क्रिमिनल केस में जमानत कितनी तरह की होती हैं?

Update: 2024-11-27 04:07 GMT

क्रिमिनल केस में अदालत आरोपी पर ट्रायल चलती है ऐसे ट्रायल के बीच आरोपी को जमानत पर रिहा किया जाता है क्योंकि किसी भी क्रिमिनल केस में ट्रायल लंबे समय तक चलता है और किसी आरोपी को इतने समय तक जेल में रखा जाना ठीक नहीं माना जाता है। जब भी किसी अभियुक्त को जेल में रखा जाता है तब उस पर अन्वेषण, जांच और विचारण या अपील की कार्यवाही लंबित रहती है ऐसी स्थिति में यह तय नहीं होता है कि किसी प्रकरण में यदि किसी व्यक्ति को अभियुक्त बनाया है तो वह अभियुक्त दोषमुक्त होगा या दोषसिद्ध होगा। यदि अभियुक्त किसी प्रकरण में दोषमुक्त हो जाता है और लंबे समय तक उस व्यक्ति को कारावास में रखा जाता है तो यह उस व्यक्ति के प्रति अन्याय ही होगा।

जमानत से तात्पर्य कैदी की हाजिरी सुनिश्चित करने हेतु ऐसी प्रतिभूति से है जिसको देने पर अभियुक्त को अन्वेषण अथवा विचारण के लंबित होने की स्थिति में छोड़ दिया जाता है। गोविंद प्रसाद बनाम पश्चिम बंगाल राज्य के मामले में कहा गया है कि इस प्रकार के जमानत में बंधपत्र में यह शर्त शामिल होती है कि वह बंधपत्र में निर्दिष्ट तिथि एवं समय पर स्वयं को न्यायालय के समक्ष हाजिर करेगा। जमानत के अधीन प्रतिभूति देने पर कोई भी व्यक्ति अपराध तथा विचारण की लंबित स्थिति में निरोध से स्वयं को मुक्त करके एक सामान्य नागरिक की भांति समाज में स्वतंत्रता पूर्वक विचरण करता है। जमानत संबंधी उपबंध अवधारणा पर आधारित है कि किसी भी व्यक्ति की स्वाधीनता में आयुक्तियुक्त एवं अन्याय पूर्ण हस्तक्षेप न किया जाए।

एक सामान्य सिद्धांत यह है कि 'जमानत न की जेल' (बेल एंड नॉट जेल) के नाम से संबोधित किया जाता है। कोई व्यक्ति जिसके विरुद्ध केवल यह संभावना या आशंका है कि उसने अपराध किया होगा सीधे न्यायालय के समक्ष हाजिर होकर जमानत के लिए याचना कर सकता है। जब तक कि उसे वास्तव में गिरफ्तार न कर लिया गया हो या उसके विरुद्ध गिरफ्तारी वारंट जारी न किया गया हो। गिरफ्तारी वारंट के आधार पर उसके गिरफ्तार किए जाने की संभावना उत्पन्न न हुई हो।

यदि अपराध जमानतीय हो तो जमानत पर रिहाई का अभियुक्त का अधिकार होता है। इस प्रकार की जमानत अभियुक्त पुलिस अधिकारी या न्यायालय इनमें से किसी के द्वारा भी अधिकारपूर्वक मांग सकता है। न्यायालय और पुलिस अधिकारी को उन अपराधों में जमानत देना ही होती है जिन अपराधों में जमानत दिया जाना अभियुक्त का अधिकार होता है।

धारा 478

BNSS की यह धारा यह उपबंधित करती है कि जहां किसी जमानती अपराध के अभियुक्त को गिरफ्तारी व निरुद्ध किया जाता है तो वह अधिकार के रूप में जमानत पर छोड़े जाने का दावा कर सकता है। यह धारा ऐसे सभी मामलों के प्रति लागू होती है जिनमें अभियुक्त किसी जमानतीय अपराध का दोषी है या वह ऐसा व्यक्ति है जिसने कोई अपराध नहीं किया है।

