लेखक द्वारा लाइव लॉ पर यह भारतीय दंड संहिता सीरीज प्रस्तुत की जा रही है जिसका यह प्रथम भाग है। इस भाग में लेखक द्वारा भारतीय दंड संहिता का सामान्य परिचय दिया जा रहा है, भारतीय दंड संहिता भारत की दंड विधि का सर्वाधिक महत्वपूर्ण संहिता है। इस पर लेखक द्वारा सारगर्भित आलेखों के माध्यम से प्रकाश डाला जाएगा तथा प्रयास किया होगा कि कुछ ऐसे आलेखों को लिखा जाए जिन लेखों के माध्यम से ही पाठकगण संपूर्ण दंड संहिता का सारगर्भित अध्ययन कर सकें अर्थात बहुत कम समय में ऐसा अध्ययन हो जाए जिससे भारतीय दंड संहिता की सभी महत्वपूर्ण जानकारियां उपलब्ध हो सकें। इस उद्देश्य से ही भारतीय दंड संहिता से संबंधित इस सीरीज को उपलब्ध किया जा रहा है।
भारतीय दंड संहिता का सामान्य परिचय एवं इतिहास-
अपराध किसी भी समाज के लिए घातक होता है, राजा का यह कर्तव्य बताया गया है कि वे अपनी प्रजा के भीतर न्याय करें और अपराध करने वाले अपराधी को दंडित करें। किसी एक व्यक्ति के कर्तव्य किसी दूसरे व्यक्ति के प्रति दायित्व होते हैं, समाज के प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य है कि उनका कोई भी कार्य या लोप किसी दूसरे व्यक्ति के अधिकारों का हनन नहीं करें जैसे कि भयमुक्त समाज में जीना एक व्यक्ति का अधिकार है तो उस दूसरे व्यक्ति का यह कर्तव्य बनता है वह दूसरा व्यक्ति पहले व्यक्ति को किसी भी प्रकार से व्यथित नहीं करें जिससे उसके भयमुक्त समाज में जीने के अधिकार का अतिक्रमण हो।
अपराध विधि और दंड विधि सभ्य समाज की देन है, असभ्य समाज में उसका कोई अस्तित्व नहीं था। व्यक्ति को अपने शरीर और संपत्ति की रक्षा स्वयं करना होती थी, अपराधियों के लिए जीवन के बदले जीवन, दांत के बदले दांत, हाथ के बदले हाथ का दंड प्रचलन था। सभ्य समाज के साथ में विधि शासन का निर्माण हुआ तथा विधि शासन में किसी भी व्यक्ति को दंड विधि के अनुसार दिया जाने लगा। भारतीय दंड संहिता 1860 के पारित होने के पूर्व भारत में तीन प्रेसिडेंसी नगरों बंंबई, कलकत्ता और मद्रास में अंग्रेजी विधि प्रयोग थी जबकि मुफस्सिल न्यायालय में मुस्लिम विधि लागू होती थी।
यदि कोई अपराध करता है तो उस अपराध के लिए दंड की व्यवस्था होती है। इस प्रकार के दंड के लिए एक ऐसे विधान की आवश्यकता है जो अपराधों का भी उल्लेख करें तथा उन अपराधों के लिए दंड का भी उल्लेख करें। भारतीय दंड संहिता प्राचीन ग्रंथ है वर्तमान युग में भी इसकी वही महत्ता हैं। यह ग्रंथ अपराधों का भी उल्लेख कर रहा है और उन अपराधों के साथ में दंड का भी उल्लेख कर रहा है। किसी भी समाज को बनाए रखने के लिए इस प्रकार की दंड संहिता की नितांत आवश्यकता होती है। यदि किसी समाज के अंदर अपराधों का निर्धारण नहीं किया गया है तथा उन अपराधों के लिए दंड का निर्धारण नहीं किया गया है तो उस समाज में चारों तरफ हाहाकार मच जाएगा तथा विसंगतियों का जन्म हो जाएगा।
मनुष्य को विधि से बाधित करना सर्वाधिक आवश्यक होता है, किसी भी मनुष्य को संपूर्ण रूप से स्वतंत्र छोड़ा जाना सारे समाज के लिए खतरा है।
विधि मनुष्य पर कुछ विधिक दायित्व आरोपित करती है। यदि कोई व्यक्ति इन दायित्व का निर्वाह नहीं करता है या इनका उल्लंघन करता है तो वह दंड का भागी होता है। हर व्यक्ति पर अन्य व्यक्ति के शरीर संपत्ति प्रतिष्ठा आदि की रक्षा एवं सम्मान करने का दायित्व रहता है। यदि कोई व्यक्ति अपने दायित्व की अवहेलना करते हुए किसी व्यक्ति के शरीर संपत्ति या प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाता है तो वह अपराधी माना जाता है और ऐसे अपराध के लिए राज्य का यह कर्तव्य बनता है कि वह उस अपराधी को दंडित करें।
