सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 4: आदेश 1 नियम 10 के प्रावधान

Update: 2023-09-18 04:36 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) के आदेश 1 नियम 10 के प्रावधान सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक दोनों ही दृष्टिकोण से अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। एक प्रकार से देखे तो आदेश 1 के प्रावधानों में नियम 10 के प्रावधान सार्वाधिक व्यवहार में आतें हैं क्योंकि जब भी अदालत को किसी वाद में नए पक्षकार जोड़ने या काटने होते हैं तब इस ही नियम की सहायता से पक्षकारों को जोड़ा या काटा जाता है। किसी पक्षकार को वाद में जोड़ने हेतु भी वाद के पुराने पक्षकारों द्वारा नियम 10 का आवेदन न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। आदेश 1 के नियम 10 के पांच उपनियम हैं।

यह संहिता में दिए गए शब्द हैं-

10. गलत वादी के नाम से वाद -

(1) जहाँ कोई वाद वादी के रूप में गलत व्यक्ति के नाम से संस्थित किया गया है या जहाँ यह संदेहपूर्ण है कि क्या वह सही वादी के नाम से संस्थित किया गया है वहाँ यदि वाद के किसी भी प्रक्रम में न्यायालय का यह समाधान हो जाता है कि वाद सदभाविक भूल से संस्थित किया गया है और विवाद में के वास्तविक विषय के अवधारण के लिए ऐसा करना आवश्यक है तो, वह ऐसे निबन्धनों पर, जो वह न्यायसंगत समझे, वाद के किसी भी प्रक्रम में किसी अन्य व्यक्ति को वादी के रूप में प्रतिस्थापित किए जाने या जोड़े जाने का आदेश दे सकेगा।

(2) न्यायालय पक्षकारों का नाम काट सकेगा या जोड़ सकेगा न्यायालय कार्यवाहियों के किसी भी प्रक्रम में या तो दोनों पक्षकारों में से किसी के आवेदन पर या उसके बिना और ऐसे निबन्धनों पर जो न्यायालय को न्यायसंगत प्रतीत हों, यह आदेश दे सकेगा कि वादी के रूप में या प्रतिवादी में रूप में अनुचित तौर पर संयोजित किसी भी पक्षकार का नाम काट दिया जाए और किसी व्यक्ति का नाम जिसे वादी या प्रतिवादी के रूप में ऐसे संयोजित किया जाना चाहिए था या न्यायालय के सामने जिसकी उपस्थिति वाद में अन्तर्वलित सभी प्रश्नों का प्रभावी तौर पर और पूरी तरह न्यायनिर्णयन और निपटारा करने के लिए न्यायालय को समर्थ बनाने की दृष्टि से आवश्यक हो, जोड़ दिया जाए।

उच्चतम न्यायालय ने अवधारित किया है कि न्यायालय उचित व न्याय संगत कारण पर इस नियम के अधीन प्रदत्त विवेक का प्रयोग, स्वप्रेरणा से अथवा किसी पक्षकार या अन्य व्यक्ति के आवेदन पर करते हुए बिना किसी शर्त के अथवा शर्तों सहित वाद के किसी पक्षकार का नाम काट सकेगा अथवा किसी व्यक्ति को पक्षकार के रूप में जोड़ सकेगा।

(3) कोई भी व्यक्ति, वाद-मित्र के बिना वाद लाने वाले वादी के रूप में अथवा उस वादी के, जो किसी निर्योग्यता के अधीन है, वाद-मित्र के रूप में उसकी सहमति के बिना नहीं जोड़ा जाएगा।

(4) जहाँ प्रतिवादी जोड़ा जाए वहाँ वादपत्र का संशोधन किया जाना-जहाँ कोई प्रतिवादी जोड़ा जाता है वहाँ जब तक न्यायालय अन्यथा निदिष्ट न करे वादपत्र का इस प्रकार संशोधन किया जाएगा, जैसा आवश्यक हो, और समन की और वादपत्र की संशोधित प्रतियों की तामील नए प्रतिवादी पर, और यदि न्यायालय ठीक समझे तो मूल प्रतिवादी पर की जाएगी।

(5) इण्डियन लिमिटेशन एक्ट, 1877 (1877 का 15)' की धारा 22 के उपबन्धों के अधीन रहते हुए, प्रतिवादी के रूप में जोड़े गए किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध कार्यवाही समन की तामील पर ही प्रारम्भ की गई समझी जाएगी।

