जजमेंट और डिक्री एक ही चीज़ नहीं होती है बल्कि इन दोनों में अंतर होता है। किसी भी केस में कोर्ट का सबसे अंतिम आदेश जजमेंट होता है और डिक्री कोर्ट की फॉर्मल अभिव्यक्ति है। जजमेंट और डिक्री सिविल लॉ जुड़े हुए शब्द हैं इसलिए इनके बारे में विस्तृत जानकारी सिविल प्रोसीजर कोड में ही मिलती है।
जजमेंट-
सिविल केस में डिस्प्यूटेड फैक्ट्स जजमेंट की बुनियाद होते हैं। वादपत्र पर सिविल न्यायालय की समस्त कार्यवाही निर्णय के लिए ही होती है। निर्णय किसी भी विवाद के बिंदु पर कोर्ट द्वारा दिया गया समस्त निचोड़ है।
निर्णय बड़ा शब्द है जिसके अंतर्गत आदेश और डिक्री दोनों समाहित होती है। किसी भी निर्णय में अनेक आदेश होते है और अंत में एक डिक्री अवश्य होती है।
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 2 की उपधारा धारा 9 के अनुसार-
"निर्णय से अभिप्राय आज्ञप्ति या आदेश के आधारों पर न्यायाधीशों द्वारा दिए गए कथन से है"
सिविल प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत दी गई निर्णय की इस परिभाषा से यह सिद्ध होता है कि निर्णय में आदेश और डिक्री दोनों समाहित होती है।
किसी भी सिविल मामले में समय-समय पर कोर्ट को अनेक आदेश देना होते है तथा इन आदेशों को मिलाकर अंत में विवाधक तथ्यों को लेकर कोर्ट द्वारा अपना एक निचोड़ पेश किया जाता है, इस निचोड़ में विवाद के समस्त बिंदुओं पर न्यायाधीश अपने कथन रखते हैं जो तथ्य साबित हो जाते हैं उन तथ्यों को साबित मानकर उनके पक्ष में निर्णय सुना दिया जाता है। निर्णय पक्ष में नहीं होना इसका महत्व नहीं है अपितु महत्व केवल इतना है कि कोर्ट तथ्यों के साथ साबित नासाबित के आधार पर अपना कथन करता है उस कथन को ही निर्णय कहा जाता है।
निर्णय में क्या क्या होता है
मामले का संक्षिप्त विवरण-
निर्णय में किसी भी मामले का संक्षिप्त विवरण रखा जाता है। जैसे जब वाद को कोर्ट में प्रस्तुत किया जाता है तो एक वाद पत्र भी होता है तथा वाद में प्रतिवादी द्वारा इस वाद पत्र पर लिखित अभिकथन किया जाता है। किसी भी वाद में अनेक तथ्य होते है इन समस्त तथ्यों को लिख पाना असंभव सा है। इसलिए न्यायाधीश इन सभी तथ्यों को संक्षिप्त करके लिखते है और इसे निर्णय में लिखा जाता है।
अवधारणा के लिए प्रश्न-
इसका अर्थ विवाधक तय किया जाना है। निर्णय में विवाधक तथ्य तय किए जाते है जिन तथ्यों पर समस्त विचारण चलेगा। इन विवाधक तथ्यों का विवरण निर्णय में लिखा जाता है।
उन विवाधक तथ्यों पर निर्णय-
निर्णय में किन्ही दो पक्षकारों के बीच तय किए गए विवाधक तथ्यों पर न्यायालय द्वारा अपना निर्णय दिया जाता है। निर्णय में इन तथ्यों से संबंधित अधिकार और दायित्व को तय किया जाता है।
इस निर्णय का कारण अथवा आधार-
न्यायालय द्वारा जो निर्णय दिया जाता है, उस निर्णय का कारण और उसका आधार भी लिखा जाता है तथा यह निर्णय का निष्कर्ष होता है, किन आधारों पर निर्णय दिया गया है।
