किसी भी प्रॉपर्टी डिस्प्यूट में एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट अपराध रोकने के उद्देश्य से प्रॉपर्टी को स्टे कर सकता है। BNSS की धारा 164 के अनुसार एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट को इस संबंध में रिपोर्ट पर या किसी अन्य प्रकार से प्राप्त इत्तिला के आधार पर स्वयं का समाधान हो जाने पर की जा सकेगी।
इस धारा के अधीन कार्यवाही करने के लिए यह आवश्यक होगा कि भूमि या जल से संबंधित कोई विवाद ऐसा हो जिससे लोग शांति भंग होने की संभावना है। एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट अपनी शक्ति का उपयोग उस समय ही कर सकता है जिस समय उस भूमि या जल से संबंधित किसी विवाद के कारण लोक शांति भंग हो जाने का बड़ा खतरा है।
ऐसे मामले में एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट द्वारा कोई न्यायिक निर्णय नहीं दिया जाता है असल में या एक निवारक कार्य है जिसके माध्यम से एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट विवाद के कारण उत्पन्न होने वाली अशांति और लोक व्यवस्था के खराब होने के दुष्परिणाम से बचने के लिए उपयोग करता है। इस धारा का मूल उद्देश्य ऐसे विवादों का शीघ्रता से निपटारा करने के लिए प्रक्रिया निर्धारित करना है जो कि भूमि या जल से संबंधित है तथा जिनसे लोक शांति भंग होना संभव है।
इस धारा के प्रयोजन के लिए दो मुख्य कारण है-
विवाद किसी स्थावर संपत्ति भूमि या जल से संबंधित होना चाहिए, उस विवाद से लोक शांति भंग होने की संभावना हो।
यदि कोई विवाद ऐसा है जिसमें लोक शांति भंग होने की संभावना नगण्य है तो ऐसी परिस्थिति में धारा 164 का उपयोग नहीं किया जा सकता। धारा 164 का उपयोग तब ही किया जा सकता है जब किसी भूमि या स्थावर संपत्ति के विवाद से प्रबल लोक शांति भंग हो जाने का खतरा है।
समाज में किसी स्थावर संपत्ति को लेकर अनेक ऐसे विवाद सामने आते है जिनके कारण लोक शांति भंग हो जाने की प्रबल संभावना होती है। जैसे किसी खेत के कब्जे को लेकर दो पक्षकार आपस में भिड़ गए और भिड़ंत से समाज में भय फैल जाना तथा हिंसा हो जाना तय है तो एसी विपत्ति से निपटने के लिए ही एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट को यह शक्ति दी गयी है।
महंत राम सुमेर पूरी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा कहा गया है कि यदि विवाद किसी स्थावर संपत्ति से संबंधित है परंतु उससे लोक शांति भंग होने की कोई संभावना नहीं है तो ऐसी परिस्थिति में धारा 164 की कार्यवाही नहीं की जा सकेगी।
भारत संघ बनाम अजीमुन्निसा खातून एआईआर 2001 गुवाहाटी के मामले में गुवाहाटी सुप्रीम कोर्ट ने धारा 164 की व्याख्या करते हुए स्पष्ट किया है कि इस धारा के अंतर्गत चलायी जाने वाली कार्यवाही का मुख्य उद्देश्य शांति भंग के खतरे का निवारण करना है न कि स्वत्व (टाइटल) के प्रश्न को तय करना है।
कोई भी एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट के पास यदि किसी विवाद से संबंधित कोई ऐसी सूचना जाती है जो भूमि या किसी अन्य अचल संपत्ति से संबंधित से है तो ऐसी परिस्थिति में एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट यदि कोई आदेश पारित करता है तो यह उसका न्यायिक निर्णय नहीं होता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि इस आदेश की शक्ति किसी सिविल न्यायालय के आदेश की शक्ति के बराबर है। किसी भूमि से संबंधित विवाद का निपटारा सिविल न्यायालय द्वारा ही किया जाएगा परंतु तत्कालीन परिस्थिति में शांति भंग होने से रोकने के लिए एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट अपनी शक्ति का उपयोग करता है।
कुंज बिहारी दास बना खेत्रपाल सिंह के मामले में कहा गया है कि इस धारा के अधीन मजिस्ट्रेट द्वारा पारित किया गया आदेश केवल अस्थाई प्रकृति का होता है तथा तब तक अस्तित्व में रहता है जब तक कि सक्षम अधिकार वाले कोर्ट द्वारा विवाद का निस्तारण नहीं किया जाता है।
इस धारा 164 के अधीन पारित आदेश केवल पुलिस आदेश होता है तथा इसके अधीन टाइटल (हक़) विषय स्थिति का विनिश्चय नहीं किया जाता है।
ज्ञानदेव शर्मा बनाम बिहार राज्य के बाद में पक्षकारों के बीच भूमि संबंधी हक तथा कब्जे का विवाद सिविल न्यायालय में लंबित होने के कारण मजिस्ट्रेट ने उनके प्रकरण में धारा 164 (145 CRPC) के अधीन कार्यवाही करने से इंकार कर दिया जो हाई कोर्ट द्वारा न्यायोचित ठहराया गया लेकिन कोर्ट ने स्पष्ट स्थिति करते हुए कहा कि यदि विवाद इन से भिन्न मुद्दों पर आधारित हो तो मजिस्ट्रेट धारा 145 (5) के अंतर्गत आवश्यक आदेश पारित कर सकता है।