धारा किसी अन्य गिरफ्तारी या निरोध के मामले में भी लागू होगी बशर्ते कि वह किसी गैरजमानतीय अपराध से संबंधित नहीं है। जब कोई गैर जमानतीय अपराध के अभियुक्त से कोई व्यक्ति पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी द्वारा बिना वारंट के गिरफ्तार व निरुद्ध किया जाता है या न्यायालय के समक्ष हाजिर होता है तो उसे जमानत पर छोड़ दिया जाएगा। पुलिस थाने का भारसाधक अधिकारी या न्यायालय उस व्यक्ति को जमानत पर छोड़ने के बजाय उससे प्रतिभूतियों सहित या रहित बंधपत्र निष्पादित करवाकर उसे अभिरक्षा से उन्मोचित कर सकता है।

वीरेंद्र बनाम राजस्थान राज्य के प्रकरण में यह सुनिश्चित किया गया है कि जब अभियुक्त को किसी जमानतीय अपराध के अभियोग की दशा में धारा 436(Crpc) के अधीन जमानत पर छोड़ दिया जाता है उसके के बाद पुलिस द्वारा उसकी रिहाई पर उसके विरुद्ध एक गैर जमानतीय अपराध और जोड़ दिया जाता है। उस दशा में जारी की गई जमानत को निरस्त नहीं किया जा सकता।

गुडी कांति नरसिंहुलु बनाम लोक अभियोजक के एक विशेष प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने जमानत संबंधी कुछ मार्गदर्शक सिद्धांत प्रतिपादित किए।

लेखक उन सिद्धांतों का उल्लेख लेख में कर रहा है-

मजिस्ट्रेट द्वारा जमानत मंजूर किए जाने अथवा नहीं किए जाने का निर्णय पूर्व सावधानी बरतते हुए युक्तियुक्तता के आधार पर किया जाना चाहिए।

जमानत नामंजूर की जाने के फलस्वरूप अभियुक्त को स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित किया जाता है इसलिए मजिस्ट्रेट द्वारा इसका प्रयोग दाण्डिक उद्देश्य से नहीं किया जाना चाहिए अपितु अभियुक्त और समाज दोनों के हितों को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए।

जमानत के आवेदन पर विचार करते समय मजिस्ट्रेट को इस बात पर विशेष ध्यान देना चाहिए कि जमानत पर छोड़ दिए जाने पर अभियुक्त गवाहों के लिए खतरा उत्पन्न तो नहीं करेगा या न्यायिक कार्यवाही के संचालन में बाधा उत्पन्न नहीं करेगा।

जमानत के आवेदन पर विचार करते समय मजिस्ट्रेट को अभियुक्त के पूर्व वृतांत को भी ध्यान में रखना चाहिए और यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि अभियुक्त की आपराधिक गतिविधियों में लिप्त होने की संभावना तो नहीं है।

सामान्यता अभ्यस्त और घोर अपराधियों की जमानत मंजूर नहीं की जानी चाहिए।

धारा 480

BNSS की धारा 480 गैर जमानतीय अपराध की दशा में कब जमानत ली जा सकेगी इस संदर्भ में उल्लेख कर रही है।

BNSS की यह धारा उस न्यायालय को अधिकार दे रही है जिसके समक्ष अभियुक्त को पेश किया जाता है। इस धारा के अंतर्गत गैर जमामतीय अपराध के ऐसे मामलों में जो मृत्युदंड या आजीवन कारावास से दंडित न हो न्यायालय या पुलिस द्वारा अभियुक्त को जमानत पर छोड़े जाने के संबंध में प्रावधान है। धारा 480 के अंतर्गत न्यायालय के साथ ही पुलिस को भी यह शक्ति दी गई है कि वह भी किसी व्यक्ति को जमानत पर छोड़ सकती है पर उसके लिए कुछ शर्ते निहित की गई है।

