घरेलू हिंसा अधिनियम (DV Act) में मजिस्ट्रेट द्वारा Interim Order दिया जाना

Update: 2025-10-13 13:31 GMT

इस एक्ट की धारा धारा 23 के अनुसार-

अन्तरिम और एकपक्षीय आदेश देने की शक्ति

(1) मजिस्ट्रेट, इस अधिनियम के अधीन उसके समक्ष किसी कार्यवाही में, ऐसा अन्तरिम आदेश, जो न्यायसंगत और उपयुक्त हो, पारित कर सकेगा।

(2) यदि मजिस्ट्रेट का यह समाधान हो जाता है कि प्रथमदृष्ट्या उसका कोई आवेदन यह प्रकट करता है कि प्रत्यर्थी घरेलू हिंसा का कोई कार्य कर रहा है या उसने किया है, या यह सम्भावना है कि प्रत्यर्थी घरेलू हिंसा का कोई कार्य कर सकता है, तो वह व्यथित व्यक्ति के ऐसे प्ररूप में जो विहित किया जाये, शपथ-पत्र के आधार पर, यथास्थिति, धारा 18, धारा 19, धारा 20, धारा 21 या धारा 22 के अधीन प्रत्यर्थी के विरुद्ध एकपक्षीय आदेश दे सकेगा।

अधिनियम की धारा 23 मजिस्ट्रेट को अन्तरिम एवं एकपक्षीय आदेश पारित करने के लिए सशक्त करती है जो वह न्यायसंगत एवं उपयुक्त समझे जिसमें अधिनियम की धारा 18 से 22 के अधीन आदेश शामिल है। धारा 23 के अधीन, मजिस्ट्रेट ऐसा कोई अन्तरिम आदेश पारित करने में सक्षम है जो वह मामले के तथ्य एवं परिस्थितियों में उचित समझे। इस प्रकार यह देखा जाता है कि आदेश जो अधिनियम के विभिन्न प्रावधानों के अधीन मजिस्ट्रेट पारित करता है निश्चित रूप से सिविल प्रकृति का होता है।

धारा 23 की उपधारा (2) की भाषा एकदम स्पष्ट है। विहित प्रारूप में दाखिल शपथ-पत्र पर, मजिस्ट्रेट उक्त अधिनियम की धारा 15,19, 20, 21 या 22 के अधीन एकपक्षीय अन्तरिम आदेश के अनुदान को प्रदान करने को शक्ति का प्रयोग कर सकता है परन्तु मजिस्ट्रेट संतुष्ट हो कि उक्त आवेदन प्रथम दृष्ट्या यह प्रकट करता है कि प्रत्यर्थी घरेलू हिंसा का कोई कार्य कर रहा है या उसने किया है या यह सम्भावना है कि घरेलू हिंसा का कोई कार्य कर सकता है।

धारा 23 की योजना प्रतीत होता है कि शपथ पत्र के आधार पर उपधारा (2) के अधीन, एकपक्षीय अन्तरिम आदेश प्रत्यर्थी को पूर्व नोटिस के बिना मजिस्ट्रेट द्वारा प्रत्यर्थी के विरुद्ध धारा 18, 19, 20, 21 या 22 के अधीन पारित किया जा सकता है। उपधारा (1) अन्तरिम आदेश पारित करने को प्रावधानित करती है जो धारा 12 को उपधारा (1) के अधीन मुख्य आवेदन के अन्तिम निस्तारण या उसके नवीकृत होने तक लागू होती है।

हालांकि अन्तरिम अनुतोष के अनुदान के लिए पृथक् आवेदन की आवश्यकता नहीं होती है, नैसर्गिक न्याय का सिद्धान्त अपेक्षा करता है कि धारा 23 को उपधारा (1) के अधीन अन्तरिम अनुतोष प्रदान करने से पहले मुख्य आवेदन में प्रत्यर्थी सुन लिया जाय। इस प्रकार, धारा 23 को उपधारा (1) के अधीन अन्तरिम अनुतोष अनुदान करने से पहले, प्रत्यर्थी पर नोटिस की तामीलो हो जानी चाहिए।

उपधारा (1) धारा 23 को उपधारा (1) के अधीन अनुतोष जो अधिनियम को धारा 18 से 22 में से किसी के द्वारा आच्छादित नहीं है अनुदत्त नहीं किये जा सकते। इस प्रकार संक्षेप में, धारा 23 की उपधारा (2) के अधीन शक्ति अधिनियम की धारा 18 से 22 के निबन्धनों में एकपक्षीय अन्तरिम आदेश के अनुदान के लिए है एवं उपधारा (1) के अधीन शक्ति अधिनियम की धारा 12 (1) के अधीन मुख्य आवेदन के अन्तिम निस्तारण के सम्बित रहते हुए अन्तरिम अनुतोष के अनुदान के लिए है।