धारा 164 के अधीन जांचकर्ता कार्यपालक दंडाधिकारी को स्पष्ट रूप से तय करना चाहिए कि प्रथमिक आदेश के दिन यह प्रथमिक आदेश पारित किए जाने के पूर्व के 2 माह की अवधि में कौन सा पक्षकार अधिपत्य में था। अधिपत्य का प्रश्न अधिपत्य धारण करने के अधिकार की वैधता से परे हटकर वास्तविक आधिपत्य होने के आधार पर हल किया जाना चाहिए।
धारा 164 की जांच में एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट को प्रकरण में प्रस्तुत सभी दस्तावेजों एवं शपथ पत्रों का अच्छे से परीक्षण अपने विवेक का पूर्ण प्रयोग करते हुए करना चाहिए।
जहां विवादित भूमि या जल के संबंध में पक्षकारों के मध्य कोई विवाद सिविल कोर्ट में लंबित हो ऐसी दशा में धारा 164 के अधीन कार्यवाही एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट द्वारा करने का कोई औचित्य नहीं रह जाता है। जहां अचल संपत्ति के कब्जे के बारे में पक्षकारों में कोई विवाद किसी कोर्ट में लंबित हो तो उस दशा में धारा 164 के अधीन कार्यवाही विधि के अनुकूल नहीं है।
इस सिद्धांत का अर्थ यह है कि अचानक से उत्पन्न होने वाले विवाद में ही एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट ऐसे किसी आदेश को धारा 164 के अंतर्गत जारी करें। यदि कोई विवाद पहले से ही कोर्ट में चल रहा है और उसके लिए सिविल प्रकरण लंबित है तो ऐसी परिस्थिति में एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट को धारा 164 की कार्यवाही करना ठीक नहीं है। यदि फिर भी वह वैसी कार्यवाही करता है तो यह विधि के अनुकूल नहीं होगी।
धारा 164 के अंतर्गत जारी आदेश को कोर्ट में चुनौती-
धारा 164 के अंतर्गत पारित किसी आदेश को किसी भी सेशन कोर्ट में अथवा हाई में चुनौती दी जाती है तो ऐसी चुनौती पुनरीक्षण के लिए रखी जाएगी। पीड़ित पक्षकार सिविल न्यायालय में सिविल वाद दायर करके भी उपचार प्राप्त कर सकता है।
किसी स्थावर संपत्ति के विवाद में कभी-कभी ऐसी परिस्थिति का जन्म होता है कि एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट के लिए यह तय कर पाना मुश्किल होता है की पक्षकारों में धारा 164 की शक्ति का उपयोग करते समय कब्जा किसका था। एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट कब्जे के हकदार व्यक्तियों के बारे में कोई विनिश्चय नहीं कर पाता है।
ऐसी परिस्थिति में धारा 165 से काम लिया जाता है। धारा 165 के अंतर्गत एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट किसी स्थावर संपत्ति पर रिसीवर नियुक्त कर देता है। एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट द्वारा नियुक्त किए गए रिसीवर को वही शक्तियां प्राप्त होती है जो सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के अधीन रिसीवर को प्राप्त होती है।
रिसीवर नियुक्त करने के कुछ आधार है जो निम्न हो सकते है-
यदि मामला आपातिक हो।
मजिस्ट्रेट इस बात का विनिश्चय करें कि विषय वस्तु पक्षकार कब्जे में नहीं है।
या मजिस्ट्रेट यह भी निश्चित नहीं कर पाता है कि कौन व्यक्ति संपत्ति पर काबिज है। इस तथ्य को रूपा जीना बनाम तपाई स्वपन जैन के मामले में माना गया।
एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट संपत्ति को कुर्क कर लेता है। संपत्ति को कुर्क करने के बाद वह उस पर किसी रिसीवर की नियुक्ति कर देता है। धारा 165 के अधीन मजिस्ट्रेट को धारा 165 के अधीन मजिस्ट्रेट को यह शक्ति प्रदान की गयी है कि वह इस तरह से क्रुक की गयी संपत्ति के बाबत रिसीवर की नियुक्ति कर सकता है। इस प्रकार नियुक्त किए गए रिसीवर को वह सभी शक्तियां प्राप्त होंगी जो दीवानी प्रक्रिया संहिता के आदेश 40 एवं नियम (1) के अधीन नियुक्त रिसीवर को प्राप्त होगी।
मथुरा लाल बनाम भंवरलाल के वाद में एक मकान का विवाद था। इस मामले में कोर्ट ने कहा है कि कुर्की के बाद भी मामले में मजिस्ट्रेट की अधिकारिता समाप्त नहीं हुई होती है तथा उसके द्वारा जांच की कार्यवाही की जाना उचित है। कोई भी एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट कुर्की के बाद भी जांच की कार्यवाही कर सकता है तथा धारा 164 के अधीन फिर कोई निर्णय पारित कर सकता है।
धारा 165 के अधीन किसी संपत्ति को कुर्क कर लेने के कारण धारा 145 का अधिकार एक्जीक्यूटिव मजिस्ट्रेट के पास से समाप्त नहीं होता है व धारा 165 के अंतर्गत संपत्ति को कुर्क करके उस पर रिसीवर की नियुक्ति करने के बाद अपनी जांच को जारी रख कर धारा 164 के अंतर्गत आदेश पारित कर सकता है।