सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 2 वादों की विरचना से संबंधित है। इस आदेश में यह बताया गया है एक वाद किस प्रकार से रचित किया जाएगा। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 2 के नियम 3 से लेकर नियम 7 तक के प्रावधानों पर चर्चा की जा रही है। आदेश 2 के अंतर्गत कुल 7 नियम है, नियम 1 एवं नियम 2 पर पिछले आलेखों में चर्चा की जा चुकी है।
नियम 3 के दो अपवाद हैं, जो नियम 4 व 5 में दिये गये हैं।
नियम 3 वाद-हेतुकों का संयोजन-
(1) उसके सिवाय जैसा अन्यथा उपबन्धित है, वादी उसी प्रतिवादी या संयुक्ततः उन्हीं प्रतिवादियों के विरुद्ध कई वाद हेतुक एक ही वाद में संयोजित कर सकेगा और ऐसे वाद हेतुक रखने वाले कोई भी वादी जिनमें वे उसी प्रतिवादी या संयुक्ततः उन्हीं प्रतिवादियों के विरुद्ध संयुक्ततः हितबद्ध हों, ऐसे वादहेतुकों को एक ही वाद में संयोजित कर सकेंगे।
(2) जहाँ वादहेतुक संयोजित किए जाते हैं, वहां वाद के संबंध में न्यायालय की अधिकारिता संकलित विषय-वस्तुओं की उस रकम या मूल्य पर निर्भर होगी जो वाद के संस्थित किए जाने की तारीख पर है।
वादहेतुकों के संयोजन में पक्षकारों (वादी और प्रतिवादी) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। पक्षकारों के संयोजन के नियम संहिता के आदेश 1 के नियम 1 और 3 में दिये गये हैं।
नियम 3 में शब्दावली उसके सिवाय जैसा अन्यथा उपबन्धित है का प्रयोग किया गया है, अतः नियम 3 को नियम 4 तथा 5 के अधीन पढ़ा जावेगा। इस प्रकार नियम 4 तथा 5 नियम 3 के अपवाद हैं। फिर आगे नियम 6 और 7 को भी इस नियम के साथ पढ़ना होगा, जो इनके प्रभाव को विनियमित करते हैं।
नियम 3 की अपेक्षायें इस नियम के आरम्भ में शब्दावली उसके सिवाय जैसा अन्यदा उपबन्धित है का प्रयोग किया गया है। अतः यह नियम आदेश 2 के नियम 4 से 7 के तथा 1 व 2 के अध्यधीन ही प्रयोग में लाया जा सकेगा तथा आदेश 1 के नियम 1 व 3 को भी इसके साथ पढ़ना होगा, जैसा की ऊपर बताया गया है। इसकी अपेक्षायें इस प्रकार हैं-
(i) जहाँ एक वादी हो, वह ही प्रतिवादी हो और दो से अधिक वादहेतुक हो तो वादी एक ही वाद में उस प्रतिवादी के विरुद्ध अनेक वादहेतुकों का संयोजन कर सकेगा। परन्तु इससे नियम 4 व 5 का उल्लंघन नहीं होना चाहिए। यदि ये वाददहेतुक अस्त-व्यस्त हो और उलझन या विलम्ब करते हों, तो न्यायालय नियम 6 के अधीन अलग विचारण का आदेश दे सकेगा। किसी विशेष विधि के उपबन्ध द्वारा वाद हेतुकों के संयोजन का निषेध भी किया जा सकता है।
(ii) जहां दो या अधिक वादीगण हों और दो या अधिक वादहेतुक हों, तो वे वादी एक संयुक्त वाद ला सकते हैं यदि अनुतोष का अधिकार और वादहेतुक एक समान कार्य या संव्यवहार से पैदा होते हों और उनसे विधि या तथ्य का समान प्रश्न उठता हो, चाहे वे संयुक्त रूप से सभी वादहेतुकों में हितबद्ध न हों। परन्तु यदि उस अनुतोष के दावे का अधिकार उस एक समान कार्य या संव्यवहार से उत्पन्न नहीं होता हो और न कोई विधि या तथ्य का समान प्रश्न उठता हो, तो वे वादी एक संयुक्त वाद नहीं ला सकेंगे, यदि वे वादहेतुकों में संयुक्त हित बद्ध नहीं हो।