यदि अभियुक्त-

16 वर्ष से कम आयु का है।

महिला या बीमार है।

असक्षम और शिथलांग व्यक्ति है।

अपराध मृत्युदंड आजीवन कारावास से दंडित होने पर भी उसे जमानत पर छोड़ा जा सकता है यदि ऊपर वर्णित निम्न शर्तों की पूर्ति होती है तो।

जमानतीय अपराध के अभियुक्त को न्यायालय या पुलिस द्वारा जमानत पर छोड़े जाने के लिए अपनी विवेक शक्ति का प्रयोग करते समय न्यायालय या पुलिस यथास्थिति को कतिपय सामान्य सिद्धांतों को ध्यान में रखना होगा।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने अनेक निर्णय में अभिकथन किया कि अभियुक्त को जमानत पर छोड़ने का उद्देश्य यह है कि वह जांच या विचारण के दौरान आवश्यकता अनुसार अभियुक्त की न्यायालय में उपस्थिति सुनिश्चित कराई जा सके और उसे विचाराधीन अवधि में दंड स्वरूप कारावास में न रहना पड़े। गुरुचरण सिंह बनाम दिल्ली प्रशासन सुप्रीम कोर्ट आफ इंडिया के मामले में यह कहा गया है कि-

विधि के अधीन अभियुक्त को जमानत पर छोड़ा जाना एक नियम है जबकि जमानत देने से इनकार किया जाना एक अपवाद है।

कोई अपराध जमानतीय है या अजमानतीय है इसका निर्धारण दंड प्रक्रिया संहिता की प्रथम अनुसूची से होता है या फिर उस अधिनियम के माध्यम से होता है जिस अधिनियम के अंतर्गत किसी कार्य या लोप को अपराध बनाया गया है।

साधारण तौर पर अजमानतीय अपराध के मामले में अभियुक्त को जमानत पर छोड़े जाने के लिए न्यायालय या पुलिस यथास्थिति निम्नलिखित बिंदुओं पर विचार अवश्य करेगी-

अभियुक्त के विरुद्ध अभियोग तथा आरोप।

आरोप की पुष्टि में उपलब्ध साक्ष्य की प्रकृति और प्रकार।

सिद्धदोष होने पर दिए जाने वाले दंड की गुरुता।

जमानत मंजूर की जाने की दशा में अभियुक्त के भाग जाने की संभावना।

अभियुक्त द्वारा जमानत के दौरान साक्ष्य मिटाने या गवाहों को धमकाने, प्रलोभित करने या तोड़ने आदि की क्या संभावना है।

विचारण के लिए लगने वाली अनुमानित समय अवधि।

अभियुक्त का व्यक्तिगत वृतांत या पृष्ठभूमि जैसे स्वास्थ्य, लिंग, आयु,पारिवारिक स्थिति, प्रतिष्ठा इत्यादि।

अपराध घटित होने की परिस्थितियां।

BNSS 480 के अंतर्गत कोई अभियुक्त अधिकारपूर्वक पुलिस अधिकारी या न्यायालय से अन्वेषण, विचारण के लंबित रहते हुए जमानत नहीं मांग सकता। किंतु कुछ दशाओं में न्यायालय को यह विवेकाधिकार प्राप्त है की वह अभियुक्त को जमानत पर छोड़ सकता है।

उन दशाओं में प्रमुख है-

16 वर्ष से कम आयु।

अभियुक्त का स्त्री होना।

रोगी या शरीर का कोई अंग खराब होना।

ऊपर वर्णित सिद्धांतों की भी BNSS की धारा 480 के अंतर्गत जमानत दिए जाने में महती भूमिका होती है।

धारा 482

इस धारा में अग्रिम जमानत का प्रावधान है। अग्रिम जमानत की अवधारणा इस तथ्य पर आधारित है कि कोई गैर जमानतीय अपराध घटित होने पर यदि किसी व्यक्ति को गिरफ्तारी की युक्तियुक्त आशंका हो तो न्यायालय में आवेदन करके उस संभावित परेशानी लांछन से बच सके जो गिरफ्तारी के कारणों से भुगतनी पड़ती है।

