जानिए मुस्लिम लॉ में हिबा (गिफ्ट) का मूलभूत अर्थ, क्या हिबा रद्द किया जा सकता है?

Update: 2020-05-04 04:15 GMT

मुस्लिम लॉ में कोई भी मुस्लिम व्यक्ति अपनी संपत्ति का एक तिहाई हिस्सा ही वसीयत कर सकता है। ऐसा हिस्सा वह किसी बाहरी व्यक्ति को वसीयत कर सकता है, जो उत्तराधिकारी शरीयत द्वारा तय किए गए हैं, उन्हें वसीयत अन्य उत्तराधिकारियों की सहमति द्वारा ही की जा सकती है, परंतु मुस्लिम लॉ में हिबा नाम की एक व्यवस्था रखी गई है, जिसे दान या गिफ्ट कहा जाता है। मुस्लिम लॉ में संपत्ति को हिबा के माध्यम से दान किया जा सकता है।

हिबा क्या है-

हिबा, दान और गिफ्ट का ही एक रूप है जिसमें कोई व्यक्ति अपनी संपत्ति को किसी अन्य को दान करता है। कोई भी व्यक्ति अपने द्वारा अर्जित की गयी संपत्ति को किसी अन्य को जितनी चाहे उतनी हिबा कर सकता है।

एक मुसलमान व्यक्ति को अपनी संपत्ति को हिबा करने के अनियंत्रित अधिकार दिए गए हैं। हिबा की परिभाषा देते हुए मुल्ला ने कहा है कि- हिबा असल में संपत्ति का हस्तांतरण है।

मुल्ला की परिभाषा से मालूम होता है कि वे केवल हिबा को एक संपत्ति का हस्तांतरण बता रहे हैं। हिबा में किसी प्रकार का कोई प्रतिफल नहीं होता है।

जीवित दशा में हिबा-

वसीयत के द्वारा हिबा-

कोई भी मुसलमान अपने जीवन काल में अपनी संपूर्ण संपत्ति हिबा में दे सकता है और इस संबंध में उसके ऊपर मुस्लिम विधि का कोई भी प्रतिबंध नहीं है, लेकिन वसीयत के द्वारा अंतरण में एक तिहाई का प्रतिबंध लगा दिया गया है, क्योंकि वसीयत के द्वारा हिबा वसीयतकर्ता के मृत्यु के उपरांत प्रभावी होता है।

वी पी कथेसा उम्मा बनाम नारायन्नाथ कुम्हासा के मामले में निर्णय देते हुए माननीय न्यायधीश  जस्टिस हिदायतुल्लाह ने हिबा की परिभाषा करते हुए यह मत व्यक्त किया है कि हिबा किसी विशिष्ट वस्तु पर बिना एवज के अधिकार प्रदान करने को कहा जाता है। हिबा शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है किसी वस्तु का दान, जिससे दानग्राहीता को लाभ हो। इस प्रकार अंतरण तुरंत एवं पूर्ण 'तमलिक उल एन' होता है।

हिबा के आवश्यक तत्व-

मुस्लिम विधि में हिबा अवधारणा के कुछ आवश्यक तत्व निकल कर सामने आते हैं।

हिबा में दो पक्षकार होते हैं। एक वह जो हिबा करता है और दूसरा वह जो हिबा को स्वीकार करता है। दाता और उपहारग्रहिता।

कौन व्यक्ति है जो हिबा कर सकता है-

हिबा करने वाले व्यक्ति को दाता कहा जाता है तथा दाता की कुछ अर्हताएं हैं, मुस्लिम विधि में दी गई हैं जो कि निम्न हैं-

वयस्कता-

मुस्लिम विधि में 15 वर्ष को युवावस्था माना गया है, परंतु भारतीय वयस्कता अधिनियम के कारण 18 वर्ष की आयु को ही वयस्कता का प्रमाण माना गया है। कोई भी वह मुसलमान व्यक्ति जो 18 वर्ष की आयु पूरी कर चुका है, वह हिबा कर सकता है।

स्वास्थ्यचित-

कोई भी स्वस्थ चित्त मुसलमान व्यक्ति हिबा कर सकता है। वह ऐसे समय हिबा कर सकता है जब वह स्वास्थ्यचित का हो।

स्वतंत्रता-

उपहारदाता की स्वतंत्र इच्छा से दिया जाए तब ही वैध होगा। दबाव, असम्यक असर या मिथ्या व्यापदेशन से प्रभावित उपहार मान्य नहीं होगा। महबूब खां बनाम अब्दुल रहीम ए आई आर 1964 के मामले में यह बात कही गयी है कि कोई भी हिबा पूर्ण रूप से स्वतंत्र होना चाहिए।

अंतरण की विषय वस्तु का स्वामित्व-

कोई व्यक्ति केवल उसी संपत्ति को उपहार में दे सकता है, जिसका वह स्वामी हो। ऐसी संपत्ति जो किसी दूसरे के स्वामित्व में है उपहार की वस्तु नहीं बन सकती है। किसी मकान का किराएदार उस किराए के मकान का दान नहीं कर सकता है।

