दिव्यांगजनों के लिए कानूनी ढांचे का विकास (Evolution of Legal Framework for Persons with Disabilities)
भारत ने दिव्यांगजनों (PwD - Persons with Disabilities) के अधिकारों को संरक्षित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय समझौतों का अनुसरण किया। 1992 में बीजिंग में हुए "प्रोक्लेमेशन ऑन फुल पार्टिसिपेशन एंड इक्वलिटी ऑफ पीपल विद डिसेबिलिटीज" को अपनाया और 2007 में "संयुक्त राष्ट्र दिव्यांग अधिकार समझौते (UNCRPD - United Nations Convention on the Rights of Persons with Disabilities)" की पुष्टि की।
इन पहल के आधार पर भारत ने 1995 में दिव्यांगजन अधिनियम (Persons with Disabilities Act, 1995) लागू किया। यह अधिनियम 7 फरवरी, 1996 से प्रभावी हुआ। हालांकि, यह अधिनियम 2016 में एक व्यापक और अद्यतन अधिनियम दिव्यांग अधिकार अधिनियम, 2016 (Rights of Persons with Disabilities Act, 2016) द्वारा प्रतिस्थापित (Replaced) कर दिया गया।
1995 का अधिनियम धारा 33 (Section 33) के तहत दिव्यांगजनों के लिए 3% आरक्षण की गारंटी देता है। लेकिन, पदोन्नति (Promotion) में आरक्षण को स्पष्ट रूप से शामिल नहीं किया गया, जिससे कई विवाद खड़े हुए।
पदोन्नति में आरक्षण पर न्यायिक व्याख्या (Judicial Interpretation on Reservation in Promotions)
1995 के अधिनियम के तहत यह सवाल बना रहा कि क्या यह पदोन्नति में आरक्षण की अनुमति देता है। इस मामले पर अदालतों ने महत्वपूर्ण फैसले दिए, जो इस विषय को स्पष्ट करते हैं।
राजीव कुमार गुप्ता बनाम भारत संघ (Rajeev Kumar Gupta v. Union of India, 2016) में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि पदोन्नति में भी दिव्यांगजनों को आरक्षण मिलना चाहिए। अदालत ने कहा कि दिव्यांगजनों को पदोन्नति से वंचित करना संविधान और अधिनियम के उद्देश्यों का उल्लंघन होगा।
इस फैसले को सिद्धराजू बनाम कर्नाटक राज्य (Siddaraju v. State of Karnataka, 2020) में भी समर्थन मिला। अदालत ने यह भी कहा कि यह मामला संविधान के आरक्षण से जुड़े दिशा-निर्देशों (Guidelines) जैसे इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (Indra Sawhney v. Union of India, 1992) से अलग है।
इन फैसलों ने यह सुनिश्चित किया कि दिव्यांगजनों को उनकी शारीरिक स्थिति के कारण करियर के अवसरों से वंचित नहीं किया जा सकता।
धारा 32 और 33 का संबंध (Interplay Between Sections 32 and 33)
1995 का अधिनियम धारा 32 (Section 32) के तहत सरकार को उन पदों की पहचान करने के लिए निर्देशित करता है, जिन पर दिव्यांगजनों का आरक्षण दिया जा सकता है। वहीं, धारा 33 (Section 33) यह सुनिश्चित करता है कि पहचाने गए पदों पर कम से कम 3% आरक्षण लागू हो।
लेकिन व्यावहारिक रूप से, अक्सर इन पदों की पहचान में देरी हुई, जिससे दिव्यांगजनों को उनके अधिकारों से वंचित किया गया।
भारत सरकार बनाम रवि प्रकाश गुप्ता (Government of India v. Ravi Prakash Gupta, 2010) और भारत संघ बनाम नेशनल फेडरेशन ऑफ ब्लाइंड (Union of India v. National Federation of Blind, 2013) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पदों की पहचान में देरी अधिनियम के तहत अधिकारों को कमजोर करती है। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि धारा 32 का उद्देश्य अधिकारों को बाधित करना नहीं बल्कि उन्हें सुगम बनाना है।