अग्रिम जमानत के आवेदन पर विचार करते समय न्यायालय समाधान कर लेगा कि किसी जमानत मंजूर की जाने पर आवेदक द्वारा उसे दी गई आजादी का दुरुपयोग किए जाने की कोई संभावना तो नहीं है। दांडिक कार्यवाही से बचने के लिए वह फरार तो नहीं होना चाहता।

अग्रिम जमानत किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी के पूर्व होती है। जहां तक धारा 482 के अधीन व्यक्ति को अग्रिम जमानत पर छोड़े जाने का प्रश्न है यह आधिकारिकता केवल सेशन कोर्ट एवं हाई कोर्ट को ही प्राप्त है। गुरबख्श सिंह सिब्बिया बनाम पंजाब राज्य के प्रकरण में दिए गए निर्णय के पश्चात सुप्रीम कोर्ट का रूख यह रहा है कि अग्रिम जमानत केवल एक सीमित समय के लिए ही दी जाए ताकि अभियुक्त विचारण न्यायालय में नियमित जमानत हेतु आवेदन कर उसका लाभ ले सके। न्यायालय के अनुसार अग्रिम जमानत केवल उसी समय तक वैध मानी जानी चाहिए जब तक कि अभियुक्त न्यायालय में नियमित जमानत हेतु आवेदन प्रस्तुत नहीं करता है।

हालांकि इस निर्णय के बाद भी सिद्ध राम सदलिंगप्पा महेतरे बनाम महाराष्ट्र राज्य 2010 के वाद में कहा गया है कि अग्रिम जमानत की अवधि पर कोई समय सीमा लगाना उचित नहीं होगा तथा अग्रिम जमानत स्वीकार करने वाले न्यायालय को चाहिए कि वह इसकी अवधि निर्णय मामले का विचारण कर रहे न्यायालय पर छोड़ दे। न्यायालय में इस बात से सहमति दर्शायी की अग्रिम जमानत पर छोड़ने की न्यायालय शक्ति एक विशेष शक्ति होने के कारण इसका प्रयोग यथासंभव विरले प्रकरणों में ही किया जाना चाहिए।

साधारण जमानत और अग्रिम जमानत में अंतर केवल इतना है कि साधारण जमानत किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी के बाद होती है जब की अग्रिम जमानत किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी की आशंका पर होती है।

धारा 483

BNSS की यह धारा सेशन कोर्ट हाई कोर्ट की जमानत संबंधी विशेष शक्तियों का उल्लेख कर रही है। इस धारा के अनुसार हाई कोर्ट सेशन कोर्ट किसी ऐसे व्यक्ति को जिसके विरुद्ध किसी अपराध का अभियोग है तथा अभिरक्षा में है जमानत पर छोड़े जाने के निर्देश दे सकता है।

BNSS की इस धारा के अंतर्गत सत्र न्यायालय और हाई कोर्ट को जमानत के संबंध में अपार शक्तियां दी गई हैं। धारा 439 के अधीन हाई कोर्ट, सेशन कोर्ट किसी भी ऐसे व्यक्ति को जिसे इस अध्याय के अंतर्गत जमानत पर छोड़ा गया हो गिरफ्तार करने अभिरक्षा के लिए सुपुर्द किए जाने के निर्देश भी दे सकती है।

इस धारा के अधीन सेशन कोर्ट एवं हाई कोर्ट को प्राप्त जमानत मंजूर करने की शक्ति मजिस्ट्रेट की शक्ति की समवर्ती है। अंतर केवल यह है कि मजिस्ट्रेट जमानत स्वीकार या अस्वीकार करने संबंधी शक्ति का प्रयोग धारा 480 के अधीन प्रारंभिक स्तर पर करेगा जबकि हाई कोर्ट शक्ति का प्रयोग अपनी अपील या पुनरीक्षण अधिकारिता के अधीन कर सकेगा।

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