(क) जहां दो या अधिक प्रतिवादी और कई वादहेतुक हो, तो वादी उन समान प्रतिवादियों के विरुद्ध संयुक्त रूप से कई वादकों पर एक ही वाद ला सकेगा। यहां संयुक्त हित होना पुरोभाव्य शर्त है।
(iv) जहाँ दो या अधिक वादी हों, दो या अधिक प्रतिवादी हों और दो या अधिक वादहेतुक हो, वहां वादहेतुकों में वादियों और प्रतिवादियों का संयुक्त हित होना आवश्यक है।
दावें का मूल्यांकन [नियम 3 का उपनियम (2)]- वाद में दाये के मूल्यांकन के लिये उपनियम (2) व्यवस्था करता है कि-
(1) वाद हेतुकों का संयोजन करने पर उसको विषय वस्तु की रकमों या मूल्यों को संकलित किया (जोड़ा) जावेगा और ऐसे संकलित मूल्यांकन पर न्यायालय की (आर्थिक) अधिकारिता निर्भर होगी। यह वाद- मूल्य वाद संस्थित किए जाने की तारीख के प्रसंग से संगणित किया जावेगा। जहां एक वाद साधारणतया केवल कब्जा लेने के लिए न होकर किराये की बकाया और आन्तरिक लाभ की वसूली के लिए भी था, तो उसके दावों को जोड़कर उसका मूल्यांकन किया जा सकता है।
न्यायालय निर्णयों से कुछ उदाहरण-
(1) एक ही संव्यवहार (लेनदेन) से उत्पन्न अनेक वादहेतुकों को एक ही वाद में सम्मिलित करना आवश्यक नहीं है। प्रत्येक वादहेतुक के लिए अलग से वाद किये जा सकते हैं।
(2) एक वादी एक इच्छापत्र (विल) के अधीन अपना अधिकार मांगता है और दूसरा वादी एक समझौता पत्र के अधीन अधिकार मांगता है, ये दोनों वादी एक वाद प्रस्तुत नहीं कर सकते, क्योंकि ऐसे प्रत्येक वादी का वादहेतुक भित्र-भित्र है।
(3) भूमि के तीन हिस्सों को तीन भिन्न-भिन्न व्यक्तियों ने एक ही बन्धकदार के पक्ष में बन्धक रख दिया। उन तीनों बन्धक कर्त्ताओं के सब उत्तराधिकारी मिलकर मोचन के लिए एक वाद ला सकते हैं।
(4) कई व्यक्तियों ने अलग-अलग दस्तावेजों के अधीन अलग-अलग सम्पत्ति के भागों को क्रेता से खरीदा। उन सब के द्वारा उस सम्पूर्ण सम्पत्ति पर से उस क्रेता के किरायेदारों को बेदखल करने का एक ही वाद लाया जा सकता
(5) सभी वादीगण एक पूर्वतर वाद में दी गई एक पक्षीय डिक्री को अपास्त करने में संयुक्त रूप से हितबद्ध है। इस मामले में विधि और तथ्यों के सामान्य प्रश्न विचार के लिये उत्पन्न होते हैं। वादियों का वादहेतुक भी समान है और वे एक समान प्रतिवादी के विरुद्ध एक डिक्री प्राप्त करने के इच्छुक है। अभिनिर्धारित किया वादीगण सही रूप से और विधि पूर्वक अपने वादहेतुकों का संयोजन एक ही वाद में कर सकते हैं और ऐसा वाद संधारणीय है।
(6) वादहेतुकों का संयोजन एक वादी है, एक प्रतिवादी है और अनेक वादहेतुक है- दिल्ली विकास प्राधिकरण द्वारा तीन नीलामियां की गई, जिनकी शर्तें और निबन्धन समान थे। बोली देने वालों की ओर से एक वाद फाइल किया गया, जिनमें बोली के स्वीकार होने से पहले अपनी बोली को वापस लेने के बाद तीनों नीलाम विक्रियों में जमा कराई राशि वापस मांगी गई थी। इस प्रकार तीनों संव्यवहारों में उठाये गये बिन्दु समान थे और तीनों वादहेतुको में प्रतिवादी भी एक ही और समान था, अतः वादी आदेश 2 के नियम 3 के अधीन उन अनेक वादहेतुकों को एक वाद में सम्मिलित कर सकता है।
