किसी भी एक्ट में शुरुआत की धाराओं में ऐसे शब्दों की परिभाषाएं प्रस्तुत कर दी जाती है जिससे उन शब्दों का खुलासा हो जाए। इस एक्ट में भी कुछ ऐसे शब्द हैं जिन्हें सेक्शन 2 में विशेष तौर पर बताया गया है।
आर्बिटेशन
धारा 2 (1) (a) के अनुसार आर्बिटेशन से अभिप्रेत है कोई भी मध्यस्थ चाहे स्थाई मध्यस्थता संस्था द्वारा प्रायोजित किया जाये या न किया जाये।
इस परिभाषा में वे व्यक्ति भी शामिल हैं जो व्यक्तिगत पक्षकारों के स्वैच्छिक करार पर आधारित हो या विधि के प्रावधानों के फलस्वरूप अस्तित्व में आये हों। पर परिभाषा यह नहीं बताती है कि कौन मध्यस्थ है बल्कि यह उल्लेखित करती है कि कौन-कौन मध्यस्थ हैं। पुराने अधिनियम में भी मध्यस्थ की परिभाषा नहीं दी गई थी।
सामान्य भाषा में मध्यस्थता का अर्थ पक्षकारों के पारस्परिक समझ अथवा करार द्वारा विवादों या मतभेदों के उस हल या समझौते से है जिसके द्वारा पक्षकारों के अधिकारों तथा दायित्वों का निर्धारण हुआ हो। मध्यस्थता का एक अर्थ यह है कि पक्षकारों के अधिकार तथा दायित्व को ध्यान में रखकर कोई ऐसा निर्णय करने वाली संस्था या व्यक्ति है जो दोनों पक्षकारों के मध्य तारतम्य स्थापित कर सकें।
बालमुकुद पांडे बनाम वी के सिंह ए आई आर 2010 के मामले में कहा गया है कि मध्यस्थ की नियुक्ति के लिए तथ्य मध्यस्थता आवेदन प्रस्तुत किया जिस के अनुसरण में एकमात्र मध्यस्थ को नियुक्त किया गया। यह कथित तारीक से स्पष्ट है कि जब पक्षों ने मध्यस्थता कार्यवाही के लिए विवाद को निर्दिष्ट करने के लिए निवेदन किया तब अधिनियम 1940 का प्रवर्तन बंद हो गया था तथा अधिनियम 1996 प्रवर्तनीय हो गया।
अतएव मध्यस्थता अधिनियम 1996 के उपबंधों के अधीन याची के दावे को ग्रहण करने में सही ढंग से जारी किया अधिनियम मध्यस्थता कार्यवाहियों को व्यवस्थित करने के लिए माध्यस्थम अधिकरण को सशक्त करती है। जहां दावेदार बगैर कारण दर्शित किए बिना धारा 23 की उपधारा 1 के अनुसार दावे के अपने कथनों को संसूचित करने में असमर्थ हो जाता है।
इस अधिनियम में मध्यस्थता की स्पष्ट परिभाषा तो नहीं मिलती है परंतु इतना समझा जा सकता है कि पक्षों के बीच समझौता कराने वाली हर संस्था या व्यक्ति माध्यस्थम है, जैसे कि इस अधिनियम के अंतर्गत बनाए गए मध्यस्थता अधिकरण।
आर्बिटेशन एग्रीमेंट
धारा 2 (1) (b) में आर्बिटेशन एग्रीमेंट उल्लेखित किया गया है कि आर्बिटेशन एग्रीमेंट से अभिप्राय धारा 7 में निर्देशित किये गये एक करार से है।
इस प्रकार यह धारा मध्यस्थता करार को परिभाषित नहीं करती है बल्कि यह उल्लेखित करती है कि माध्यस्थम् करार का वही अर्थ है जो कि अधिनियम की धारा 7 में बताया गया है। धारा 7 के अनुसार "मध्यस्थता करार" मध्यस्थ को उन सभी या कुछ विवादों को मध्यस्थता द्वारा निपटान करने के लिये पक्षकारों द्वारा एक करार से अभिप्रेत है जो उद्भूत हो गये हैं या उद्भूत हो सकते हैं।
मध्यस्थता करार व्यापारिक संविदा के अन्तर्गत एक प्राविधान के रूप में हो सकता है या दोनों पक्षों के द्वारा मध्यस्थता का आशय रखने के कारण आपसी पत्र व्यवहार के टेलेक्स, टेलीफोन, टेलीग्राम या अन्य संचार माध्यमों के द्वारा जहाँ बातचीत का रिकार्ड मिल सके, में भी मध्यस्थता करार मान लिया जाता है। माध्यस्थम करार का कोई प्रारूप नहीं निश्चित हैं परन्तु यह लिखित होना चाहिए। किन्तु किसी रजिस्टर्ड सोसाइटी के संविधान में मध्यस्थता का उल्लेख मध्यस्थम करार नहीं माना गया है।
इस अधिनियम की धारा 7 से संबंधित एक प्रकरण में कहा गया है कि जहां उन्हें ज्ञात सर्वोत्तम कारणों से एक करार उनके द्वारा सम्मानित किए जाने के लिए प्रस्तावित एक कंपनी की ओर से पंप होटल्स लिमिटेड के प्रवर्तकों द्वारा नहीं किया गया अपितु एक अस्तित्व स्टील कंपनी होने का दावा करने वाली एक गैर अस्तित्व स्टील कंपनी द्वारा किया गया था वहां यह माना गया है कि पक्षकारों के बीच कोई मध्यस्थता करार नहीं किया गया।
