पूर्ति हो जाएगी यदि दण्डादेश को पूर्व में व्यतीत निरोध की अवधि में घटा दिया जाता है। परिणामतः अभियुक्त का दण्डादेश 3 वर्ष 3 माह की अवधि में जो कि पूर्व में व्यतीत निरोध की अवधि थी घटा दिया गया। जुर्माने की राशि भी मात्र 5000 रुपए कर दी गई।
जर्नेलसिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब, 2002 (3) क्राइम्स 455 पंजाब-हरियाणा के मामले में 30 किलोग्राम की भारी मात्रा की पोस्त भूसा (poppy husk) की बरामद हुई थी। इतनी भारी मात्रा को मिथ्या तौर पर अभियुक्त पर रोपित किए जाने की कथा पर विश्वास नहीं किया जा सकता। अपराध प्रमाणित माना गया। हालांकि 14 वर्ष के निरोध के दण्डादेश को घटाकर 10 वर्ष कर दिया गया। जुमनि की राशि भी 1,50,000 रुपए से घटाकर 1,00,000 रुपए कर दी गई।
स्टेट ऑफ पंजाब बनाम बलवंत राय, 2005 क्रिलॉज 1739 के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने आगे व्यक्त किया कि उसके न्यायालय के कतिपय पूर्व निर्णयों में इस आशय का विचार ग्रहण किया गया है कि शरीर की तलाशी वाहन, कंटेनर, बैग अथवा स्थल की तलाशी तक विस्तारित नहीं होती है। सुप्रीम कोर्ट ने व्यक्त किया कि चूंकि मामला विस्तृत पीठ को संदर्भित किया गया है। अतः हम इस प्रश्न पर कोई राय व्यक्त करना आवश्यक नहीं समझते हैं। परंतु सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि वर्तमान मामले के तथ्य पूरी तौर पर भिन्न हैं।
वर्तमान मामला सुप्रीम कोर्ट की विस्तृत पीठ को संदर्भित प्रकृति का मामला नहीं है। वर्तमान मामले में सड़क के किनारे पर पोस्त भूसी के 15 बैग पाए गए थे। याचिकाकार इन पर बैठा हुआ पाया गया था। अभियुक्त की तलाशी लिए जाने पर अपराध में लिप्तता वाला कुछ नहीं पाया गया। था एवं मात्र 200 रुपए की बरामदगी हुई थी। परंतु बैगों की तलाशी लिए जाने पर यह पाया गया था कि इसमें पोस्त भूसी अंतर्निहित था।
मामले में विचारणीय प्रश्न यह था कि क्या मामले के तथ्यों व परिस्थितियों में बैग की तलाशी को अभियुक्त के शरीर की तलाशी की कोटि में होना समझा जाए। सुप्रीम कोर्ट का अभिमत रहा कि स्पष्ट तौर पर यह मामला व्यक्तिगत तलाशी से संबंधित नहीं है और इसलिए अधिनियम की धारा 50 के प्रावधान आकर्षित नहीं होंगे।
जब कोर्ट ने इस तरह के मामले में अधिनियम की धारा 50 के प्रावधानों को प्रयोज्य करने में त्रुटि की थी। परिणामतः इस आधार पर अभियुक्त की गई दोषमुक्ति को स्थिर रखने योग्य नहीं माना गया कि अधिनियम की धारा 50 के प्रावधान का अपालन था। अभियुक्त को दोषी होना माना गया।