(7) एक संयुक्त डिक्री क, ख और ग तीन व्यक्तियों के विरुद्ध निष्पादन करने योग्य थी, उनमें से क और ख ने अपील की, जिसमें ग को प्रत्यर्थी बनाया गया। बाद में ग ने पक्ष-परिवर्तन के लिए आवेदन किया कि उसे भी अपीलार्थी बनाया जाए। ऐसा आवेदन स्वीकार किया जा सकता है।
(8) एक प्रतिवादी के विरुद्ध आधी भूमि के लिये किरायेदार के रूप में और आधी भूमि पर अतिक्रमी के रूप में अलग वादहेतुकों को एक वाद में सम्मिलित किया जा सकता है।
(9) दो वादहेतुकों का संयोजन- जहां वादी रजिस्टर्ड व्यापार चिन्ह तथा कापी राइट का स्वामी है, तो वह एक ही वाद में इन दोनों अधिकारों के उल्लंघन के विरुद्ध अनुतोष मांग सकता है। उत्पाद एक ही है, जबकि भिन्न प्रकार के अधिकार का दावा किया गया है, जो वादियों ने रजिस्टर्ड व्यापार चिन्ह तथा कापीराइट के स्वामी के रूप में एक ही परियोजना के कार्टून के बारे में किया है। यही नहीं कि वादी इन वादहेतुकों का संयोजन कर सकता है, परन्तु यह भी पूर्णतः आवश्यक है कि वह ऐसा करे, क्योंकि यह एक ही उत्पाद के बारे में दावे हैं।
(10) वादी ने प्रतिलिप्याधिकार (कापीराइट) और व्यापार चिन्ह (ट्रेडमार्क) के उल्लंघन के लिए दो अलग-अलग वाद हेतुकों का संयोजन कर एक ही वाद फाइल किया। ऐसा वाद संधारणीय है।
नियम 4 स्थावर सम्पत्ति के प्रत्युद्धरण के लिए केवल कुछ दावों का संयोजित किया जाना-
जब तक कि न्यायालय की इजाजत न हो स्थावर सम्पत्ति के प्रत्युद्धरण के लिए वाद में निम्नलिखित के सिवाय कोई भी वाद-हेतुक संयोजित नहीं किया जाएगा-
(क) उस दावाकृत सम्पत्ति या उसके किसी भाग के अन्तःकालीन लाभों या भाटक की बकाया के लिए दावे;
(ख) जिस संविदा के अधीन वह सम्पत्ति या उसका कोई भाग धारित है उसके भंग के लिए नुकसानी के लिए दावे; तथा
(ग) वे दावे जिनमें चाहा गया अनुतोष उसी वाद हेतुक पर आधारित है: परन्तु इस नियम की किसी भी बात के बारे में यह नहीं समझा जाएगा कि यह पुरोबन्ध या मोचन के किसी वाद में के किसी भी पक्षकार को यह मांग करने से निवारित करती है कि बन्धक सम्पत्ति का उसे कब्जा दिलाया जाए।
नियम 3 में वर्णित वाद हेतुकों के संयोजन के दो अपवाद हैं, जो नियम 4 व 5 में दिये गये हैं। नियम 4 में स्थावर (अचल) सम्पत्ति की वापसी (कब्जे) के वादों में संयोजन की सीमायें दी गई हैं।
दावों का संयोजन (नियम-4) - अचल (स्थावर) सम्पत्ति के वापसी या कब्जे के लिये किये जाने वाले वाद में ऊपर (क), (ख) और (ग) में दिये हुए दावों को सम्मिलित किया जा सकता है। इनके अलावा अन्य किसी दावे को सम्मिलित करने के लिये न्यायालय की इजाजत (अनुमति) लेना आवश्यक होगा। यदि न्यायालय का यह समाधान हो जाए कि ऐसे दो प्रकार के दावों के एक वाद में एक साथ विचारण में कोई असुविधा नहीं है, तो न्यायालय ऐसी अनुमति दे सकेगा। परन्तु खण्ड (ग) के अनुसार जहां ऐसे दावों के लिये चाहा गया अनुतोष उसी वाद-हेतुक पर आधारित है, तो न्यायालय की किसी अनुमति की आवश्यकता नहीं होगी। यह नियम ऐसे अनेक दावों के संयोजन पर भी लागू नहीं होगा, जो अचल सम्पत्ति की प्राप्ति से सम्बन्धित हों। इस प्रकार न्यायालय की अनुमति के बिना, अनेक अचल सम्पत्तियों का कब्जा प्राप्त करने के लिये एक वाद लाया जा सकेगा। जिन दावों में अचल सम्पत्ति के कब्जे का दावा नहीं हो, उनके साथ दूसरे वादहेतुक जोड़े जा सकेंगे और न्यायालय की अनुमति की आवश्यकता नहीं होगी। इस नियम का परन्तुक एक वादी को एक ही वाद में बन्धक सम्पत्ति के पुराबन्ध या मोचन के दावे के साथ उसके कब्जे का दावा सम्मिलित करने की छूट देता है।
