एनडीपीएस एक्ट, 1985 भाग 30: एनडीपीएस एक्ट के अंतर्गत तलाशी एवं गिरफ्तारी के पंचसाक्षी
एनडीपीएस एक्ट (The Narcotic Drugs And Psychotropic Substances Act,1985) के अधीन होने वाली गिरफ्तारी में पंचसाक्षी का भी महत्व है। बगैर किसी साक्षी के गिरफ्तारी संभव नहीं है। इस अधिनियम के अंतर्गत आने वाले प्रकरण अनेक बार पंचसाक्षी के पलट जाने के कारण अप्रमाणित माने गए हैं। इस आलेख के अंतर्गत पंचसाक्षी से संबंधित न्यायलयीन निर्णयों पर विमर्श किया जा रहा है।
उस्मान हैदर खान बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र, 1991 (1) क्राइम्स 777:1991 क्रिलॉज 232 बम्बई के मामले में पंचसाक्षीगण की साक्ष्य का मूल्यांकन किया गया। कथित पंचसाक्षीगण को पुलिस ने पूर्व में भी कई मामलों में पंचसाक्षी के रुप में प्रस्तुत किया था। ऐसे साक्षीगण की साक्ष्य पर निर्भरता व्यक्त नहीं की गई।
स्वर्णकी बनाम स्टेट ऑफ केरल, 2006 क्रिलॉज 65 केरल के मामले में अधिनियम की धारा 51 में दर्शित वाक्यांश "जहां तक यह अधिनियम के प्रावधानों से असंगत न हो" को महत्व का माना गया। यह वाक्यांश यह विवक्षित करता है कि दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधान जो कि तलाशी, जब्ती अथवा गिरफ्तारी के संबंध में है यह एनडीपीएस एक्ट के अधीन की जाने वाली तलाशी, जब्ती एवं गिरफ्तारी के संबंध में उस सीमा के सिवाय प्रयोज्य होंगे जो कि अधिनियम के प्रावधानों की असंगतता में हो।
स्वर्णकी बनाम स्टेट ऑफ केरल के मामले में ही अधिनियम की धारा 55 के क्षेत्र बाबत विवेचना की गई। सुप्रीम कोर्ट ने न्याय दृष्टांत् कर्नेलसिंह बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान, 2000 (7) सुप्रीम कोर्ट केस 632 में धारा 55 के क्षेत्र बाबत विवेचना की थी और यह अभिनिर्धारित किया था कि अधिनियम की धारा 51 सहपठित धारा 52 एवं 53 के एप्लीकेशन के साथ, अधिकारी से अधिनियम की धारा 55 के अधीन सील आदि चस्पा करने के लिए अपेक्षित अधिकारी "नजदीकी पुलिस स्टेशन के प्रभार में होने वाला अधिकारी होगा और यह अधिनियम की धारा 53 के अधीन सशक्त पुलिस स्टेशन के प्रभार में होने वाले अधिकारी से सुभिन्न होगा।
यदि अधिनियम की धारा 52 की उपधारा (3) (क) के अधीन विहित प्रक्रिया का अवलंब लेना हो तो अधिनियम की धारा 55 आकर्षित होगी। परंतु यदि गिरफ्तार व्यक्ति एवं जब्त वस्तुओं को अधिनियम की धारा 52 की उपधारा (3) के खण्ड (ख) के अधीन अधिनियम की धारा 53 के अधीन सशक्त अधिकारी को अग्रेषित कर दिया गया हो तो ऐसी स्थिति में अधिनियम की धारा 55 के पालन का आग्रह नहीं किया जा सकता है। नजदीकी पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी एवं अधिनियम की धारा 53 के अधीन सशक्त अधिकारी के मध्य सुभिन्नता स्पष्ट व सुभिन्न है। यह सुभिन्नता युक्तियुक्त उद्देश् पर आधारित है।
स्टेट ऑफ पंजाब बनाम बल्देव सिंह, 1999 के मामले कहा गया है कि उस दशा में जबकि अन्वेषण अधिकारी सक्षम अधिकारी के रूप में न हो तो उसे सक्षम अधिकारी को इस बाबत अवगत करना चाहिए और इस प्रक्रम से सक्षम अधिकारी अधिनियम के प्रावधान के अनुसार कार्यवाही करना चाहिए।