निर्णय का एक प्रारूप होता है, जिस प्रारूप में वाद के संक्षिप्त विवरण से प्रारंभ होकर निष्कर्ष तक न्यायाधीशों द्वारा अपने कथन रखे जाते है,और अंत में एक डिक्री लिखी होती है,जिसमें पक्षकारों के अधिकारों को तय किया जाता है।
डिक्री-
सिविल प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत एक शब्द डिक्री है जिसे हिंदी में आज्ञप्ति कहा जाता है। आम भाषा में डिक्री और निर्णय को एक समान समझ लिया जाता है,परंतु डिक्री किसी भी निर्णय का केवल एक भाग मात्र है,जो पक्षकारों के अधिकारों का विनिश्चय करता है।न्यायधीश इस आज्ञप्ति के प्रारूप के माध्यम से पक्षकारों के अधिकारों के संबंध में अपने कथन करते है।
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 2 उपधारा 2 के अनुसार डिक्री की परिभाषा दी गयी है।
डिक्री से ऐसे न्यायनिर्णय की औपचारिक अभिव्यक्ति अभिप्रेत है जो कि वाद के में के सब यह किन्ही विवादास्पद विषयों के संबंध में पक्षकारों के अधिकारों को वहां तक निश्चित रूप से आधारित करता है जहां तक की उसे अभिव्यक्त करने वाले कोर्ट का संबंध है। यह प्रारंभिक या अंतिम हो सकती है।
डिक्री तब प्रारंभिक होती है जब वाद में पूर्ण रूप से निपटारा कर दिए जा सकने के पहले आगे और कार्यवाही की जानी है। अंतिम डिक्री वह होती है जो अंतिम रूप से अधिकारों को विनिश्चय कर दे,जब ऐसा न्यायनिर्णय वाद को पूर्ण रूप से निपटा देता है। वह भागतः प्रारंभिक और भागतः अंतिम हो सकेगी।
किसी भी डिक्री में निम्न आवश्यक बातें होती है-
वाद का निस्तारण हो गया हो।
वाद का निस्तारण कोर्ट के द्वारा हुआ हो।
यह निस्तारण किसी सिविल या राजस्व कोर्ट द्वारा अंतिम रूप से हुआ हो।
निश्चित रूप से पक्षकारों के अधिकारों का अवधारण हो गया हो।
व्यतिक्रम में वाद के खारिज होने के आदेश की अभिव्यक्ति ना हो।
छोला राम बनाम मासक के मामले में राजस्थान हाई कोर्ट द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि वाद या अपील को अवधिरूद्ध बनाने वाला आदेश डिक्री नहीं है क्योंकि इसमें पक्षकारों के अधिकारों का विनिश्चय नहीं होता है।
रतन सिंह बनाम विजय सिंह के मामले में यह तय किया गया है कि विलंब को माफ करने के लिए प्रस्तुत किए गए आवेदन पत्र को अस्वीकार करते हुए विलंब के कारण अवधिरूद्ध अपील को खारिज किए जाने का आदेश डिग्री नहीं है।
सिन्नामणि बनाम जी वेट्रीवेल के मामले में यह कहा गया है कि संविधान के अनुच्छेद 226 के अधीन हाई कोर्ट द्वारा पारित आदेश डिक्री की परिभाषा में नहीं आता है।
समय-समय पर भारत के सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट द्वारा डिक्री के संबंध में निर्णय दिए जाते रहे है।
किसी भी आज्ञप्ति के अनिवार्य तत्व-
आज्ञप्ति के लिए न्यायनिर्णयन की औपचारिक अभिव्यक्ति आवश्यक है।
न्याय निर्णयन कोर्ट के समक्ष चलने वाले किसी वाद में किया जाना आवश्यक है।