विजय कुमार शर्मा बनाम रघुनंदन शर्मा 2010 के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मध्यस्थता करार को लिखित एवं पक्षकारों द्वारा हस्ताक्षरित होना चाहिए। जिसमें यह लिखा होना चाहिए की पक्षकारों के बीच विवाद को निर्दिष्ट किया जाना चाहिए तथा मध्यस्थ द्वारा निर्णीत किया जाना चाहिए। मध्यस्थता के लिए करार की अनुपस्थिति में चीफ जस्टिस के नाम निर्देशित ने यह कल्पना कर धारा 11(6) सहपठित धारा 14(1) और 15( 2) के अधीन दाखिल किए गए नए मध्यस्थ की नियुक्ति करने के लिए आवेदन पत्र अनुज्ञात करने में गंभीर गलती की थी कि बिल में ऐसा पैरा एक मध्यस्थता करार था।
मध्यस्थता करार के अभाव में किसी भी विवाद के मध्यस्थता को निर्देशित करना संभव नहीं होता है। एक प्रकरण में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जहां संविदा के पक्षकारों ने लिखित रूप से यह कर दिया कि संविदा का पूर्णतः या अंतिम रूप से उन्मोचन कर दिया गया। कोई दावा या विवाद था वहां मध्यस्थता खंड का अवलंब नहीं किया जा सकता क्योंकि पंचाट योग्य विवाद उत्तरजीवी नहीं रहता।
इस मामले में पूरक करार मूल करार के अधीन पूर्ण एवं अंतिम निपटारे के लिए मध्यस्थता खंड को सम्मिलित कर संविदा के उन्मूलन के लिए पक्षकारों के बीच हुआ संपूर्ण रकम की प्राप्ति पूरक करार के निष्पादन का दमन करके प्रत्यर्थी संविदाकर्ता मध्यस्थम को विवादों के निर्देश के लिए हाई कोर्ट के समक्ष आवेदन पत्र दाखिल किया और तथ्यों का मूल्यांकन किए बिना हाई कोर्ट मार्गदर्शन के मध्यस्थता के लिए मामले को निर्देशित किया और इसलिए हाई कोर्ट के आदेश को अपास्त कर दिया।
मध्यस्थता पंचाट (Arbitral Award)
धारा 2 (1) (c) के अनुसार "मध्यस्थ पंचाट" के अन्तर्गत एक अन्तरिम पंचाट सम्मिलित है।
यह धारा "मध्यस्थता पंचाट" को परिभाषित नहीं करती बल्कि यह बताती है कि माध्यस्थम् पंचाट में अन्तरिम पंचाट भी शामिल है।
इस प्रकार मध्यस्थता पंचाट में दो भाग है-
1-अन्तरिम पंचाट
2- अन्तिम पंचाट
सामान्य तौर पर मध्यस्थ पंचाट पक्षकारों द्वारा चयनित न्यायाधिकरण के द्वारा अन्तिम अन्तरिम निर्णय या अविनिश्चिय होता है जो संविदा से पैदा होता है। भारत संघ बनाम जे० एन० मिश्र, AIR 1970 SC 753 के मामले में उच्चतम ने अभिनिर्धारित किया कि अन्तिम पंचाट पर पहुंचने से पहले मध्यस्य से यह अपेक्षा की जाती है कि उसने दावों तथा प्रतिदावों पर अर्द्धन्यायिक रूप से विचार किया हो।
पंचाट मध्यस्थता द्वारा दिया गया अधिनिर्णय हैं। इस प्रकार के अधिनिर्णय को अपास्त भी किया जा सकता है। एक मामले में कहा गया है कि परिसीमा अधिनियम की धारा 5 के प्रावधानों के लागू होने पर वहां जोर नहीं दिया जा सकता जहां अधिनियम 1996 की धारा 34 के अधीन विलंबित आवेदन पत्र दाखिल किया गया। वहां अधिनियम 1996 के अधीन पारित किए गए एक अधिनिर्णय को अपास्त करने का अधिकार एक वह कानूनी अधिकार है जिसका प्रयोग कथित अधिनियम के उपबंधनों में यथावत प्रयोग किया जाना पड़ता है।
अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता
धारा 2 (1) (1) के अनुरूत अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्य मध्यस्य विधिक नातेदारी से उद्भूत होने वाले विवादों से सम्बन्धित एक मध्यस्थता है चाहे भारत को लागू किसी विधि के अधीन वाणिज्यिक के समान मानस जाये और वहाँ पक्षकारों में कम से कम एक हो।
एक व्यक्ति जो भारत से भिन्न किसी दूसरे देश का आभ्यासिक तौर पर निवासी हो या नागरिक हो,