आबिद खान बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान, 2006 क्रिलॉज 181 एन.ओ.सी. राजस्थान के मामले में कहा गया है कि तलाशी के संबंध में व्यक्तिगत साक्षी इसलिए नहीं थे कि संबंधित क्षेत्र के व्यक्तियों ने साक्षी होने से इंकार कर दिया था। इसका कारण यह था कि संबंधित क्षेत्र में उसी समुदाय के लोग थे जिस समुदाय का अभियुक्त था। स्वतंत्र साक्ष्य का अभाव घातक नहीं माना गया। बल्देव सिंह के मामले में कहा गया कि दंड प्रक्रिया संहिता की प्रयोज्यता के क्षेत्र को स्पष्ट किया गया।
दंड प्रक्रिया संहिता के प्रावधान अधिनियम के तहत जारी वारंट गिरफ्तारी व तलाशी के संबंध में अधिनियम से असंगत न होने की सीमा तक प्रयोज्य होंगे। स्वर्णकी के मामले में कहा गया है कि दंड प्रक्रिया संहित, 1973 के प्रावधान अधिनियम के अधीन जारी किए गए सभी वारंटों, गिरफ्तारी, तलाशी एवं जब्ती के संबंध में उस सीमा तक ही प्रयोज्य होंगे जो कि अधिनियम के प्रावधान की असंगतता में न हों।
श्री सत्यजीत हजारी बनाम स्टेट ऑफ आसाम, 2006 क्रिलॉज 27 एन.ओ.सी के मामले में फोरेंसिक साइंस लेबोट्री में प्रतिषिद्ध वस्तु का नमूना भेजा गया था। प्रयोगशाला में प्रतिषिद्ध वस्तु का नमूना भेजे जाने के बाबत मौखिक साक्ष्य दी गई थी। इस साक्ष्य को चुनौती नहीं दी गई थी। अधिनियम की धारा 52, 55 व 57 के प्रावधानों का पालन होना माना गया। एक अन्य मामले में अधिनियम की धारा 52,55, व 57 के प्रावधानों के अपालन का तर्क दिया गया था। इन प्रावधानों के अपालन के आधार पर अभियुक्त को कोई प्रतिकूलता होना प्रमाणित नहीं की गयी थी। परिणामतः अभियुक्त को दोषमुक्त किए जाने की प्रार्थना अस्वीकार कर दी गयी।
रीता बनाम कस्टम, 2000 क्रिलॉज 800 देहली के प्रकरण में कहा गया है कि अभियोजन को उसका मामला प्रमाणित करने के लिए यह भी प्रमाणित करना चाहिए कि नमूने को बिगाड़ने की कोई संभावना नहीं थी।
कैलाश बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान, 2006 क्रिलॉज 1726 राजस्थान के मामले में अभिलेख के परिशीलन से यह प्रतीत होता था कि कोई प्रतिषिद्ध वस्तु का कोई नमूना नहीं लिया गया था। इसके अलावा जिन नमूनों को फोरेंसिक साइंस लेबोट्री भेजा गया था उन्हें कभी भी न्यायालय में उपस्थित नहीं किया गया था। इस बाबत कोई साक्ष्य नहीं थी कि किसी प्रतिषिद्ध नमूनों को प्राप्त किया गया था और नमूनों को फोरेंसिक साइंस लेबोट्री भेजा गया था हालांकि वे फोरेंसिक साइंस लेबोट्री के द्वारा वापिस आ गए थे परंतु उन्हें न्यायालय में प्रस्तुत किया गया था।
इस प्रकार अभियोजन यह प्रमाणित करने में विफल रहा था कि नमूनों को उन समान वस्तुओं में से लिया गया था जो कि जब्ती अधिकारी के द्वारा जब्त की गई थीं। परिणामतः यह अभिमत दिया गया कि अभियोजन यह प्रमाणित करने में संदेह से परे विफल रहा था कि वह दोषी है। अभियुक्तगण को संदेह का लाभ पाने की पात्रता मानी गई।