आदेश 1, नियम 10 न्यायालय को व्यापक शक्तियाँ प्रदान करता है, जिसमें गलतवादी के नाम को सही करना, पक्षकारों के नाम काटना या जोड़ना तथा प्रतिवादी जोड़ने पर वादपत्र में संशोधन करवाने की कार्यवाही आती है।

न्यायालय द्वारा पक्षकारों का संयोजन व संशोधन [आदेश 1, नियम 10]

न्यायालय की शक्तियाँ- उपरोक्त नियम 10 में पक्षकारों के संयोजन के सम्बन्ध में न्यायालय को दो प्रकार की शक्तियाँ प्रदान की गई हैं-

(1) गलती वादी का नाम सही करने की शक्ति (उपनियम 1)

(2) पक्षकार का नाम जोड़ना या काटना (उपनियम 2 )

(1) गलत वादी के नाम के बाद में संशोधन

उपनियम (1) के अधीन वादी का नाम बदलने या अन्य व्यक्ति को प्रतिस्थापित करने के लिए निम्न शर्तें हैं-

1. यदि कोई वाद वादी के रूप में गलत व्यक्ति के नाम से संस्थित किया गया हो या जहाँ वादी के बारे में कोई संदेह हो;

2 न्यायालय को दो बातों का समाधान हो जावे कि- (i) ऐसा सद्भाविक भूल से हुआ है, और (ii) वाद के किसी वास्तविक विषय का निर्णय करने के लिये संशोधन करना आवश्यक है,न्यायसंगत शर्ते लगाते हुए न्यायालय आदेश दे सकेगा कि -

(क) किसी अन्य व्यक्ति को वादी के रूप में प्रतिस्थापित किया जावे, या

(ख) जोड़ा जावे।

(2) पक्षकार का नाम जोड़ना या काटना-उपनियम (2) के अधीन न्यायालय किसी पक्षकार के आवेदन पर या स्वतः ही दो प्रकार की कार्यवाही कर सकता है-

(क) पक्षकारों का नाम काटना- यदि किसी वादी या प्रतिवादी को अनुचित रूप से संयोजित किया गया प्रतीत हो, तो वह उसका नाम काट सकेगा। यह पक्षकारों के कुसंयोजन के कारण होता है। अतः जो व्यक्ति कुसंयोजित है या जो आवश्यक या उचित पक्षकार नहीं हैं, उनके नाम न्यायालय हटा सकता है।

(ख) न्यायालय द्वारा पक्षकारों के नाम जोड़ना [ नियम 10 (2) ] -पक्षकारों को जोड़ने के लिये आवश्यक शर्तें-निम्नलिखित दो प्रकार के मामलों में किसी व्यक्ति को किसी वाद में पक्षकार बनाया जा सकता है-

(1) जब किसी व्यक्ति का नाम वादी या प्रतिवादी के रूप में संयोजित किया जाना चाहिए था, और उसे इस रूप में सम्मिलित नहीं किया गया हो, या

(2) जब उसको उपस्थिति के बिना, बाद के प्रश्नों का पूरी तरह से निपटारा नहीं हो सकता हो। इन दो परिस्थितियों के अलावा अन्य किसी मामले में न्यायालय को कोई अधिकारिता नहीं है। इस प्रकार कोई व्यक्ति यदि निर्णय के परिणामस्वरूप प्रभावित हो सकता है, केवल ऐसे कारण से उसे पक्षकार नहीं बनाया जा सकता। केवल यह देखने के लिये कि बाद में किसी व्यक्ति को पक्षकार बनाने से उचित रूप से प्रतिरक्षा सम्भव हो सकेगी, किसी व्यक्ति को प्रतिवादी नहीं बनाया जा सकता है

सिक्किम उच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि आदेश 1 नियम 1 व 2 में आवेदन पत्र प्रस्तुत करने के लिए कोई समय सीमा एवं आवेदन पत्र प्रस्तुत करने वाले व्यक्ति पर किसी प्रकार का कोई प्रतिबन्ध नहीं है। आदेश 1 नियम 1 व 2 का प्रार्थना पत्र स्वीकार करते समय एक आवश्यक शर्त यह है कि न्यायालय को सन्तुष्ट होना चाहिए कि प्रकरण का प्रभावी तरीके से निपटारे करने के लिए ऐसे व्यक्ति को संयोजित करना आवश्यक था। माता एवं पिता को सम्पति के विभाजन के बाद में पुत्री प्रथम वर्ग की वारिस होने से आवश्यक पक्षकार है। उचित एवं आवश्यक पक्षकार होने से बाद में उनका संयोजन आवश्यक है।