हिबा की विषय वस्तु-

सामान सिद्धांत यह है कि उस वस्तु का दान हो सकता है-

जिस पर स्वामित्व संपत्ति के अधिकार का प्रयोग किया जा सके।

जिस पर कब्जा किया जा सके।

जिसका अस्तित्व किसी विशिष्ट वस्तु निष्पादन अधिकार के रूप में हो।

जो माल शब्द के भीतर आती हो।

इस्लाम में चल और अचल संपत्ति जैसा कोई विभेद नहीं रखा गया है सभी प्रकार की संपत्तियों को वहां माल कहा जाता है।

हिबा और वसीयत में अंतर-

हिबा और वसीयत में सबसे मूल अंतर यह है कि हिबा कोई भी मुसलमान व्यक्ति अनियंत्रित अधिकार के साथ कर सकता है, परंतु वसीयत केवल एक तिहाई संपत्ति के लिए कर सकता है।

हिबा जीवित रहते करना होता है और हिबा के जो परिणाम आते हैं वह जीवित रहते ही हैं। वसीयत में वसीयत के परिणाम वसीयत करने वाले की मृत्यु के बाद आते हैं जैसे वसीयत को तभी निष्पादित करवाया जा सकता है, जब वसीयत करने वाला मर गया हो जबकि हिबा को तुरंत प्रभाव में दिया जाता है। हिबा में तुरंत संपत्ति का अंतरण कर दिया जाता है उसकी उसका परिदान कर दिया जाता है।

मौखिक भी हो सकता है हिबा-

मुस्लिम विधि में हिबा के प्रारूप में हिबा को मौखिक भी बताया है। कोई व्यक्ति अपनी संपत्ति का हिबा मौखिक भी कर सकता है। जी मुज़ीर अहमद बनाम मोहम्मद जफरउल्लाह के वाद में इस बात को स्वीकार किया गया है कि मौखिक हिबा मुस्लिम विधि का अहम हिस्सा है। कोई भी मुसलमान व्यक्ति अपनी संपत्ति को मौखिक तौर पर भी हिबा कर सकता है।

कुछ मुस्लिम धर्म गुरुओं के अनुसार धार्मिक हिबा मौखिक किया जा सकता है परंतु सेकुलर हिबा का रजिस्ट्रेशन आवश्यक है। सेकुलर हिबा उसे कहा जाता है जैसे एक व्यक्ति द्वारा किसी अन्य व्यक्ति को कोई भूमि का टुकड़ा दान कर देना और धार्मिक हिबा उसे कहा जाता है जिसमें एक व्यक्ति अपने स्वामित्व की कोई संपत्ति किसी धार्मिक कामकाज में दान कर रहा है। इंडियन रजिस्ट्रेशन एक्ट 1908 में हिबा को रजिस्ट्रेशन से छूट दी गयी है।

कमरुन्निसा बीबी बना हुसैनी बीबी के मुकदमे में इस बात को स्वीकार किया गया है कि हिबा में रजिस्ट्रेशन की आवश्यकता नहीं है, परंतु बाद में अचल संपत्ति के हिबा में हस्तांतरण का रजिस्ट्रेशन आवश्यक कर दिया गया।

हिबा करने का क्रम-

मुस्लिम विधि में हिबा करने की क्रिया में एक व्यवस्थित क्रम दिया गया है या फिर इसे भी हिबा के आवश्यक तत्व माने जा सकते हैं, जिसमें निम्न क्रम है-

हिबा की घोषणा-

दाता का हिबा करने का स्पष्ट आशय होना चाहिए। जब हिबा करने वाले की ओर से वास्तविक या सद्भावनापूर्ण आशय है न हो तो हिबा शून्य माना जाएगा। यह बात वाटसन एंड कंपनी बनाम रामचंद्र दत्त के मामले में कही गयी है।

महबूब साहब बनाम सैयद इस्माइल के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा है कि

'मुस्लिम विधि द्वारा किए गए दान का लिखित होना और फलस्वरुप उसका पंजीकरण होना आवश्यक नहीं है। वैध दान के लिए दान करता द्वारा घोषणा दानग्रहिता द्वारा या उसके नाम पर दान को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से स्वीकार किया जाना, कब्जा देना आवश्यक है। दानग्रहिता संपत्ति का कब्जा वास्तव में यहां पर लिखित रूप में ग्रहण कर सकता है यदि उक्त आवश्यक तत्व सिद्ध हो जाते हैं तो दान वैध होगा।

हिबा की स्वीकृति या उसे कबूल किया जाना-

यह हिबा के क्रम में दूसरा क्रम माना जाता है। कमरुन्निसा बनाम हुसैनी बीबी के वाद में दानग्रहीता द्वारा या उसकी ओर से हिबा की स्वीकृति होना आवश्यक है। जहां किसी पिता या अन्य संरक्षक ने अपने पुत्र या किसी प्रतिपाल्य के पक्ष में दान किया हो वहां स्वीकृति आवश्यक नहीं है। यह बात ऊपर वर्णित मुकदमे में कही गयी है।