स्थावर सम्पत्ति का प्रत्युद्धरण (वापसी) और उसके अन्तःकालीन लाभ- दो सुभिन्न व अलग वादहेतुक- "क" ने "ख" पर विभाजन तथा कब्जे के लिए वाद किया और वह दावा डिक्री हो गया। वाद में कब्जा देने के तीन वर्ष के भीतर उसने "ख" के विरुद्ध हिसाब देने व देय रकम (अन्तःकालीन लाभ) को वसूली के लिए दूसरा वाद किया। अभिनिर्धारित कि दूसरा वाद आदेश 2, नियम 2 ( एक वादहेतुक के अधीन दावे का विखण्डीकरण) या धारा 11 के स्पष्टीकरण (4) (आन्वयिक पूर्व न्याय) से वर्जित नहीं है। पूर्ण पीठ के बहुमत निर्णय के अनुसार, आदेश 2, नियम 2 वाद के अन्तःकालीन लाभ के वाद को वर्जित नहीं करता है। स्थावर सम्पत्ति की वापसी और अन्तःकालीन लाभ ये दो सुभिन्न व अलग वाद हेतुक हैं।'
सहस्वामी द्वारा कब्जे के लिए अतिचारी के विरुद्ध दावा- एक सह स्वामी, दूसरे सह-स्वामियों को पक्षकार बनाये बिना, एक अतिचारी के विरुद्ध कब्जे का दावा कर सकता है।
निष्पादक, प्रशासक या वारिस द्वारा या उसके विरुद्ध दावे किसी निष्पादक, प्रशासक या वारिस द्वारा या उसके विरुद्ध उसका उस हैसियत में लाया गया कोई भी दावा वैयक्तिक रूप से उसके द्वारा या उसके विरुद्ध लाए गए उन दावों से तब तक संयोजित नहीं किया जाएगा जब तक कि अन्तिम वर्णित दावों के बारे में यह अभिकथन न किया गया हो कि वे उस सम्पदा के बारे में पैदा हुए हैं जिनके बारे में निष्पादक, प्रशासक या वारिस की हैसियत में वादी वाद लाया है या प्रतिवादी पर वाद लाया गया है या जब तक कि अन्तिम वर्णित दावे ऐसे न हों जिनके लिए वह उस मृत व्यक्ति के साथ, जिसका वह प्रतिनिधित्व करता है, संयुक्ततः हकदार या दायी था।
नियम की रूपरेखा - उद्देश्य- नियम 5 का उद्देश्य यह है कि-निष्पादक या प्रशासक आदि को अपने वसीयतकर्ता को सम्पत्ति के साथ अपनी सम्पत्ति या धन का सम्मिश्रण करने से रोका जाए। इसमें एक व्यक्ति को दो प्रास्थितियों को अलग किया गया है- (1) निष्पादक, प्रशासक या वारिस की प्रास्थिति (हैसियत) में तथा (2) वैयक्तिक (व्यक्तिगत) प्रास्थिति में इन दो प्रकार की हैसियत का किसी दावे में संयोजन या सम्मिश्रण नहीं किया जावेगा। व्यक्तिगत रूप से लाये गये दावों में यह स्पष्ट रूप से अभिकथन किया जायेगा कि वे इस प्रकार की हैसियत में लाये गये हैं।
नियम 6 पृथक विचारण का आदेश देने की न्यायालय की शक्ति-
जहां न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि एक ही वाद में वाद हेतुकों के संयोजन से विचारण में उलझन या विलम्ब हो जाएगा या ऐसा करना अन्यथा असुविधाजनक होगा वहां न्यायालय पृथक विचारण का आदेश दे सकेगा या ऐसा अन्य आदेश दे सकेगा जो न्याय के हित में समीचीन हो।