इन सब तरह के अपराधों का उल्लेख भारत में भारतीय दंड संहिता 1860 में किया गया है। अपने एक प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि अपराधी को अभियोजक और दंडित करना एक सामाजिक आवश्यकता है यह समाज के हित में नहीं है कि कोई अपराधी अपने दायित्व से बच कर कोई अपराध करे।
स्टेट ऑफ राजस्थान बनाम ओमप्रकाश के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि बलात्कार मानवता के विरुद्ध अपराध है ऐसे मामलों में अभियुक्त सहानुभूति का पात्र नहीं होता।
भारतीय दंड संहिता का इतिहास काफी विस्तृत है। भारत में समय-समय पर भिन्न भिन्न प्रकार के दंड विधान प्रचलित रहे हैं। जहां तक दंड विधि के जन्म का प्रश्न है यह सभ्य समाज की देन है जैसे जैसे सभ्य समाज होता चला गया वैसे ही दंड विधि का विकास होता चला गया। मनुष्य ने धीरे-धीरे अपराधों को इंगित किया तथा उन अपराधों की खोज हुई जो मनुष्य को आघात पहुंचा रहे थें तथा उन अपराधों के लिए दंड का निश्चय किया गया। दंड की अवधारणा समय के साथ बदलती चली गई क्योंकि किसी समय आंख के बदले आंख दंड का भी सिद्धांत भारत में प्रचलित रहा है परंतु यह बर्बर और असभ्य युग की पहचान है। आज हम एक सभ्य युग में रह रहे हैं जहां पर मानव अधिकारों को ध्यान में रखते हुए ही कोई दंड दिया जा सकता है वर्तमान भारत में कारावास, अर्थदंड और फांसी के माध्यम से मृत्यु दंड की व्यवस्था है। दंड विधि का जन्म लोकाचारों और लोक नीतियों के अनुसार हुआ है। इसमें धर्म की भी महत्ती भूमिका रही है क्योंकि लोकनीति धर्म से ही तय हुई है।
मध्य युग में मुगल समुदाय ने जिस समय भारत पर शासन किया उस समय भारत की दंड विधि को और अधिक विस्तृत किया। मुस्लिम शासन काल में भारत में मुस्लिम दंड विधि प्रचलित थी और उसी के अनुसार आपराधिक न्याय प्रशासन किया जाता था। यह दंड की विधि कुरान पर आधारित थी तथा इसमें कुछ मुस्लिम शासकों के अपने तर्क भी थे। इस विधि के सिद्धांत प्राकृतिक न्याय सामान्य विवेक के अनुसार नहीं थे अपितु यहां पर सिद्धांत कुरान के अनुरूप थे जो बात कुरान के विरुद्ध होती थी केवल वही अपराध होती थी।
ब्रिटिश शासन के आने के बाद मुस्लिम दंड विधि समय के अनुरूप नहीं रह गई थी तथा मुस्लिम दंड विधि के ऐसे बहुत से सिद्धांत थे उस समय के वर्तमान समाज से मेल नहीं खा रहे थे क्योंकि ऐसे बहुत से छोटे छोटे से अपराध थे जिन अपराधों में बड़े से बड़ा दंड आरोपित कर दिया गया था जैसे की चोरी करने की सजा हाथ काटना मुकर्रर कर दी गई थी।
भारत में आए अंग्रेजी शासन ने मुस्लिम शासन काल की दंड संहिता को समाप्त कर दिया तथा उसमें से जो आवश्यक हुआ उसे अपनी दंड संहिता में स्थान दे दिया। भारत में ब्रिटिश कालीन दंड विधि का इतिहास 1600 का है। यह प्रथम बार ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की गई थी।
ब्रिटिश शासन काल में अनेक चार्टर अधिनियम पारित कर मुस्लिम दंड विधि में सुधार एवं परिवर्तन किए गए इसमें सन 1600 के बाद अनेक परिवर्तन होते चले गए। बर्बर और कठोर दंड की व्यवस्था को धीरे-धीरे समाप्त किया जाने लगा, धीरे धीरे केवल कारावास को ही दंड के रूप में रखा जाने लगा और जघन्य अपराध के लिए मृत्युदंड।
इस समय भारत में भारतीय दंड संहिता 1860 उपलब्ध है तथा जिसमें समय-समय पर परिवर्तन किए जातें रहें हैं। जैसी समय की आवश्यकता होती है वैसा परिवर्तन कर दिया जाता है। जिस समय भारतीय दंड संहिता को ब्रिटिशर्स ने तैयार किया था उस समय इसमें 488 धाराएं थी समय के अनुसार इसमें धाराएं बढ़ती चली गई तथा जहां पर धाराएं कम करने का समय आया वहां पर उन धाराओं को निरसित भी कर दिया गया। वर्तमान भारतीय दंड संहिता में 511 धाराएं उपलब्ध है।
भारतीय दंड संहिता केवल अपराधियों को दंड देने की व्यवस्था नहीं करती है परंतु यह अभियुक्त के अधिकारों के संबंध में उपचार भी उपलब्ध करती है। विधि में अपराध और दृश्यता के संबंध में कतिपय प्रतिमान निर्धारित किए गए हैं जिन्हें हम अभियुक्त के अधिकार और उपचार भी कह सकते हैं।
