क्रिमिनल केस के पेंडिंग रहते नए आरोपियों के नाम कैसे जोड़े जाते हैं?

Update: 2024-11-18 06:02 GMT

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता BNSS के अंतर्गत किसी क्राइम का ट्रायल सुना जाता है। कई दफा ऐसी स्थिति बनती है जब ट्रायल के बीच किन्हीं नए आरोपियों के नाम सामने आते हैं। ऐसी स्थिति में अदालत को यह शक्ति प्राप्त है कि वह नए आरोपियों के नाम मुकदमे में जोड़ दे और उन पर भी अपराध का ट्रायल चलाया जाए। इस शक्ति का अर्थ यह है कि कोर्ट मामले में अभियुक्तों को जोड़ देने की शक्ति रखता है।

निजी परिवाद पर या पुलिस द्वारा किए गए अन्वेषण के आधार पर विचारण की कार्यवाही की जाती है परंतु यहां पर यह विशेष शक्ति कोर्ट को भी प्राप्त है कि यदि अन्वेषण के दौरान जांच एजेंसी या पुलिस में अभियुक्तों को बचाने का प्रयास किया है व प्रकरण में ऐसी परिस्थितियों का जन्म होता है जिनसे न्यायधीश को आभास हो कि मामले में और अभियुक्त हो सकते हैं तथा किन्हीं अभियुक्तों को बचाया जा रहा है तो वह Suo moto के आधार पर स्वयं भी संज्ञान ले या फिर अभियोजन पक्ष द्वारा अभियुक्तों को जोड़े जाने का निवेदन भी किया जाता है।

न्यायधीश और मजिस्ट्रेट को यह शक्ति स्वविवेक के आधार पर ही प्राप्त है। मजिस्ट्रेट या न्यायाधीश की इस शक्ति पर ज़ोर देकर अधिकार पूर्वक नहीं बनाया जा सकता है कि किन्ही नए अभियुक्तों को विचारण में जोड़ा ही जाए और पुराने अभियुक्तों के साथ नए अभियुक्तों का भी विचारण किया जाए।

BNSS की धारा 358 के अंतर्गत किसी अपराध की जांच या विचारण के दौरान साक्ष्य से यह प्रतीत है कि किसी व्यक्ति ने जो अभियुक्त नहीं है कोई ऐसा अपराध किया है जिसके लिए ऐसे व्यक्ति का अभियुक्त के साथ विचार किया जा सकता है तो ऐसी परिस्थिति में कोर्ट उस व्यक्ति के विरुद्ध अपराध के लिए जिसका उसके द्वारा किया जाना प्रतीत होता है कार्यवाही कर सकता है।

यदि ऐसा व्यक्ति कोर्ट में हाजिर नहीं है तो उसे हाजिर करवाने के लिए अपेक्षा के अनुसार गिरफ्तारी या फिर समन जारी कर सकता है। यदि कोर्ट में हाजिर है तो उसे निरुद्ध किया जा सकता है।

इस संबंध में भारत के अदालतों में कुछ मामले आए हैं जिनमें अधिकांश मामले सुप्रीम कोर्ट के पास पहुंचे हैं उनको लेकर कुछ विशेष मुकदमे है जिनमें से कुछ निम्न है-

रंजीत सिंह बनाम पंजाब राज्य सुप्रीम कोर्ट के मामले में निर्धारित किया कि जब एक बार मामला सेशन कोर्ट को सुपुर्द करने के आदेश अनुसार में अपराध का संज्ञान लेता है तब सहिंता की धारा 319 के अधीन शक्तियों का प्रयोग करते हुए साक्ष्य के चरण पर पहुंचने के पश्चात ही किसी अन्य व्यक्ति को अभियुक्त की सूची में जोड़ने के लिए सशक्त है।

रंजीत सिंह के इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि कोर्ट जब साक्ष्य के चरण को पा जाता है अर्थात आरोपी विरचित कर देने के बाद की अवस्था। जब ऐसा प्रतीत होता है कि अब कोई अभियुक्त जोड़ा जा सकता है तो उसे यह शक्ति मिली हुई है कि वह अभियुक्तों को जोड़ सकता है।

मोहम्मद शफी बनाम मोहम्मद रफीक तथा अन्य में सुप्रीम कोर्ट ने धारा 319 के अंतर्गत अतिरिक्त अभियुक्तों को समन जारी कर के परीक्षण हेतु बुलाए जाने के बारे में अभिकथन किया की कोर्ट को अनुमति तभी देनी चाहिए जब वह साक्ष्य से संतुष्ट हो जाए कि इस प्रकार बुलाए गए अतिरिक्त अभियुक्तों के दोषी पाए जाने की पूरी संभावना है। साक्ष्य परीक्षण के आधार पर कर सकता है अभियुक्तों को शामिल करने का निर्णय लिया जाना चाहिए।

मोहम्मद शफी के इस मामले में सेशन कोर्ट ने साक्ष्य के परीक्षण के दौरान उसके द्वारा बताए गए व्यक्ति के अतिरिक्त अभियुक्त के रूप में जोड़ने से इंकार कर दिया।

उस व्यक्ति की घटना स्थल पर उपस्थिति मात्र से अभियुक्त बनाए जाने के लिए पर्याप्त कारण नहीं था जिसे अभियुक्त बनाए जाने का निर्णय किया गया था।