सुन्दर बनाम स्टेट ऑफ एम.पी, 2003(1) 118 म.प्र के मामले में अधिनियम की धारा 20 के तहत मामला था जमानत की मांग की गई थी। आधार यह बताया गया था कि अभियुक्त निर्दोष है उसे जमानत पर शर्तें अधिरोपित कर निर्मुक्त कर दिया जाए। प्रकरण में अन्यथा यह तर्क दिया गया था कि अधिनियम की धारा 40, 42, 50, 52 व 57 के प्रावधानों का पालन नहीं किया गया था हाई कोर्ट ने व्यक्त किया कि उपरोक्त बिन्दुओं का परीक्षण साक्ष्य के मूल्यांकन मात्र के आधार पर किया जा सकता है और जो कि इस प्रकरण पर संभव नहीं है। जमानत अस्वीकार की गई।
दिवाकरण बनाम स्टेट ऑफ केरल, 1999 के मामले में अधिनियम की धारा 52 व 57 के प्रावधान की प्रकृति आदेशात्मक स्वरूप की नहीं मानी हुई। इन प्रावधानों को अधिनियम की धारा 41 से 44 के अधीन गिरफ्तारी व जप्ती को प्रभावी करने के उपरांत उपयोग में लाया जाता है।
दालूराम बनाम स्टेट ऑफ एम.पी., 1992 (2) म.प्र.वी. नो. 41 म.प्र के प्रकरण में अधिनियम की धारा 52 व्यक्ति को गिरफ्तार करने वाले प्रत्येक अधिकारी से यह अपेक्षा करती है कि वह गिरफ्तारी के आधारों को सूचित करेगा। ऐसा किया जाना भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22 (1) की संगतता में माना गया। अधिनियम की धारा 52 के प्रावधान का निर्वाचन निर्देशात्मक होने के रूप में किया जाना चाहिए। इस अपेक्षा का अपालन होने पर संपूर्ण कार्यवाही अविधिमान्य नहीं हो जाएगी और इसका प्रभाव ऐसी गिरफ्तारी के परिणाम में होने वाले पश्चात निरोध मात्र पर होगा एवं प्रारंभिक गिरफ्तारी अविधिमान्य नहीं होगी।
स्वर्णकी बनाम केरल के मामले में अधिनियम की धारा 52 (3) एवं धारा 55 के संयुक्त अध्ययन से यह स्पष्ट होना पाया गया कि कठोर तौर पर जो अपेक्षित है वह यह है कि जब पुलिस स्टेशन के प्रभार में होने वाले अधिकारी से निम्न कोई पुलिस अधिकारी एनडीपीएस पदार्थ के आधिपत्य में होने के संदेह में किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करता है तो उसे उस व्यक्ति को प्रभार में लेना होता है उसे निरुद्ध करना होता है व तलाशी लेना होती है। यदि अभियुक्त के शरीर पर कोई प्रतिषिद्ध वस्तु होना पाई जाती है तो अधिकारी को उसे गिरफ्तार करना होता है एवं ऐसे व्यक्ति को जब्त प्रतिषिद्ध वस्तु के साथ नजदीकी पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत करना होता है।
पुलिस स्टेशन के प्रभार में होने वाला अधिकारी जब्त वस्तुओं को प्रभार में प्राप्त करेगा उन्हें सुरक्षित अभिरक्षा में रखेगा एवं ऐसे किसी व्यक्ति को जो कि ऐसी जब्त वस्तुओं के साथ पुलिस स्टेशन में आया हो उसकी सील को वस्तुओं पर अथवा इसके नमूनों पर चस्पा करेगा। पुलिस स्टेशन के प्रभार में होने वाला अधिकारी ऐसे पैकेटों पर उसकी सील को भी चस्पा करेगा। एक मामले में अधिनियम की धारा 55 के क्षेत्र बाबत विवेचना की गई।
सुप्रीम कोर्ट ने न्याय दृष्टांत् कर्नेलसिंह बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान, 2000 (7) सुप्रीम कोर्ट केस 632:2000 क्रिलॉज 4635 में धारा 55 के क्षेत्र बाबत विवेचना की थी और यह अभिनिर्धारित किया था कि अधिनियम की धारा 51 सहपठित धारा 52 एवं 53 के एप्लीकेशन के साथ, अधिकारी से अधिनियम की धारा 55 के अधीन सील आदि चस्पा करने के लिए अपेक्षित अधिकारी "नजदीकी पुलिस स्टेशन के प्रभार में होने वाला अधिकारी" होगा और यह अधिनियम की धारा 53 के अधीन सशक्त पुलिस स्टेशन के प्रभार में होने वाले अधिकारी से सुभिन्न होगा।