श्याम लाल बनाम कान्ता बाई 11 (2009) में निर्णय के प्रस्तर 4 में अभिलिखित किया गया है कि याचीगण को प्रत्यर्थी द्वारा घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 के अधीन दण्डनीय अपराधों के लिए अभियोजित किया गया था। हाई कोर्ट के समक्ष यह तर्क किया गया कि याचीगण को 26 अक्टूबर, 2006 के पूर्व घटित किसी अपराध के लिए अभियोजित नहीं किया जा सकता है। यह निष्कर्पित करते हुए अधिनियम के अधीन कार्यवाहियाँ खारिज कर दी गई थी कि अधिनियम के प्रावधानों को भूतलक्षी प्रभाव नहीं दिया गया था।

अधिनियम की धारा 23 घरेलू हिंसा के कृत्यों को कारित करने के कारण किसी व्यक्ति को दण्ड के लिए प्रावधान नहीं करती है। यह केवल मजिस्ट्रेट को अन्तरिम आदेश पारित करने के लिए सशक्त करती है जो वह न्यायसंगत एवं उचित समझे। यह केवल आदेश का उल्लंघन है, यदि कोई मजिस्ट्रेट द्वारा पारित किया जाता है, जो अधिनियम की धारा 31 के अधीन दण्डनीय बनाया गया है। चूँकि अधिनियम की धारा 18 या धारा 23 के अधीन आदेश, जैसा भी मामला हो, केवल अधिनियम के लागू होने के बाद ही पारित किया जा सकता है इसलिए अधिनियम के लागू होने के पूर्व कारित घरेलू हिंसा के कृत्य के सम्बन्ध में विचारित करने में यह नहीं कहा जा सकता कि यह संविधान के अनुच्छेद 20 (1) के अधीन वैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन है।

सामान्यतः प्रभावी अनुकल्पिक उपचार की उपलब्धता निश्चित रूप से इस कोर्ट को इसके बारे में स्पष्टीकरण पर विचार करने के लिए तत्पर बनायेगी कि ऐसे उपलब्ध प्रावधान का प्रयोग क्यों नहीं किया जा रहा है और केवल यदि कोर्ट का यह समाधान हो जाता है कि उस समय भी अपवादजनक प्रकार के विवशकारी कारण होते हैं, यदि यह कोर्ट दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन शक्तियों का आश्रय लेना पसन्द करेगी, जब याची के द्वारा ऐसे अनुकल्पित उपचारों का आश्रय न लिया गया हो

अभिव्यक्ति "आवेदन"धारा 23 (2) में निर्दिष्ट आवेदन स्पष्ट रूप से धारा 18 से 22 के अधीन अनुतोष का दावा करते हुए धारा 12 के अधीन आवेदन होता है। यह समझना असंभाव्य होता है कि धारा 23 (2) में अभिव्यक्ति "आवेदन" इस अपेक्षा को आवश्यक बनाता है कि धारा 23 के अधीन अन्तरिम आदेश के अनुतोष का दावा करने के लिए पृथक् आवेदन दाखिल किया जाना चाहिए। संविधि के द्वारा धारा 23 में प्रयुक्त स्पष्ट भाषा से ऐसे दृष्टांत को अभिव्यक्त करना असंभाव्य है कि कोर्ट को अपेक्षित अधिकारिता सम्बन्धी सक्षमता से तथा दावाकर्ता को धारा 23 के अधीन अन्तरिम आदेश के अनुतोष का दावा करने के अधिकार से आच्छादित करने के लिए धारा 23 के अधीन पृथक् आवेदन दाखिल किया जाना चाहिए।

यह सत्य है कि धारा 23 अन्तर्वती आदेशों को विनिर्दिष्ट रूप से अभिव्यक्ति 'आदेश' की परिधि से अपवर्जित नहीं करती है। परन्तु अधिनियम की धारा 23 में ऐसे विनिर्दिष्ट अपवर्जन के बिना भी यह अभिनिर्धारित किया जाना है कि शुद्ध रूप से अन्तर्वर्ती आदेश, जो पक्षकारों के अधिकारों को प्रभावित नहीं करते हैं, अपीलीय नहीं होंगे।

अधिनियम की धारा 23 की उपधारा (2) के अधीन मजिस्ट्रेट अधिनियम की धारा 18 से 22 के निबन्धनों में एकपक्षीय अन्तरिम आदेश जारी करने के लिए सशक्त किया गया है। उपधारा (1) के अधीन शक्ति अधिनियम की धारा 18 से 22 के निबन्धनों में अन्तरिम अनुतोष प्रदान करने की है। उपधारा (1) के अधीन अन्तरिम अनुतोष प्रदान करने के पहले प्रत्यर्थी को सुने जाने का अवसर प्रदान किया जाना आवश्यक है।

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