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के अधीन अपनी अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग करते हुए अपीलार्थी को अतिरिक्त अभियुक्त के रूप में आयोजित किए जाने की अनुमति दे दी इसके विरुद्ध अपील में सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट के निर्णय को अपास्त करते हुए अभिकथन किया कि इस प्रकरण में हाई कोर्ट द्वारा धारा 482 के अंतर्निहित शक्तियों का प्रयोग किया जाना न्यायोचित नहीं था। अपील स्वीकार करते हुए निर्णय दिया कि अभियुक्त के रूप में शामिल किया जाना नहीं था।

माइकल मैकाडो बनाम सीबीआई सुप्रीम कोर्ट के अभी हाल ही के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अभिनिर्धारित किया है कि अन्य व्यक्ति के विरुद्ध जो अपराध का दोषी प्रतीत हो उसके विरुद्ध कार्यवाही किए जाने के लिए धारा 358 के अधीन शक्ति का प्रयोग करने के लिए पहले से ही एकत्र किए गए साक्ष्य से दो पहलुओं के संबंध में कोर्ट को युक्तियुक्त संतुष्टि होना चाहिए।

उस अन्य व्यक्ति ने अपराध किया है।

ऐसे अपराध के लिए उस अन्य व्यक्ति का विचारण पहले से ही दोष रोपित अभियुक्तों के साथ किया जा सकता था।

कोर्ट को जो शक्ति प्रदान की गयी है वह केवल विवेकाधिकार है। जैसा की धारा 319 में प्रयुक्त शब्द कोर्ट ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध कार्यवाही कर सकती है' का प्रयोग केवल आपराधिक न्याय की परिपूर्णता हेतु किया जाना चाहिए। जब विचारण में जोड़े गए व्यक्तियों के विरुद्ध कार्यवाही की जाने का कोर्ट द्वारा निर्णय लिया जाता है तब विचारण पुनः नए सिरे से प्रारंभ करना होता है।

सुप्रीम कोर्ट ने अभिनिर्धारित किया कि जब प्रकरण में चार अभियुक्तों के विरुद्ध विचारण अंतिम प्रक्रम पर पहुंच चुका हो तथा 54 साक्षियों की परीक्षा हो चुकी हो तब ऐसे विलंबित प्रक्रम पर धारा 358 के अधीन दो नए व्यक्तियों को से अभियुक्त के रूप में जोड़ा जाना नए सिरे से विचारण की कीमत पर नहीं होगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस बात को याद रखना चाहिए कि अन्य व्यक्तियों के विरुद्ध कार्यवाही करना कोर्ट का कर्तव्य नहीं है।

राजेंद्र सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य अन्य के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने अभिकथन किया की धारा 319 दंड प्रक्रिया संहिता (358 BNSS) के अंतर्गत कोर्ट को अतिरिक्त अभियुक्तों को शामिल करने की व्यापक शक्ति प्राप्त है। जिसका प्रयोग वह अपने विवेक अनुसार कर सकेगा। कोर्ट इस शक्ति का प्रयोग उस स्थिति में भी कर सकता है जब से अभियुक्त का विचारण पूर्ण हो चुका है। अतः कोर्ट की शक्ति का विरोध केवल इस आधार पर नहीं किया जा सकेगा उसे या शक्ति केवल अपवादात्मक प्रकरण हो या अति विशिष्ट मामलों में ही प्राप्त है। इस शक्ति का प्रयोग पूर्णता कोर्ट के विवेक पर निर्भर करेगा।

कृष्णप्पा बनाम कर्नाटक राज्य के मुकदमे में 1993 में घटित अपराध से संबंधित था। जिसमें कुछ 17 साक्षियों के परीक्षण के पश्चात अभियुक्त के बयान अभिलिखित किए जा चुके थे। प्रत्यर्थीयों ने अपीलार्थी जो कि मामले के अन्वेषण से संबंध था का नाम अपराधियों की सूची में जोड़े जाने हेतु मजिस्ट्रेट को आवेदन दिया जिसे मजिस्ट्रेट ने अस्वीकार कर दिया।

इस आवेदन को खारिज करने का कारण यह था कि जिसका नाम अभियुक्तों के साथ जोड़े जाने का आवेदन था उसके खिलाफ सन 1995 कार्यवाही हाई कोर्ट द्वारा अपास्त कर दी गयी थी।

सुप्रीम कोर्ट विनिश्चय किया कि मजिस्ट्रेट द्वारा धारा 358 के अधीन अपीलार्थी का नाम अपराधियों के साथ जोड़े जाने से इनकार किया जाना उसे समन जारी न करना न्यायोचित था तथा उसने अपने विवेकाधिकार का दुरुपयोग नहीं किया था।

सुमन बनाम राजस्थान राज्य के वाद में सुप्रीम कोर्ट ने अभिकथन किया है कि यह धारा यह अनुज्ञा देती है कि किसी ऐसे नए व्यक्ति का नाम अभियुक्त के रूप में जोड़ा जा सकता है जिसके नाम का उल्लेख प्रथम इत्तला रिपोर्ट में था लेकिन पुलिस ने उसे अभियुक्त के रूप में आरोप पत्र में शामिल नहीं किया था। यदि मजिस्ट्रेट या कोर्ट जांच या विचारण के दौरान यह पाता है कि किसी नए व्यक्ति को अभियुक्त के रूप में बुलाकर उसका परीक्षण करने हेतु पर्याप्त कारण है तो ऐसे व्यक्ति को अभियुक्त के रूप में शामिल करके अभियुक्तों के साथ उसका विचारण कर सकेगा।

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