यदि अधिनियम की धारा 52 की उपधारा (3) (क) के अधीन विहित प्रक्रिया का अवलंब लेना हो तो अधिनियम की धारा 55 आकर्षित होगी। परंतु यदि गिरफ्तार व्यक्ति एवं जब्त वस्तुओं को अधिनियम की धारा 52 की उपधारा (3) के खण्ड (ख) के अधीन अधिनियम की धारा 53 के अधीन सशक्त अधिकारी को अग्रेषित कर दिया गया हो तो ऐसी स्थिति में अधिनियम की धारा 55 के पालन का आग्रह नहीं किया जा सकता है। नजदीकी पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी एवं अधिनियम की धारा 53 के अधीन सशक्त अधिकारी के मध्य सुभिन्नता स्पष्ट व सुभिन्न है यह सुभिन्नता युक्तियुक्त उद्देश्य पर आधारित है।
स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश बनाम सोरन सिंह, 1998 क्रिलॉज 1829 हिमाचल प्रदेश पूर्णपीठ के मामले में अधिनियम के निम्न प्रावधानों को आदेशात्मक माना गया-धारा 42,धारा 50,धारा 52 एवं अधिनियम की धारा 57 इस मामले में उक्त आदेशात्मक प्रावधानों का पालन होना नहीं पाया गया था। परिणामतः अधिनियम की धारा 15 के अपराध में दोषमुक्ति की गई। कैलाश बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान के मामले में प्रश्नगत कार के समपहरण के आदेश की विधिमान्यता पर विचार किया गया।
समपहरण के आदेश करने के पूर्व कोई साक्ष्य नहीं थी। वाहन के स्वामी को सूचना नहीं दी गई थी और न ही उसे सुनवाई का कोई अवसर दिया गया था। यह भी प्रतीत होना पाया गया कि अधिनियम की धारा 60 व 63 में प्रावधानित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया था। इस प्रक्रिया का पालन किए बिना प्रश्नगत मारुति कार के समपहरण का आदेश दिया गया था। ऐसे आदेश को विधिक नहीं माना गया। परिणामतः कार समपहरण के आदेश को अपास्त कर दिया गया।
महेश चन्द बनाम स्टेट ऑफ एम.पी, 1991 (1) म.प्र.वी. नो. 213 म.प्र के मामले में एक प्रकरण में अभियुक्त से पर्याप्त मात्रा में स्मैक की बरामदगी की गई थी। एक अन्य प्रकरण में अभियुक्त से 8 किलोग्राम अफीम भी बरामद हुई थी। एक अन्य प्रकरण में अभियुक्त से 4 किलोग्राम अफीम की बरामदगी हुई थी। आक्षेपित आदेश के द्वारा इन तीनों प्रकरणों का निराकरण किया गया। यह तर्क दिया गया कि अधिनियम की धारा 41, 42, 50 व 52 में प्रावधानित तलाशी एवं गिरफ्तारी आदि की प्रक्रिया के प्रावधानों का पूर्ण पालन किए जाने के अभाव में अभियुक्त को जमानत पर निर्मुक्त कर देना चाहिए क्योंकि इन प्रावधानों की प्रकृति आदेशात्मक है।
इस संबंध में न्याय दृष्टांत मरिप्पा वाला मामला, 1990 म.प्र. क्रिलॉज. 621 पर निर्भरता व्यक्त की गई थी- हाई कोर्ट ने व्यक्त किया कि मरिप्पा वाले निर्णय के पद 26 के विचार से यह प्रतीत होता है कि अधिनियम के अधीन प्रावधानित प्रक्रियात्मक संरक्षण का पालन होना अथवा अन्यथा होना अभियोजन के परिणाम पर सारवान प्रभाव डालेगा और इस आधार पर यह विश्वास गठित करने में सहायता उपलब्ध होगी कि क्या अभियुक्त आरोपित अपराध का दोषी नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने व्यक्त किया कि मरिप्पा वाले न्याय दृष्टांत में यह अभिनिर्धारित नहीं किया गया है कि प्रक्रियात्मक संरक्षण को अनुसरित करने में विफलता का परिणाम जमानत प्रदान करने के अधिकार के रूप में हो जाएगा। अधिनियम की धारा 37 के अधीन जमानत प्रदान करने के संबंध में मस्तिष्क निर्मित करने हेतु प्रक्रियात्मक संरक्षण को अनुसरित करने में विफलता को विचारयोग्य एक कारण माना जा सकता है।
