धर्म और चुनावी आचार संहिता पर सुप्रीम कोर्ट के महत्वपूर्ण निर्णय

Update: 2024-10-11 13:56 GMT

इस ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने यह मुख्य सवाल उठाया कि क्या धर्म के आधार पर मतदाताओं से वोट मांगना जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 (Representation of the People Act, 1951) की धारा 123(3) (Section 123(3)) के तहत भ्रष्ट आचरण (Corrupt Practice) माना जाएगा?

इस लेख में विभिन्न सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर चर्चा की गई है, जिनसे इस प्रावधान की व्याख्या हुई है। इन निर्णयों ने यह स्पष्ट किया कि किस प्रकार धर्म के आधार पर वोट मांगना धर्मनिरपेक्षता (Secularism) और चुनाव की पवित्रता को प्रभावित कर सकता है।

धर्म और चुनावी आचार पर प्रमुख फैसले

1. जगदेव सिंह सिधांति बनाम प्रताप सिंह दौलता (1964)

इस प्रारंभिक मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ (Constitution Bench) ने यह कहा कि यदि किसी उम्मीदवार (Candidate) की व्यक्तिगत पहचान, जैसे कि उसकी भाषा के आधार पर मतदाताओं से अपील की जाती है, तो यह धारा 123(3) के अंतर्गत भ्रष्ट आचरण माना जाएगा।

कोर्ट ने यह भी कहा कि किसी विशेष भाषा के संरक्षण (Conservation) के लिए आम जनहित (General Welfare) में अपील करना भ्रष्ट आचरण नहीं होगा। यह फैसला भविष्य में धर्म के आधार पर की गई अपीलों के लिए एक बुनियादी आधार बन गया।

2. कुलतर सिंह बनाम मुख्तियार सिंह (1964)

इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने धारा 123(3) की व्यापक व्याख्या (Broad Interpretation) की। संविधान पीठ ने कहा कि धर्म, जाति, नस्ल, या भाषा के आधार पर किसी भी प्रकार की अपील भ्रष्ट आचरण मानी जाएगी।

अदालत ने धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक प्रक्रिया (Secular Democratic Process) को बनाए रखने की आवश्यकता पर जोर दिया। यह निर्णय इस बात पर आधारित था कि चुनाव प्रक्रिया को धर्म, जाति, या समुदाय से संबंधित किसी भी प्रभाव से मुक्त रखा जाना चाहिए ताकि चुनाव की पवित्रता बनी रहे।

3. कांति प्रसाद जयशंकर याग्निक बनाम पुरुषोत्तमदास रंचोड़दास पटेल (1969)

इस निर्णय में अदालत ने धारा 123(3) की संकीर्ण (Narrow) व्याख्या की। अदालत ने कहा कि उम्मीदवार या उसके समर्थक कांग्रेस पार्टी के खिलाफ धर्म के नाम पर अपील कर सकते हैं, लेकिन यह अपील केवल तभी भ्रष्ट आचरण मानी जाएगी जब यह उम्मीदवार के धर्म से संबंधित हो। इस निर्णय ने धर्म के आधार पर अपील और उम्मीदवार के व्यक्तिगत धर्म के आधार पर अपील के बीच एक भेद स्थापित किया, जो बाद के मामलों में महत्वपूर्ण साबित हुआ।

4. रमेश यशवंत प्रभु बनाम प्रभाकर काशीनाथ कुंते (1996)

इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 123(3) की व्याख्या को और संकीर्ण किया। न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा (Justice J.S. Verma) द्वारा लिखे गए इस फैसले में कहा गया कि चुनाव प्रचार के दौरान धर्म का उल्लेख करना तब ही भ्रष्ट आचरण माना जाएगा जब यह उम्मीदवार के धर्म पर आधारित हो।

अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि धारा 123(3) में "उसका" (His) शब्द का अर्थ केवल उम्मीदवार के धर्म से है, न कि मतदाताओं के धर्म से। इस निर्णय की आलोचना की गई क्योंकि यह धारा 123(3) के व्यापक उद्देश्य के साथ मेल नहीं खाता था।

5. नारायण सिंह बनाम सुंदरलाल पटवा (2003)

इस मामले में अदालत ने 1961 में धारा 123(3) में किए गए संशोधन (Amendment) द्वारा उत्पन्न विसंगतियों (Anomalies) पर चर्चा की। अदालत ने बताया कि "व्यवस्थित" (Systematic) शब्द को हटाने से प्रावधान का दायरा बढ़ गया, लेकिन "उसका" शब्द को जोड़ने से इसका प्रभाव सीमित हो गया।

अदालत ने कहा कि संशोधन का उद्देश्य साम्प्रदायिक और अलगाववादी प्रवृत्तियों (Communal and Separatist Tendencies) पर लगाम लगाना था, लेकिन पहले के निर्णयों में शब्द "उसका" की व्याख्या ने इस उद्देश्य को सीमित कर दिया। अदालत ने मामले को एक बड़ी पीठ को भेजा ताकि आगे की स्पष्टता मिल सके।

6. अभिराम सिंह बनाम सी.डी. कॉममाचेन (2017)

यह मामला धर्म के आधार पर अपील को लेकर सुप्रीम कोर्ट के दृष्टिकोण में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ (Seven-Judge Constitution Bench) ने पहले के संकीर्ण दृष्टिकोणों को खारिज कर दिया, जैसे कि रमेश यशवंत प्रभु मामले में लिया गया था।

अदालत ने कहा कि धर्म के नाम पर की गई कोई भी अपील, चाहे वह उम्मीदवार के धर्म से संबंधित हो या मतदाताओं के धर्म से, भ्रष्ट आचरण के अंतर्गत आएगी। अदालत की यह व्याख्या कानून के मूल उद्देश्य के साथ मेल खाती है, जिसका उद्देश्य चुनावी प्रक्रिया में विभाजनकारी रणनीतियों (Divisive Tactics) को रोकना था।

अदालत ने जोर देकर कहा कि चुनाव केवल धर्मनिरपेक्ष मुद्दों (Secular Issues) पर लड़ा जाना चाहिए, न कि धार्मिक आधारों पर।

धारा 123(3) की व्याख्या में सुप्रीम कोर्ट के बदलते दृष्टिकोण ने यह सुनिश्चित किया है कि भारत की चुनावी प्रक्रिया धर्मनिरपेक्ष बनी रहे। शुरू में अदालत ने संकीर्ण दृष्टिकोण अपनाया था, लेकिन समय के साथ इसे अधिक व्यापक (Broad) और उद्देश्यपूर्ण (Purposive) व्याख्या दी गई।

2017 के अभिराम सिंह के फैसले ने स्पष्ट रूप से यह स्थापित किया कि धर्म के नाम पर की गई अपीलें, चाहे वे उम्मीदवार या मतदाताओं के धर्म से जुड़ी हों, चुनावी कानून के तहत निषिद्ध हैं।

इस फैसले का दूरगामी प्रभाव रहा है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि चुनावी प्रक्रिया में धार्मिक भावनाओं का शोषण न हो और भारत का राजनीतिक तंत्र धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक बना रहे।

Tags:    

Similar News