सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 22: किसी वाद के अंतर्गत नए अभिवाक (कथन)
सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 6 अभिवचन से संबंधित है जहां अभिवचन के साधारण नियम दिए गए हैं। आदेश 6 का नियम 7 फेरबदल से संबंधित है। इस ही नियम 7 के अंतर्गत ही नए अभिवाक से संबंधित सिद्धांत भी है क्योंकि यही नियम है जो बगैर संशोधन किए फेरबदल करने से रोकता है। इस आलेख के अंतर्गत इस ही सिद्धांत पर चर्चा की जा रही है।
नए अभिवाक् (कधन)
ऐसे अभिवाक् पर जो हालांकि विनिर्दिष्ट रूप से नहीं किया गया है अपितु विवक्षित तौर पर विवाद्यकों के अन्तर्गत आ जाता है और जो विचारण में पक्षकारों की जानकारी में था, अपील में विचार किया जा सकता है।
नया प्रश्न-जब कोई प्रश्न न अभिवचनों में उठाया गया और न उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील के स्तर में, तो उस पर बहस की अनुमति नहीं। पुत्री के विवाह के व्यय के बारे में अभिवचन के अभाव में उसके लिए डिक्री पारित नहीं की जा सकती। हिन्दू विवाह अधिनियम के अधीन विवाह-विच्छेद के लिए याचिका में पत्नी ने पति द्वारा लिखे पत्रों को प्रस्तुत किया।
पत्नी के द्वारा क्रूरता के आधार के समर्थन में पति उन पत्रों का उपयोग नहीं कर सकता जबकि न तो उसकी याचिका में और न वकील के नोटिस में क्रूरता को आधार बनाया गया है। अभिवचन में बिना स्पष्ट कथन किए सरकार की अनुमति नहीं लेने से विक्रय की अवैधता का प्रश्न ग्रहण नहीं किया जा सकता।
अभिवचन और प्रमाण में विसंगति (भिन्नता) का प्रभाव
आदेश 6 का नियम 7 के अनुसार किसी भी अभिवचन में दावे का कोई नया आधार या तथ्य का कोई अभिवचन, जो उसका अभिवचन करने वाले पक्षकार के पूर्वतन अभिवचनों से असंगत हो, बिना संशोधन किये न तो उठाया जाएगा और न अन्तर्विष्ट होगा। इस प्रकार पहले से किये गये अभिवचनों के बाहर जाकर न तो कोई पक्षकार साक्ष्य दे सकता है और न न्यायालय ही कोई निर्णय दे सकता है।
यह सामान्य सिद्धान्त है कि- अभिवचन की विधि के अधीन एक पक्षकार को बार-बार में परस्पर विरोधी कथन कहने की अनुमति नहीं है। इसके लिये अभिवचन की विधि की अधिनियमिति द्वारा निषेध किया गया है। वाद के आगे के प्रक्रम पर भी असंगत कथन उठाने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
अभिवचन में असंगत कथनों का निषेध-
एक बार कुछ कहना, फिर उसके विपरीत कथन करना-ये अभिवचन में वर्जित है। किरायेदार ने उच्च न्यायालय में परिसर खाली करने का परिवचन दिया, उच्चतम न्यायालय में जाने का द्वार खुला रखा । उच्चतम न्यायालय में निर्णय दिया कि किरायेदार को उच्च न्यायालय के उक्त आदेश को चुनौती देने की अनुच्छेद 136 के अधीन अनुमति नहीं दी जा सकती। पहले स्वीकार किये स्थगनादेश को निरस्त किया गया।