मामले के जो तथ्य व परिस्थितियां थीं उनके आधार पर ऐसा निष्कर्ष नहीं निकलता था कि अभियुक्त अधिनियम की धारा 8/18 के संबंध में दोषी नहीं हो सकता है। परिणामतः जमानत प्रदान किए जाने से अनिच्छा व्यक्त की गई। इस तथ्य को भी ध्यान में रखा गया कि अभी रासायनिक परीक्षण की रिपोर्ट आना शेष थी और अन्वेषण जारी था।
स्टेट ऑफ एम. पी. बनाम प्रभूलाल, 1994 (1) क्राइम्स 710 म.प्र के प्रकरण में साक्ष्य का मूल्यांकन किया गया। अभियुक्त के आधिपत्य से 8.60 किलोग्राम अफीम की बरामदगी का मामला था। मामले में स्वतंत्र पंचसाक्षी अभियोजन के मामले का समर्थन करने वाले नहीं पाए गए। उन्हें पक्षद्रोही घोषित किया गया था। प्रकरण के तथ्यों व परिस्थितियों में एकमात्र पुलिस साक्षी जो कि अभियोजन के मामले का समर्थन करता था, के आधार पर दोषसिद्धि किए जाने से अनिच्छा व्यक्त की गई।
श्री सत्यजीत हजारी बनाम स्टेट ऑफ आसाम, 2006 क्रिलॉज 27 एन.ओ.सी. गुवाहाटी के मामले में घटना स्थल पर ही नमूने को सीलबंद कर दिया गया था इस आशय का अभियोजन का मामला था। इस बिन्दु पर अभियोजन ने मामले में दस्तावेजी व मौखिक साक्ष्य प्रस्तुत की थी। एक दिवस के अंतराल के उपरांत नमूने को परीक्षण हेतु प्रयोगशाला भेज दिया गया था। ऐसी स्थिति में नमूना विश्लेषण के लिए प्रयोगशाला में भेजा जाना विलंबित होना नहीं माना गया।
गुरुबख्श सिंह बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा 2001 के मामले में पंच साक्षी की साक्ष्य का मूल्यांकन किया गया। इस साक्षी को इस बाबत जानकारी नहीं थी कि जब्त होने वाला पदार्थ पोस्त भूसा (poppy husk ) था साक्षी को इस तथ्य की जानकारी पुलिस द्वारा सूचित किए जाने के उपरांत ही हुई थी। पंचसाक्षी को विश्वासयोग्य नहीं माना गया। इस ही मामले में पंचसाक्षी का इस आशय का कथन था कि पी.एस.आई के द्वारा उपयोगित मुद्देमाल की सील लकड़ी की सील थी। इस बिन्दु पर अन्वेषण अधिकारी का अलग ही कथन था। उसका कहना था कि यह पीतल की सील थी। उक्त प्रकृति की साक्ष्य पर अभियुक्त को दोषसिद्ध करने से अनिच्छा व्यक्त की गई।
डायरेक्टोरेट ऑफ रेवेन्यु बनाम विनोद कुमार और अन्य, 2005 क्रिलॉज 123 एन.ओ.सी. देहली के मामले में विचारणीय प्रश्न यह था कि क्या अभियुक्त को इस बाबत मांग करने का अधिकार होगा कि नमूने को परीक्षण के लिए अन्य प्रयोगशाला में भेजा जाए। पुनः परीक्षण करवाने का अधिनियम में कोई प्रावधान होना नहीं माना गया।
यह स्पष्ट किया गया कि जिस अधिनियम में अभियुक्त को इस प्रकार का अधिकार प्रदान किया जाता है उसका उल्लेख अधिनियम में किया जाता है जैसा कि खाद्य अपमिश्रण निवारण अधिनियम, 1954 में इस बाबत उल्लेख है। परन्तु इस तरह का कोई प्रावधान एनडीपीएस एक्ट के तहत होना नहीं माना गया। परिणामतः इस मामले में अभियुक्त को नमूने को पुनः परीक्षित कराने की प्रार्थना को स्वीकार करने वाला आदेश स्थिर रखने योग्य नहीं माना गया।