यह अधिकार और उपचार कई प्रकार से उपलब्ध होते हैं-
1)- जब तक किसी व्यक्ति को दोषी घोषित नहीं कर दिया जाता तब तक उसके निर्दोष होने की अवधारणा की जानी चाहिए अर्थात तब तक कोई व्यक्ति दोषी नहीं माना जाता है, तब तक उस व्यक्ति को सिद्ध दोष अपराधी नहीं माना जाता, यह बात केएम नानावती बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र एआईआर 1962 एससी 605 के प्रकरण में कही गई है।
2)- दोहरे खतरे से सुरक्षा के आधार पर किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक से अधिक बार अभियोजित नहीं किया जा सकता है।
3)- विचारण एवं प्रतिरक्षा के अवसर की स्वतंत्रता का अधिकार यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप है।
4)- वैधानिक कठोरता से रक्षा का अधिकार था किसी भी व्यक्ति के कृत्य के लिए तब तक दंडित नहीं किया जाना चाहिए जब तक कि संविधि में उसके लिए दंड की व्यवस्था नहीं हो अर्थात किसी व्यक्ति को केवल उसी अपराध के लिए दंडित किया जा सकता है जिस अपराध के लिए दंड विधि में व्यवस्था हो।
5)- निशुल्क विधि सहायता का अधिकार वर्तमान विधि का एक महत्वपूर्ण देन है। अब कोई भी व्यक्ति मात्र गरीबी के कारण न्याय से वंचित नहीं किया जा सकता। किसी व्यक्ति के पास धन उपलब्ध नहीं है तो ऐसी स्थिति में उस व्यक्ति को निःशुल्क विधिक सहायता देकर उसे न्याय दिया जाएगा। निर्धन व्यक्तियों को भी निशुल्क विधिक सहायता के माध्यम से न्याय उपलब्ध है।
भारतीय दंड संहिता संपत्ति के विरुद्ध अपराध मानव शरीर के विरुद्ध अपराध, लोक शांति के विरुद्ध अपराध, धर्म से संबंधित अपराध, राज्य के विरुद्ध अपराध आदि प्रकार के अपराधों का उल्लेख करती है तथा इस ग्रंथ में उन सभी अपराधों को समाविष्ट कर दिया गया है जो किसी भी समाज के लिए घातक है।
लेखक द्वारा भारतीय दंड संहिता,1860 को इस आलेख में ग्रंथ इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि यह विशाल है जो संहिता जिस समय भी पढ़ी जाए उस समय नई मालूम होती है क्योंकि इस संहितामें लगभग लगभग मनुष्य द्वारा किए जाने वाले किसी भी कार्य लोप से होने वाले अपराध के संबंध में दंड की व्यवस्था कर दी गई है और दंड के सिद्धांत को भी अपने समतुल्य समतावादी सिद्धांतों के आधार पर गढ़ा गया है कि कोई भी अपराध के लिए अधिक या कम दंड न हो सकें। जो जिस प्रकार का अपराध है जो जितना समाज के लिए घातक है उस अपराध के लिए उतने दंड की व्यवस्था है।
भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दिया जाने वाला दंड व्यथित पक्षकार या फरियादी को मिलने वाला प्रतिकर नहीं है, दंड कोई बदला नहीं है क्योंकि कोई भी व्यक्ति जब अपराध करता है तो वह समाज के विरुद्ध अपराध करता है किसी एक व्यक्ति विशेष के विरुद्ध अपराध नहीं करता है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि दंड कोई बदला है दंड कोई बदला नहीं होता है अपितु दंड समाज में इस संदेश हेतु आरोपित किया जाता है कि दूसरा व्यक्ति इस प्रकार के अपराध को कारित करने से बचे तथा समाज में वह विसंगतियों का जन्म नहीं हो जिससे कोई भी समाज बर्बाद हो सकता है।
भारतीय दंड संहिता का अध्याय 2 व्याख्यात्मक खंड है तथा इस संहिता का सर्वाधिक महत्वपूर्ण खंड है। इस संहिता के इस खंड को यदि समझ लिया जाए तो संहिता को समझने में सरलता होती है, इसमें उन शब्दों की परिभाषा दी गई है जो इस संहिता में स्थान स्थान पर प्रयुक्त हुए हैं। इस अध्याय का अध्ययन अगले आलेख में किया जाएगा।
भारतीय दंड संहिता के संपूर्ण अध्ययन के लिए इस सीरीज के किसी भी आलेख को पढ़ने से छोड़ा नहीं जाना चाहिए क्योंकि सभी आलेख अत्यंत सारगर्भित होंगे। उन सारगर्भित आलेखों में संपूर्ण दंड विधान भारतीय दंड संहिता को उल्लेखित कर दिए जाने का सतत प्रयास है।