2016 के अधिनियम का प्रभाव (Impact of the 2016 Act)
दिव्यांग अधिकार अधिनियम, 2016 ने आरक्षण को बढ़ाकर 4% कर दिया और इसमें नई दिव्यांग श्रेणियां (Categories) जोड़ी गईं। धारा 34 (Section 34) के तहत यह स्पष्ट किया गया कि पदोन्नति में आरक्षण भी लागू होगा और इसे लागू करने के लिए सरकार निर्देश जारी करेगी।
इस अधिनियम ने "रीज़नेबल अकोमोडेशन (Reasonable Accommodation)" की अवधारणा पेश की, जो दिव्यांगजनों के लिए उनके काम के स्थानों पर उपयुक्त संशोधन (Appropriate Modifications) और अनुकूल वातावरण (Conducive Environment) सुनिश्चित करता है। यह एक प्रगतिशील कदम है, जो रोजगार और पदोन्नति में आने वाली बाधाओं को दूर करने का प्रयास करता है।
कार्यान्वयन में चुनौतियां (Challenges in Implementation)
हालांकि न्यायालयों और कानून ने दिव्यांगजनों के अधिकारों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया है, लेकिन इनके क्रियान्वयन में अभी भी चुनौतियां हैं। इस फैसले में कहा गया कि कई सरकारी संस्थान पदों की पहचान करने में देरी करते हैं, जिससे आरक्षण का लाभ नहीं मिल पाता।
अदालत ने यह भी कहा कि दिव्यांगजनों को पदोन्नति से वंचित करना संविधान के अनुच्छेद 14, 15, और 16 (Articles 14, 15, and 16) का उल्लंघन है। नेशनल कॉन्फेडरेशन फॉर डेवलपमेंट ऑफ डिसेबल्ड बनाम भारत संघ (National Confederation for Development of Disabled v. Union of India, 2015) में बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा कि पदोन्नति में आरक्षण देना सरकार की जिम्मेदारी है।
न्यायालय द्वारा उठाए गए प्रमुख मुद्दे (Key Issues Addressed by the Court)
इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निम्नलिखित सवालों पर निर्णय दिया:
1. क्या 1995 का अधिनियम पदोन्नति में आरक्षण का आदेश देता है?
अदालत ने पुष्टि की कि अधिनियम का उद्देश्य दिव्यांगजनों को पदोन्नति में आरक्षण देना है। इसे नकारना कानून और संविधान के उद्देश्यों के खिलाफ है।
2. क्या पदों की पहचान के बिना आरक्षण लागू किया जा सकता है?
अदालत ने कहा कि पदों की पहचान जरूरी है, लेकिन इसकी अनुपस्थिति आरक्षण को अस्वीकार करने का आधार नहीं हो सकती।
3. क्या भर्ती के तरीके से पदोन्नति का अधिकार प्रभावित होता है?
अदालत ने स्पष्ट किया कि किसी व्यक्ति का सेवा में प्रवेश (Entry Point) उसकी पदोन्नति के अधिकार को प्रभावित नहीं कर सकता। महत्वपूर्ण यह है कि वह पदोन्नति के समय दिव्यांग है या नहीं।
यह फैसला दिखाता है कि न्यायपालिका दिव्यांगजनों को समानता और गरिमा (Equality and Dignity) सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध है। अदालत ने कहा कि पदोन्नति में आरक्षण सिर्फ एक कानूनी अधिकार नहीं, बल्कि एक संवैधानिक दायित्व (Constitutional Obligation) है।
सरकार को चाहिए कि वह दिव्यांगजनों के लिए पदों की पहचान और संशोधन के साथ आरक्षण को लागू करने में देरी न करे।
यह निर्णय दिव्यांगजनों को उनके करियर में प्रगति और समाज में समान भागीदारी (Equal Participation) का रास्ता सुनिश्चित करता है।