रजिया बेगम बनाम अनवर बेगम एआईआर 1958 सुप्रीम कोर्ट 886 के मामले में पक्षकारों के संयोजन के प्रश्न पर विचार करते हुए उच्चतम न्यायालय ने इस विषय पर सम्पूर्ण विधि का विवेचन करते हुए बताया है कि-

(1) सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 1 के नियम 10 के अधीन पक्षकारों के जोड़ने का प्रश्न साधारणतया न्यायालय की प्रारंभिक अधिकारिता का न होकर न्यायिक विवेक का है, जिसे किसी विशेष मामले के सभी तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखकर प्रयोग में लेना होगा, परन्तु कुछ मामलों में न्यायालय की अन्तर्निहित अधिकारिता के प्रतिकूल अन्तर बताते हुए विवाद उत्पन्न हो सकता है। दूसरे शब्दों में, उस अधिकारिता के बारे में जो धारा 115 के अधीन सीमित अर्थ में प्रयुक्त की गयी है,

(2) सम्पत्ति सम्बन्धी वाद में किसी व्यक्ति को एक पक्षकार में रूप में संयोजित (जोड़ने) करने के लिये उस व्यक्ति का संविवाद के विषय में सीधा हित होना चाहिए, जो उसके व्यापारिक हित से भिन्न होगा।

(3) जहाँ संविवाद की विषय-सामग्री किसी प्रास्थिति (हैसियत) या विधिक -स्वरूप के बारे में घोषणा करना हो, तो वर्तमान या सीधे हित के नियम को उचित मामलों में शिथिल किया जा सकता है, जहां न्यायालय का यह अभिमत हो कि उस पक्षकार को जोड़ने से वह ( न्यायालय) उस विवाद के बारे में प्रभावपूर्ण तथा पूर्ण रूप से निर्णय करने के लिये अधिक अच्छी स्थिति में होगा;

(4) अन्तिम प्रतिपादना में बताये गये मामलों को विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम की धारा 42 व 43 के विधिक ,31 उपबन्धों के अनुसार विनिश्चित करना होगा।

वाद में अन्तर्वलित सभी प्रश्नों" शब्दावली का अर्थ • आदेश 1, नियम 10(2) में आई उक्त शब्दावली का अर्थ है "संविवाद के पक्षकारों के बीच के प्रश्नों" अर्थात् एक ओर से स्थापित किए अधिकार और मांगे गये अनुतोष तथा दूसरी ओर उनको अस्वीकार करने या रोकने से सम्बन्धित प्रश्न इसमें वे प्रश्न नहीं है, जो सह-वादी के बीच के या बाद में पक्षकार और तृतीय (बाहरी) पक्षकार के बीच हैं।

वादी का अधिकार (dominus latis डोमिनस लेटिस)

पक्षकार और न्यायमंच का चुनाव- सम्पत्ति के विक्रय की संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिए एक वाद किया, जिसमें उस सम्पत्ति को अलग सम्पत्ति बताया गया था, परन्तु परिवार के अन्य सदस्यों ने इसे संयुक्त परिवार की सम्पत्ति होने के आधार पर चुनौती देने के लिए पक्षकार बनना चाहा। इसे अस्वीकार कर दिया गया, क्योंकि साधारणतया एक वाद में वादी (डोमिनस लिटिस" (प्रधान) होता है, जिसे न्यायमंच तथा पक्षकारों को तय करना होता है। उस अनेच्छुक वादी पर विधि के उपबंधों के बाहर, कोई पक्षकार नहीं थोपा जा सकता।

वादी को सदा छूट है कि वह ऐसे पक्षकार को प्रतिवादी बनावे, जिसे वह उचित व सही मानता है। एक मामले में बैंक ने ऋण की वसूली का दावा किया। ऋण से खरीदा गया ट्रक बीमाकृत था अतः बीमा कम्पनी ने पक्षकार बनाने का आवेदन किया, जिसे विचारण-न्यायालय ने नामंजूर कर दिया। इसकी हाई कोर्ट ने भी पुष्टि कर दी कि बीमा कम्पनी आवश्यक पक्षकार नहीं थी।