न्यायनिर्णयन का वाद में के विवादास्पद विषयों में से सब या किसी एक के बारे में पक्षकारों के अधिकारों का आधारित किया जाना आवश्यक है।
न्याय निर्णय का निश्चय होना आवश्यक है।
ऐसे न्यायनिर्णय का किसी सिविल अथवा राजस्व कोर्ट द्वारा किया जाना आवश्यक है।
कोई भी डिक्री मुख्यतः तीन प्रकार की होती है।
प्रारंभिक बिक्री।
अंतिम डिग्री।
प्रारंभिक एवं अंतिम दोनों भांति की मिश्रित डिक्री।
प्रारंभिक बिक्री-
किसी भी मामले में ऐसी परिस्थितियां हो सकती है जिसमें कोर्ट द्वारा प्रारंभिक हस्तक्षेप किया जाना नितांत आवश्यक हो जाता है।ऐसी परिस्थितियों में न्यायालय द्वारा कुछ मामलों को तथा कुछ अधिकारों को तय करने हेतु प्रारंभिक डिक्री दे दी जाती है। प्रारंभिक डिक्री में निर्णय हो यह आवश्यक नहीं है, प्रारंभिक डिक्री मामले की तत्काल परिस्थितियों से निपटने हेतु दी जाती है।प्रारंभिक डिक्री उन मामलों में पारित की जाती है जिनमें की न्यायालय को प्रथमतः पक्षकारों के अधिकारों पर न्याय निर्णयन करना होता है,उसके बाद उसे अपने हाथों में तब तक कुछ समय के लिए रोकना पड़ता है जब तक कि वह इस स्थिति में नहीं हो जाता कि वह वाद में अंतिम आज्ञप्ति पारित करें।
संहिता द्वारा किन मामलों में प्रारंभिक आज्ञप्ति पारित की जाएगी इसका विवरण दिया गया है तथा उन मामलों को सूचीबद्ध किया गया है जिनमें प्रारंभिक डिक्री पारित की जा सकेगी।
कब्जा किराया या मध्यवर्ती लाभों के लिए वाद।
प्रशासनिक वाद।
भागीदारी की समाप्ति के लिए वाद।
मालिक अभिकर्ता के बीच हिसाब के लिए वाद।
विभाजन और पृथक कब्जे के लिए वाद।
बंधक संपत्ति के विक्रय का वाद।
बंधक मोचन संबंधी वाद।
महेश चंद्र बनाम राम रतन
यहां यह उल्लेखनीय है कि प्रारंभिक आज्ञप्ति केवल ऐसे मामलों में ही पारित की जा सकती है उनके बारे में संहिता में स्पष्ट रूप से व्यवस्था की गई है।
अंतिम आज्ञप्ति-
जहां न्याय निर्णय मामले का पूर्ण रूप से निपटारा करता है वहां न्यायायल की अंतिम आज्ञप्ति होती है।
कोई आज्ञप्ति अंतिम आज्ञप्ति हो जाती है,वह सक्षम न्यायालय द्वारा पारित की गई है और उसके विरुद्ध कोई अपील संस्थित नहीं की गई हो।
किसी एक वाद में एकाधिक प्रारंभिक अथवा अंतिम आज्ञप्ति नहीं हो सकती अर्थात किसी भी मामले में केवल एक आज्ञप्ति अंतिम आज्ञप्ति होगी।
निम्न दो परिस्थिति में कोई आज्ञप्ति अंतिम आज्ञप्ति हो जाती है।
उसके विरुद्ध अपील के समय का अवसान बिना अपील संस्थित किए ही हो गया हो या उस विषय का विनिश्चय सुप्रीम कोर्ट की आज्ञप्ति के द्वारा हो गया हो।
आज्ञप्ति जहां तक उसे पारित करने वाले कोर्ट का संबंध है वाद का पूर्णरूपेण निपटारा कर देती है।
कोई भी आज्ञप्ति जब किसी बात का पूर्णरूपेण निपटारा करती है तथा उस आज्ञप्ति के विरुद्ध अपील संस्थित करने की शक्ति नहीं होती है तो ऐसी परिस्थिति में आज्ञप्ति की अंतिम आज्ञप्ति कहलाती है।
