वैवाहिक मामलों में यदि कोर्ट एकपक्षीय आदेश कर दें तब उसे कैसे निरस्त करवाएं

Update: 2022-03-18 04:30 GMT

सिविल मुकदमों में एकपक्षीय आदेश जैसी चीज देखने को मिलती है। एकपक्षीय आदेश का मतलब होता है ऐसा आदेश जो केवल किसी एक पक्षकार को सुनकर दिया गया है। ऐसा आदेश डिक्री भी हो सकता है और निर्णय भी हो सकता है।

अधिकांश वैवाहिक मामले जो पति पत्नी के विवाद से संबंधित होते हैं जैसे तलाक के मुकदमे, भरण पोषण के मुकदमे और संतानों की अभिरक्षा से संबंधित मामले में न्यायालय द्वारा एकपक्षीय कर दिया जाता है।

न्यायालय का यह मानना रहता है कि यदि उसने किसी व्यक्ति को अपने समक्ष उपस्थित होने हेतु बुलाया है और ऐसे बुलावे के बाद भी संबंधित व्यक्ति न्यायालय के समक्ष उपस्थित नहीं होता है, तब न्यायालय उस व्यक्ति को एकपक्षीय कर केवल एक पक्षकार को सुनकर कोई आदेश और डिक्री पारित कर देता है।

कभी-कभी न्यायालय द्वारा दिया गया ऐसा एकपक्षीय आदेश न्याय के अनुरूप होता है। लेकिन कभी-कभी ऐसा आदेश ठीक नहीं होता है, क्योंकि पक्षकार को उसका पक्ष रखने का अवसर ही नहीं दिया गया होता है।

भारत के संविधान की मूल आत्मा यह है कि किसी भी मुकदमे में दोनों पक्षकार को सुना जाए और किसी भी पक्षकार के विरुद्ध बगैर सुने कोई निर्णय नहीं दिया जाए। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि कोई पक्ष न्यायालय को परेशान करने के उद्देश्य से न्यायालय में उपस्थित नहीं हो रहा है और मामले को टाल रहा है।

जहां न्यायालय को यह लगता है कि पक्षकार उपस्थिति से बचने का प्रयास कर रहा है और न्यायालय में उपस्थित होकर अपना पक्ष नहीं रखना चाहता है वहां न्यायालय ऐसा छल करने वाले पक्षकार को एकपक्षीय कर देता है।

मुकदमे में क्यों होते हैं एकपक्षीय

किसी सिविल मुकदमे में पक्षकार के एकपक्षीय होने के पीछे कुछ कारण होते हैं। इनमें सबसे प्रमुख यह है कि न्यायालय द्वारा समन नोटिस जारी करने के बाद भी पक्षकार न्यायालय में उपस्थित नहीं होते हैं। ऐसे नोटिस की तामील को इस प्रकार के मामलों में महत्व दिया जाता है। न्यायालय जब भी कोई समन या नोटिस जारी करता है तब ऐसा समन या नोटिस रजिस्टर्ड डाक के माध्यम से जारी किया जाता है।

रजिस्टर्ड डाक पर समन को प्राप्त करने वाले व्यक्ति के हस्ताक्षर होते हैं या फिर वह व्यक्ति डाक को लेने से इंकार कर देता है तब उसकी प्रविष्टि अंकित होती है। अगर कोई व्यक्ति न्यायालय द्वारा भेजी गई डाक को लेने से इंकार कर देता है या फिर दिए गए पते पर रहता नहीं है वहां से भाग चुका है या फिर ऐसी डाक को प्राप्त करने के बाद भी न्यायालय में उपस्थित नहीं हो रहा है। तब न्यायालय पक्षकार को एकपक्षीय करके अपना मामला सुना देता है।

वैवाहिक मुकदमे जैसे तलाक का मुकदमा। इसमें एक पक्ष न्यायालय के समक्ष परिवाद लाकर तलाक की मांग करता है। दूसरे पक्षकार की यह जिम्मेदारी होती है कि वे न्यायालय में उपस्थित होकर अपना पक्ष रखें और न्यायालय को यह बताएं कि जिन आधारों पर परिवादी द्वारा तलाक मांगा जा रहा है वह आधार झूठे हैं और उनका कोई अस्तित्व नहीं है। लेकिन ऐसे वैवाहिक मामलों में एक पक्ष परिवाद लेकर आता है और दूसरा पक्ष न्यायालय के समक्ष उपस्थित ही नहीं होता है।

न्यायालय कई बार उन्हें नोटिस जारी करता है। यही नहीं बल्कि परिवादी को हस्तदस्ती देकर विपक्षी के घर पर उसको चस्पा कर देता है उसके बाद भी विपक्षी न्यायालय में उपस्थित नहीं होता है। तब न्यायालय ऐसे व्यक्ति को मामले से एकपक्षीय कर देता है। फिर केवल परिवादी को ही सुना जाता है और उसी के आधार पर मामले की विवेचना के बाद न्यायालय द्वारा अपना निर्णय दिया जाता है।

कैसे करवाएं ऐसे एकपक्षीय आदेश को निरस्त

अगर ऐसा एकपक्षीय आदेश कानून के विपरीत किया गया है अर्थात बगैर नोटिस भेजे या बगैर समन के तामील हुए आदेश कर दिया गया है, तब कानून में ऐसे व्यक्ति को राहत दी गई है।

हिंदू विवाह अधिनियम,1955 की धारा 28 इसका प्रावधान करती है। यह धारा ऐसे आदेश को हाईकोर्ट में अपील देने हेतु निर्देशित करती है। धारा 28 के अधीन पक्षकार परिवार न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय के विरुद्ध संबंधित उच्च न्यायालय में अपील कर सकते हैं और ऐसी अपील में यह आधार बना सकते हैं कि जो आदेश दिया गया है वह उन्हें बगैर सुने दिया गया है। उन्हें किसी प्रकार का कोई समन जारी नहीं किया गया और अगर समन जारी किया गया है तब भी उस समन की तामील नहीं की गई है, अर्थात समन उन्हें प्राप्त ही नहीं हुआ है।

अगर न्यायालय में यह साबित हो जाता है कि वाकई में पक्षकार को न्यायालय द्वारा बुलवाए जाने का प्रयास ही नहीं किया गया, बगैर बुलाए ही मामले में निर्णय दे दिया गया। तब उच्च न्यायालय अधिनस्थ न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय को अपास्त करते हुए मामले की सुनवाई को फिर से शुरू करने के आदेश कर देता है। ऐसे प्रकरणों में परिसीमा अधिनियम की धारा 5 का भी उल्लेख रहता है क्योंकि इस अधिनियम की धारा 5 किसी भी मामले को न्यायालय में रखने में होने वाली देरी में छूट प्रदान करती है।

अगर ऐसी देरी में कोई युक्तियुक्त कारण रहा हो तब मामले में लिबर्टी देते हुए न्यायालय से आदेश कर देती है। लेकिन देरी का कारण युक्तियुक्त होना चाहिए। अगर यह साबित हो जाता है कि न्यायालय ने अपने समक्ष उपस्थित होने के लिए सभी प्रयास किए उसके बाद भी पक्षकार उपस्थित नहीं हुआ तब उच्च न्यायालय से भी किसी प्रकार की कोई राहत नहीं प्राप्त की जा सकती।

इसलिए न्यायालय से आने वाले किसी भी नोटिस या समन की अवहेलना नहीं करनी चाहिए और जिस दिनांक को न्यायालय अपने समक्ष उपस्थित होने हेतु आदेश करें उस दिनांक को पक्षकारों को उपस्थित होना चाहिए।

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