बीमा कंपनी जब आवश्यक या उचित पक्षकार नहीं कई डाक्टर्स और उनके नर्सिंग होम्स के विरुद्ध वादी ने उपेक्षापूर्ण उपचार से उसकी पत्नी की मृत्यु के लिए रु.6.20 लाख की नुकसानी का दावा किया। बीमा कम्पनी ने उन डाक्टर्स का बीमा कर रखा था। अतः बीमा कम्पनी ने पक्षकार बनाने के लिए आवेदन किया। अभिनिर्धारित कि आवेदन स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि बीमा कम्पनी न तो आवश्यक पक्षकार थी, न उचित पक्षकार वादी और प्रतिवादियों के बीच विवाद के निपटारे के लिए बीमा कम्पनी की उपस्थिति आवश्यक नहीं थी। एक व्यक्ति को केवल इसीलिए पक्षकार नहीं बनाया जा सकता कि वह देखे कि पहले के प्रतिवादी सही रूप से प्रतिरक्षा कर रहे हैं या नहीं।

बेनामीदार के विरुद्ध घोषणार्थवाद -प्रतिवादी को बेनामीदार बताकर वादी ने अपना एकमात्र स्वामित्व घोषित - करने के लिए वाद संस्थित किया। प्रतिवादियों ने जो वादी के भाई थे, इसे संयुक्त कुटुम्ब की सम्पत्ति बताया। शेष बचे एक भाई ने भी इसी आधार पर पक्षकार बनना चाहा। विचारण-न्यायालय ने इसे अस्वीकार कर दिया हाई कोर्ट ने इस आदेश को अपास्त करते हुए पुनरीक्षण में आवेदन को स्वीकार कर लिया।

हाईकोर्ट ने कारण बताते हुए कहा कि-

(1) जब प्रतिवादी भाइयों ने सम्पत्ति को संयुक्त कुटुम्ब की सम्पत्ति बताया है, तो प्रार्थी को पक्षकार न बनाना प्रायोजित (डेलिबरेट) प्रतीत होता है।

(2) जब पक्षकार बनाये गये भाइयों और प्रार्थी का समान मामला है, तो अभिवचन के अनुसार प्राथ को उपस्थिति मामले को निपटाने के लिए आवश्यक है। न्यायालय को साधारणतया केवल यह देखना है कि क्या कोई पक्षकार जोड़ना आवश्यक है। उसे वादी के पक्ष में "डोमिनस लिटिस" के सिद्धान्त को एक सर्वव्यापी प्रयोग के नियम के रूप में लागू नहीं करना चाहिए।

(3) न्यायालय को उस मामले को प्रश्नगत सम्पत्ति को या अन्यथा उसके गुणागुण को, जैसा आवेदन से प्रकट और दर्शित होता है, परीक्षा करनी होगी और इस निर्णय पर आना होगा कि क्या ऐसा पक्षकार जोड़ना विवाद के अन्तिम व प्रभावपूर्ण निपटारे के लिए बेकार है या वैध है ? अन्य भाइयों के लिखित कथनों में दिये कथनों के बावजूद विचारण- न्यायालय ने इस पहलू पर ध्यान नहीं दिया।

(4) यदि इस आदेश को ऐसा हो छोड़ दिया जाता है, तो विचारण-न्यायालय का यह आदेश प्रार्थी को अन्याय करेगा। दूसरी ओर उसे पक्षकारों में सम्मिलित करना वादों को कोई कठिनाई कारित नहीं करेगा और अन्तर्वलित प्रश्न के निश्चायक निर्णयन में सहायक साबित होगा।

(5) न्यायालय की शक्तियाँ- विवेकाधिकार प्रक्रिया न्याय की सेविका है, न कि स्वामिनी- प्रक्रियात्मक अनियमितता या गलती से न्याय का सारभूत हित ध्वंस नहीं होने दिया जा सकता है, जब तक कि यह दर्शित नहीं कर दिया जाता कि इस अनियमितता के कारण अन्य पक्षकार अपरिहार्य रूप से प्रतिकूल स्थिति में पद्म गया है-यदि विचारण न्यायालय में संस्थित याद की बाबत व्यक्ति अपने तथाकथित वादमित्र को मार्फत इस गलत धारणा के अधीन वाद फाइल करता है कि अभिकथित वादो अवयस्क बना हुआ है, तो न्यायालय निश्चय ही वादो के उस गलत नाम या गलत वर्णन के शुद्ध किए जाने के लिए अनुज्ञा दे सकता है ?