यदि दान की घोषणा तथा स्वीकृति शब्दों में ना किए जाएं परंतु पक्षकारों के आचरण से स्पष्ट हो तो भी यही बाकी मान्यता के लिए पर्याप्त होता है। हिबा का कबूल किया जाना नितांत आवश्यक होता है यदि हिबा कबूल नहीं किया जाता है तो वह शून्य होगा।

कब्जे का परिदान-

यह हिबा का महत्वपूर्ण पक्ष है, जिसमें हिबा की जाने वाली संपत्ति का परिदान आवश्यक होता है। यह हिबा की मान्यता के लिए तीसरा आवश्यक तत्व है। यदि हिबा करते समय उसका कब्जा नहीं दिया गया है तो हिबा मान्य नहीं होगा। इस स्थान पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि हिबा संबंधी मुस्लिम विधि के अंतर्गत कब्जा शब्द का अर्थ केवल ऐसा कब्जा है जिसे की विषय वस्तु की प्रकृति के अनुसार संभव हो।

इस प्रकार कब्जे के परिदान की वास्तविक परीक्षा यह देखने में है कि दाता या दानग्रहिता में से कौन दान की संपत्ति का लाभ उठाता है। यदि दाता लाभ उठाता है तो कब्जे का अंतरण नहीं हुआ यदि दानग्रहीता ऐसा लाभ उठाता है तो उसका अंतरण हो गया और हिबा पूर्ण हो गया।

यहां पर एक अपवाद है और मुस्लिम विधि में छूट दी गयी है कि नजदीकी नातेदारों में यदि कोई हिबा किया जाता है तो संपत्ति का परिधान आवश्यक नहीं है। जैसे कोई मां अपने पुत्र को हिबा करती है और मां वह हिबा करने वाली वस्तु का उपयोग भी कर रही है, ऐसी परिस्थिति में हिबा पूर्ण माना जाएगा क्योंकि दोनों साथ ही रहते हैं।

हिबा का रद्द किया जाना (Revocation)-

मुस्लिम विधि में सभी स्वेच्छा से किए गए संव्यवहार प्रतिसंहरणीय होते है। सुन्नी हनफी विधि में हिबा को रद्द किया जा सकता है जबकि पैगंबर मोहम्मद साहब की परंपरा के कारण इसे घृणित काम माना गया है। कोई भी दान देखकर वापस लिया जाना पैगंबर मोहम्मद साहब की नजर में अत्यंत घृणित काम है।

शिया विधि में दान को रद्द करना घृणित नहीं माना जाता है और घोषणा मात्र से दाता दान को वापस ले सकता है या दान को निरस्त कर सकता है। हनफ़ी सुन्नी विधि के अनुसार एक दान को न्यायालय द्वारा निरस्त किया जा सकता है। हनफी विधि केवल घोषणा के आधार पर दान को निरस्त करने की आज्ञा नहीं देती है। वह इसमें न्यायालय के हस्तक्षेप को महत्वपूर्ण मानती है।

परिदान के पहले हिबा को रद्द करना-

परिदान के पहले कभी भी हिबा को रद्द किया जा सकता है, क्योंकि अभी हिबा पूर्ण ही नहीं हुआ है। परिदान होने के बाद ही हिबा पूर्ण होता है।

कब्जे के परिदान के बाद-

कब्जे के परिधान के बाद भी दाता को हिबा के प्रतिसंहरण का अधिकार होता है। केवल इस अंतर के साथ कि उस स्थिति में उसे दान ग्रहिता की सहमति या न्यायालय में यथा विधि डिक्री प्राप्त करनी होगी।

न्यायालय सिवाय निम्नलिखित अवस्थाओं के डिक्री प्रदान कर देगा कुछ दशाएं ऐसी है जिसमें हिबा को रद्द नहीं किया जा सकता है वह निम्न में हैं-

जब दाता की मृत्यु हो गई हो।

जब दानग्रहिता की मृत्यु हो गई हो।

जब दानग्रहिता का दाता से रिश्ता निषिद्ध आसक्ति के भीतर हो जैसे भाई और बहन।

जब दाता और दानग्रहिता का वैवाहिक संबंध हो जैसे पति और पत्नी के रूप में।

जब दानग्रहिता ने विषय वस्तु का विक्रय, हिबा या अन्य रूप में अंतरण कर दिया हो।

जब विषय वस्तु खो गयी हो नष्ट हो गयी हो या उसमें ऐसा परिवर्तन हो गया हो कि उसकी पहचान ना हो सके।

जब विषय वस्तु के मूल्य में वृद्धि हो और वह वस्तु से अलग न की जा सके।

जब हिबा 'सदका' हो।

जब बदले में कोई चीज स्वीकार कर ली गयी हो।

हिबा अवस्थाओं से मालूम होता है कि कोई भी दान करने वाला व्यक्ति केवल स्वयं ही दान दी गयी वस्तु को प्राप्त कर सकता है और दान को रद्द कर सकता है परंतु उसमें भी अनेक विकृतियां होती है।

हिबा संबंधी मुस्लिम विधि के दूसरे प्रावधानों पर अगले लेख में चर्चा की जाएगी तथा हिबा के विशेष प्रकार बताए जाएंगे। 

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