Hindu Marriage Act में Judicial Separation

Update: 2025-07-18 14:27 GMT

इस एक्ट की धारा 10 के अधीन Judicial Separation को उल्लेखित किया गया है। विवाह के दोनों पक्षकारों में से कोई भी पक्षकार कोर्ट के समक्ष आवेदन करके Judicial Separation की डिक्री पारित करने हेतु निवेदन कर सकता है।

कोर्ट की डिक्री से विवाह को कुछ समय के लिए मृत कर दिया जाता है। इस उपचार का यह मूल आधार है कि यदि विवाह पुनर्जीवित हो सकता हो तो कर लिया जाए क्योंकि विवाह के उपरांत संतान भी उत्पन्न होती है पति और पत्नी के विवाह विच्छेद के परिणामस्वरूप बच्चों का पालन पोषण अत्यधिक कष्टदायक हो जाता है। विवाह के पक्षकारों का यह दायित्व होता है कि उनके द्वारा उत्पन्न की गई संतानों का पालन पोषण दोनों के द्वारा साहचर्य का पालन करते हुए साथ साथ रहते किया जाए।

इस प्रकार सामाजिक दृष्टिकोण से न्यायिक पृथक्करण का उपचार अत्यंत सम्यक एवं उचित माना गया है। न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित की जा सकती है जब धारा 13 (2) में दिए गए आधार उपस्थित हो। किसी पक्षकार के आवेदन पर कोर्ट न्यायिक पृथक्करण की डिक्री को विखंडित भी कर सकता है।

न्यायिक पृथक्करण का सामान्य आशय यह है कि कोर्ट विवाह के पक्षकारों को कुछ समय तक अलग अलग निवास करने की आज्ञप्ति जारी कर देता है। इस आज्ञप्ति का अर्थ यह नहीं होता है कि विवाह का विखंडन हो गया है तथा अब विवाह के पक्षकारों के मध्य कोई अधिकार और दायित्व नहीं रहे है।

हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 10 के अधीन न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित हो जाने के बाद भी विवाह का स्वरूप बना रहता है परंतु विवाह को लेकर जो अधिकार तथा दायित्व होते हैं वह समाप्त हो जाते हैं।

न्यायिक पृथक्करण को एक प्रकार से विवाह विच्छेद का प्रथम चरण माना जाता है, जब विवाह के सूत्र में बंध पाना विवाह के पक्षकारों के लिए कठिन हो जाए तो अचानक ही विवाह का विखंडन नहीं करना चाहिए तथा दोनों ओर से तलाक की कार्यवाही नहीं की जाना चाहिए अपितु तलाक के पूर्व दोनों को अलग अलग कर दिया जाना उपयोगी साबित हो सकता है। इससे विवाह संस्कार को बचाया जा सकता है।

विवाह के किसी पक्षकार के न्यायिक पृथक्करण की डिक्री के लिए आवेदन प्रस्तुत करने के बाद कोर्ट अपना समाधान हो जाने पर विवाह के पक्षकारों को पृथक पृथक कर देती है तथा फिर विवाह के पक्षकार एक दूसरे के साथ निवास करने के लिए बंधित नहीं होते हैं।

न्यायिक पृथक्करण की डिक्री प्राप्त हो जाने के बाद विवाह का कोई पक्षकार अधिनियम की धारा 9 के अधीन साथ रहने के लिए रेस्टीट्यूशन आफ कंजगाल राइट्स के लिए कोर्ट के समक्ष आवेदन नहीं कर सकता है क्योंकि जब कोर्ट न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित कर देता है तो वह किसी पक्षकार को विवाह के सूत्र में बंध कर साथ रहने के लिए बाधित नहीं कर सकता है।

न्यायिक पृथक्करण के माध्यम से विवाह के पक्षकार विवाह को बचाए रखते हुए अलग अलग हो जाते हैं तथा साथ में निवास करने के लिए बाध्य नहीं होते है। विवाह का स्वरूप बचा रहता है दोनों एक दूसरे के पति और पत्नी रहते हैं उसके बाद भी अलग-अलग निवास करने के लिए अधिकार प्राप्त होता है। फिर पक्षकार किसी भी समय ऐसी डिक्री के विखंडन के लिए कोर्ट के समक्ष आवेदन प्रस्तुत कर सकता है।

कोर्ट डिक्री को विखंडन कर विवाह के पक्षकारों को साथ कर देता है, विवाह पुनः उस ही स्वरूप में आ जाता है न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित करते समय जिस स्वरूप में था।

न्यायिक पृथक्करण का अभिप्राय वैवाहिक परिस्थिति का त्याग करके पृथक पृथक निवास करना है। जब कोर्ट न्यायिक पृथक्करण की डिक्री पारित कर देता है तो पक्षकार पारस्परिक साहचर्य प्रदान करने के दायित्व से मुक्त हो जाते हैं।

दोनों पक्ष अपने-अपने ढंग से जीवन व्यतीत करने के लिए स्वतंत्र हो जाते हैं परंतु विवाह पूर्ण रूप से विखंडित नहीं होता है। इस डिक्री के पारित होने के पश्चात भी पति और पत्नी के मध्य वैवाहिक बंधन तो बना ही रहता है।

Tags:    

Similar News