वादों की बहुलता से बचने की दृष्टि से और वाद के पूर्ण और प्रभावी न्यायनिर्णयन के लिए किसी व्यक्ति को वाद का पक्षकार बनाने के लिए यह आवश्यक है कि विवादग्रस्त सम्पत्ति का हक उसमें निहित हो और वह उस पर काबिज हो। वाद की विषयवस्तु में उसका सीधा स्वाम्य हित भी होना चाहिए। धारा 115 के अधीन पुनरीक्षण में पिटीश्नर को यह सिद्ध करना होगा कि यदि आक्षेपित आदेश को कायम रखा जाता है तो उससे न्याय की विफलता होगी अथवा वादी को अपूरणीय क्षति पहुंचेगी। आदेश नियम 10 के अधीन पक्षकार बनाने के लिये न्यायालय को निम्न मानदण्डों का ध्यान रखना होगा।

(1) वादग्रस्त सम्पति में किसी अनुतोष का अधिकार है।

(2) ऐसे पक्ष के अभाव में प्रभावी डिक्री पारित नहीं की जा सकती यह सुस्थिर हो चुका है कि जहाँ न्यायालय को वाद में अन्तवलित सभी प्रश्नों का प्रभावी और पूर्णरूप से न्यायनिर्णयन और निपटारा करने में समर्थ बनाने के लिए किसी व्यक्ति को उसके समक्ष उपस्थिति आवश्यक होती है वहाँ ऐसा व्यक्ति वाद में प्रतिवादी पक्षकार के रूप में संयोजित किया जाना चाहिए।

यह भी सुस्थिर हो चुका है कि न्यायालय में निहित की गई यह शक्ति वैवेकिक है परन्तु न्यायालय का यह विवेक न्यायिक विवेक होना चाहिए और यदि न्यायालय ने मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए संहिता के आदेश 1, नियम 10 के अधीन किसी पक्षकार को संयोजित करने अथवा संयोजित करने से इन्कार करने में न्यायिक विवेक का प्रयोग किया है तो इस न्यायालय को पुनरीक्षण करते समय ऐसे न्यायिक विवेक के प्रयोग में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए

यदि आवश्यक पक्षकारों का संयोजन नहीं किया गया है ऐसी परिस्थिति में न्यायालय स्वः निर्णय से ही पक्षकार बना सकता है। यह आवश्यक नहीं है कि असंयोजन के कारण वाद को खारिज करें। सम्बन्धित पक्ष को आवश्यक पक्षकार को पक्षकार बनाये जाने हेतु स्वतन्त्रता प्रदान किया जाना चाहिए।

पक्षकार जोड़ने में न्यायालय द्वारा सावधानी— वादी, जिसने एक रजिस्टर्ड बेचान पत्र से स्वत्व प्राप्त किया था, किरायेदार की बेदखली का वाद किया। किरायेदार ने वादी को मालिक स्वीकार नहीं किया। इस पर पुराने मालिक ने पक्षकार बनाने का आवेदन किया। इस पर अभिनिर्धारित कि- न्यायालय को पक्षकार जोड़ने तथा वाद को स्वत्व के लिए वाद में बदलने के प्रति सजग रहना चाहिये। जो पक्षकार विवादग्रस्त मामले में सीधा और तुरन्त हित रखते हों, उनको पक्षकार बनाया जाना चाहिये, पर इसके साथ न्यायालय को ऐसे साम्पार्श्विक मामलों का निर्णय करने की अनुमति नहीं है, जो बेदखली और किराया के साधारण वाद को दावेदारों के बीच एक उलझन भरे स्वत्व-वाद में बदल दे। इससे लम्बी मुकदमे बाजी होगी जिसमें कठिन प्रश्नों के निर्णय अन्तर्वलित होंगे जो इस वाद के परिक्षेत्र से पूर्णरूप से बाहर हैं। एक त्रिकोणात्मक संघर्ष होगा, जिसमें वादी प्रतिवादी पर दावा करते हैं, तो प्रतिवादी और तृतीय पक्ष वादी पर। इसे साधारणतया अनुमति नहीं देनी चाहिये जब तक कि तृतीय पक्ष उस वाद की सम्पत्ति में अपना सीधा व तुरन्त हित दर्शित न कर दे। ऐसी दशा में यह असाम्यापूर्ण होगा कि हितधारी सभी पक्षकारों के बीच पूर्णतः और प्रभावी रूप से निर्णय के लिए उनको वाद में लड़ने न दिया जाए। येन-केन, न्यायालय को पक्षकार जोड़ने में केवल इसीलिए सचेत रहना चाहिये, क्योंकि वह तीसरे व्यक्ति को अलग वाद के खर्च व कष्ट से बचायेगा।

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