न्यायालय का विवेकाधिकार- आदेश 2 के नियम 3 से 5 के अधीन यदि वादहेतुकों के संयोजन से उस मुकदमे के विचारण में कोई उलझन पैदा होती हो, या विलम्ब होने की आशंका हो या अन्य प्रकार से कोई असुविधा हो, तो ऐसी स्थिति में न्यायालय न्याय के हित में उन वादहेतुकों के पृथक् विचारण का आदेश दे सकेगा या अन्य कोई न्यायोचित आज्ञा दे सकेगा। यह नियम न्यायालय को ऐसे मामले में उत्पन्न कठिनाइयों को दूर करने के लिए विशाल विवेकाधिकार प्रदान करता है। इसी प्रकार उलझन भरे मामलों में पक्षकारों के संयोजन के बजाय पृथक् विचारण का आदेश न्यायालय द्वारा दिया जा सकता है। आदेश 2 नियम 2 न्यायालय को सशक्त बनाता है कि यदि विभिन्न हेतुकों को एक साथ अन्वीक्षा असुविधाजनक हो तो न्यायालय उनका पृथक्कीकरण कर पृथक् विचारण का आदेश दे सके
वादों का समेकन - यदि दो वाद समान पक्षकारों के बीच समान वादहेतुक से उत्पन्न हुए हों और एक वाद किसी एक न्यायाधीश के समक्ष फाइल किया गया और दूसरा दूसरे न्यायाधीश के समक्ष तो यह उचित होगा कि दोनों वादों को सुनवाई किसी एक न्यायाधीश द्वारा हो की जाए।
संयुक्त विचारण में साक्ष्य के अभिलेखन का तरीका - एक भागतः सुने गये वाद को एक दूसरे नये वाद के साथ एकीकृत कर दिया गया, जिसका प्रारम्भ अभी होना था। ऐसी स्थिति में भागतः सुने गये वाद में दिये गये साक्ष्य को निवारित हटाया नहीं किया जा सकता।
नियम 7 कुसंयोजन के बारे में आक्षेप
वाद हेतुकों के कुसंयोजन के आधार पर सभी आक्षेप यथासम्भव शीघ्रतम अवसर पर किए जाएंगे और ऐसे सभी मामलों में जिनमें विवाधक स्थिर किए जाते हैं. ऐसे स्थिरीकरण के समय या उससे पहले किए जाएंगे, जब तक कि आक्षेप का आधार पीछे पैदा न हुआ हो और यदि ऐसे आक्षेप किया जाता है तो वह आक्षेप अधित्यक्त कर दिया गया समझा जाएगा।
नियम की व्यवस्था - वादहेतुकों के कुसंयोजन के बारे में पीछे नियम 3 की व्याख्या की टिप्पणी 5 में विस्तार से विवेचन किया गया है। ऐसे कुसंयोजन सम्बन्धी सभी आक्षेप-
(i) जहाँ तक हो सके जल्दी से जल्दी किये जाना आवश्यक है, और
(ii) जिस मामले में विवाद्यक (वाद प्रश्न) बनाने हों, तो ऐसा आक्षेप (ऐतराज) ऐसे वाद-प्रश्न बनाने के समय या उससे पहले किये या उठाये जायेंगे (परन्तु इसके बाद नहीं।)
(iii) जब आक्षेप का आधार वाद-प्रश्न बनाने के बाद उत्पन्न हुआ हो, तो उसके तुरन्त बाद ऐसा आक्षेप किया जा सकेगा।
(iv) यदि आक्षेप इस प्रकार उचित समय पर नहीं किया गया है तो उसे अधित्यक्त (छोड़ दिया गया) समझा जावेगा और उसे बाद में किसी प्रक्रम पर नहीं उठाया जा सकेगा।
धारा 99 तथा धारा 99क का प्रभाव - पक्षकारों या वादहेतुकों के कुसंयोजन या असंयोजन के कारण कोई भी डिक्री अपील में उलटी नहीं जायेंगी, न उसमें फेरफार किया जाएगा, न मामला अपील में प्रेषित किया जाएगा।
कुसंयोजन का प्रभाव - वाद हेतुकों के कुसंयोजन के आधार पर आदेश 7 नियम 11 के अधीन वाद खारिज नहीं किया जा सकता।
अपील में प्रभाव धारा 99 के अनुसार पक्षकारों या वादहेतुकों के कुसंयोजन या असंयोजन से यदि मामले के गुणावगुण या न्यायालय को अधिकारिता पर प्रभाव नहीं पड़ता हो, तो अपील में डिक्री को न तो उलटा जायेगा, न उसमें कोई फेरफार किया जायेगा और न उस मामले को प्रतिप्रेषित (रिमाण्ड) किया जावेगा। परन्तु यह धारा किसी आवश्यक पक्षकार के असंयोजन को लागू नहीं होगी।