एक निगमित निकाय जिसे भारत से भिन्न किसी दूसरे देश में सम्मिलित किया जाता हो, या
एक कम्पनी या एक संगम या उन व्यक्तियों का निकाय जिसका केन्द्रीय प्रबन्धन और नियंत्रण भारत से भिन्न किसी देश से किया जाता हो।
अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्य करार के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट द्वारा कहा गया है कि करार के दो वर्णित वर्गों के दूसरे के अधीन आने वाला प्रतीत होता है। मूल संविदा कोई निशान नहीं होता करार एक से अद्भुत होने वाली पारस्परिक उपबंधनो का अभिपालन किया जाना होता है।
दूसरी ओर अमेरिकी कंपनी के विरुद्ध करार अद्भुत होने वाली बाध्यता को परिवर्तित करने के लिए अधिकार को करार दो के अधीन एक अभिव्यक्त प्रसंविदा द्वारा करार करता है। करार दो संभवत वहां एक अभिकरण का सृजन करता है जहां कि अमेरिकी कंपनी मूल है और प्रत्यर्थी का अभिकर्ता है।
यह वह है जिसका प्रतिनिधि पालन के लिए एक करार या उपसंविदा करने वाले के रूप में कतिपय मामलों में उल्लेख किया जाता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस बात को बढ़ाने में शीघ्रता करता है कि सुप्रीम कोर्ट इस प्रश्न पर कोई निश्चयात्मक राय नहीं अभिव्यक्त कर सकता क्योंकि कोई भी तर्क इस निमित्त सुप्रीम कोर्ट के समक्ष किसी भी ओर से नहीं किया गया था।
बार काउंसिल ऑफ इंडिया बनाने के बालाजी एआईआर 2018 सुप्रीम कोर्ट 1382 के मामले में कहा गया है यदि अधिनियम के प्रावधान लागू होते हैं तो विदेशी अधिवक्ताओं को अधिवक्ता अधिनियम की धारा 32 और 33 को ध्यान में रखते हुए मध्यस्थता कार्यवाही से वर्जित कर दिया जाता है तो भारतीय विधिक परिषद तथा केंद्रीय सरकार को इस बारे में नियम बनाने की स्वतंत्रता होती है।
विधिक प्रतिनिधि
धारा 2 (1) (g) के अनुसार ''विधिक प्रतिनिधि" से ऐसा व्यक्ति अभिप्रेत है जो वैधानिक तौर से मृतक व्यक्ति की सम्पदा का प्रतिनिधित्व करता है और जहाँ एक प्रतिनिधि को हैसियत या प्रकृति में कार्य करता है वहाँ वह व्यक्ति जिसमें सम्पदा के व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर न्यागत हो जाती है।
परिभाषा के अनुसार निम्नलिखित व्यक्ति प्रतिनिधि की परिभाषा में आते हैं-
ऐसा व्यक्ति जो मृतक की सम्पदा का प्रतिनिधित्व करता हो।
ऐसा व्यक्ति को मृतक की सम्पदा में हस्तक्षेप करता हो।
ऐसे विधिक प्रतिनिधि का प्रतिनिधि।
न्यायालय
धारा 2 (1) (c) के अनुसार-"न्यायालय" एक जिले में प्रारम्भिक अधिकारिता अभिप्रेत वह प्रधान न्यायालय है और इसमें समाविष्ट है हाई कोर्ट जिसे अपने सामान्य आरम्भिक सिविल अधिकारिता के प्रयोग में माध्यस्थम् की विषय वस्तु सम्बन्धी प्रश्नों को विनिश्चित करने की अधिकारिता है। यदि यह किसी याद को विषयवस्तु होती. परन्तु न्यायालय के परिप्रेक्ष्य में प्रधान न्यायालय में निम्न श्रेणी के न्यायालय या लघुवाद न्यायालय सम्मिलित नहीं है।
परिभाषा के अनुसार न्यायालय के निम्नलिखित गुण होने चाहिये 1. न्यायालय एक दीवानी (Civil) न्यायालय होना चाहिये।
2. मध्यस्थता के लिये निर्देशित की गई विषयवस्तु के सम्बन्ध सुलझाने का क्षेत्राधिकार होना चाहिये।
वाद को न्यायालय के क्षेत्राधिकार के लिए यह आवश्यक नहीं है कि सम्पूर्ण विषयवस्तु उसी के क्षेत्राधिकार में उत्पन्न हुई हो। यदि पक्षकार उसकी सीमा में रहते हैं या विवादग्रस्त सम्पत्ति उसके स्थानीय क्षेत्राधिकार में है तो उसी न्यायालय का क्षेत्राधिकार माना जायेगा।
परिभाषा के अनुसार मुख्य दीवानी स्तर के न्यायालय से निम्न न्यायालय तथा लघुवाद न्यायालय नहीं माना जायेगा। जिला न्यायालय प्रमुख दीवानी न्यायालय होता है। इस न्यायालय तथा उसके ऊपर के न्यायालय इस धारा में न्यायालय माने जाते हैं।