प्रारंभिक और अंतिम दोनों प्रकार की आज्ञप्ति-
कुछ मामले ऐसे होते हैं जिन्हें प्रारंभिक और अंतिम विज्ञप्ति दोनों प्रकार की आज्ञप्ति जारी करना होती है। यह होती तो एक ही आज्ञप्ति है परंतु इसकी प्रकृति ऐसी होती है की यह अंतिम एवं प्रारंभिक भी होती है। एक उदाहरण के माध्यम से इसे समझा जा सकता है
कोई वाद किसी संपत्ति के कब्जे के संबंध में लगाया गया है, तथा संपत्ति का हिस्सा अलग अलग है। ऐसी परिस्थिति में किसी एक हिस्से के लिए कोई आज्ञप्ति पारित कर दी जाती है तथा आगे की कार्यवाही जारी रहती है। जिस हिस्से के लिए आज्ञप्ति पारित की गई है यदि यह आज्ञप्ति अपील योग्य नहीं है तो अंतिम आज्ञप्ति हो जाएगी परंतु वाद की अंतिम आज्ञप्ति नहीं होगी क्योंकि वाद तो अभी जारी है। यह भागतः अंतिम है और भागतः प्रारंभिक है।
आदेश-
डिग्री और निर्णय की तरह का एक शब्द और है जिसे आदेश कहा जाता है। सिविल प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत आदेश को भी परिभाषित किया गया है इसकी परिभाषा धारा 2 की उप धारा 14 के अंतर्गत दी गई है।
आदेश से अभिप्राय सिविल कोर्ट के निर्णय की औपचारिक अभिव्यक्ति से है जो आज्ञप्ति नहीं है।
इस परिभाषा से मालूम होता है कि कोई भी डिक्री नहीं होने वाला व्यवहार आदेश हो जाएगा।
किसी भी वाद की कार्यवाही में समय-समय पर न्यायालय को आदेश करने होते है इन आदेशों के माध्यम से वाद का संचालन किया जाता है। वाद में किसी भी आवेदन पर आदेश हो सकता है। वाद के संस्थित होने तथा वाद के निस्तारण होने तक आदेश किसी भी प्रक्रिया में हो सकता है।किसी भी आवेदन पर आदेश किया जा सकता है,सभी आदेश की अपील नहीं होती है।
कुछ आदेश अपील योग्य होते है, केवल वही आदेश जो धारा 104 के अंतर्गत आदेश 43 के अंतर्गत नियम 1 में उल्लेखित है अपील योग होते है।
न्यायालय द्वारा समय-समय पर आदेश किए जाते रहते है। उदाहरण के लिए जैसे यदि किसी पक्षकार द्वारा कार्यवाही पर लगे वाद को किसी विशेष दिनांक पर बढ़ाने हेतु कोई आवेदन दिया जाता है तो ऐसे आवेदन पर न्यायालय उस वाद को उस विशेष दिनांक पर डालने की आज्ञा देता है या नहीं देता है इस के संदर्भ में अपना आदेश देगा,इसे आदेश कहा जाएगा।
विशेषकर आदेश वाद के संचालन के लिए न्यायालय द्वारा दिए जाते है। समय-समय पर दिए गए आदेशों का संकलन करने पर ही कोई एक निर्णय तैयार होता है। यह माना जा सकता है कि आदेशों का संकलन ही निर्णय है परंतु यह परिभाषा पूर्ण नहीं है। आदेश बहुत छोटे तत्थों के लिए भी हो सकता है तथा कोई भी आदेश किसी एक वाद में किसी समय किसी एक पक्षकार के पक्ष में हो सकता है तथा किसी समय उसी पक्षकार के विरुद्ध हो सकता है।
आदेश पक्षकारों के अधिकारों का अंतिम रूप से निर्धारण कर भी सकता है और नहीं भी करता है। आदेश आज्ञप्ति की भांति प्रारंभिक और अंतिम प्रकार का नहीं होता है।