पक्षकारों को उनके अभिवचनों तक सीमित रखा जावेगा। इसी के संदर्भ में अभिवचनों को महत्वपूर्ण समझा जाता है। जब कोई अभिवाक् (तर्क) अभिवचन में नहीं उठाया गया, तो उस दोष को साक्ष्य के द्वारा दूर नहीं किया जा सकता। विधि का साधारण नियम यह है कि केवल उचित रूप से उठाये गये अभिवाक पर साक्ष्य दिया जाना चाहिये, न कि उक्त अभिवाक् के खण्डन में। ऐसी साक्ष्य पर विचार नहीं किया गया। प्रतिवादी कोई ऐसा बिन्दु (तर्क) उठाने के लिए हकदार नहीं है, जिस पर कोई विवाद्यक (वाद प्रश्न) नहीं बनाया गया हो। इसके लिये उसे अपना प्रतिवादपत्र संशोधित करना होगा।
अभिवचन अस्पष्ट हो, पर उस प्रश्न के विचारण के लिये आवश्यक सभी तथ्य न्यायालय के समक्ष हैं। बिना किसी आक्षेप के उस प्रश्न पर बहस भी की गई। अतः अब यह दलील देने की इजाजत नहीं दी जा सकती कि आवश्यक अभिवचन के अभाव में उस प्रश्न पर विचार नहीं किया जा सकता।
वादी पट्टे के आधार पर भवन का दावा कर रहा था, जो उसके नाम से था। परन्तु वह यह साबित नहीं कर सका कि पट्टा उसके नाम में इसलिये दिया गया था क्योंकि उसने उसका प्रतिफल (मूल्य) चुकाया था। अभिनिर्धारित किया गया कि दी गई साक्ष्य को देखते हुए वादी को यह साबित करने की अनुमति दी जा सकती है कि हालांकि प्रतिफल उसके द्वारा नहीं दिया गया, फिर भी केवल वही उस विवादग्रस्त भवन के लिये हकदार है।
ऐसी साक्ष्य पर न्यायालय विचार नहीं करेगा, जिसके लिये पहले से अभिवचन में कोई कथन नहीं किया गया हो। इस प्रकार साक्ष्य केवल उसी तथ्य के बारे में ली जा सकती है, जिसे सही रूप से अभिवचन में दिया गया है। अभिवचनों के विपरीत कोई साक्ष्य नहीं ली जा सकती। न्यायालय अभिवचन की सीमा के बाहर जाकर किसी वाद का निर्णय नहीं कर सकता। जो सहायता वादी ने वाद पत्र में नहीं मांगी, उसे वादपत्र को संशोधित किये बिना न्यायालय प्रदान नहीं कर सकता।
प्रतिवाद पत्र में उठाये गये विशिष्ट अभिवाक या साक्ष्य द्वारा वादी ने जब सामना नहीं किया, तो प्रतिवादी का अभिवाक (कथन) सफल माना गया। अपने लिखित कथन में दिये गये कपट तथा असम्यक् प्रभाव की बातों से, प्रतिवादी के सशपथ दोनों में दी गई कपट व असम्यक् प्रभाव की कहानी पूर्णतः भित्र भी। केवल इसी तथ्य के आधार पर कपट व असम्यक् प्रभाव के कथन को अस्वीकार किया जा सकता है।
जब प्रतिवादी को प्रतिरक्षा यह थी कि उसने विवादग्रस्त स्थान का कब्जा न्यायालय के द्वारा प्राप्त किया था, जबकि उसके स्वयं के बयानों में वह आपसी समझौते से कब्जा लेने की कहता है। इस प्रकार प्रतिवादी की स्वयं की साक्ष्य उसके मामले को धराशायी कर देती है। ऐसी साक्ष्य न तो दी जा सकती है और न उस पर विचार किया जा सकता है। किसी पक्षकार को अभिवचन में दिये गये मामले से असंगत मामला साक्ष्य द्वारा प्रस्तुत करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। वाद पत्र में वर्णित वाद हेतुक से भित्र अनुतोष नहीं दिया जा सकता।
अभिवचन के सिद्धान्तों का यह सर्वविदित सिद्धान्त है कि अभिवचन के विपरीत कोई साक्ष्य नहीं ली जानी चाहिये। जब वादपत्र में वादी एक न्यासी के रूप में दावा करता है, पर अपने बयानों में वह अपनी व्यक्तिगत प्रास्थिति में दावा करने की कहता है। ऐसी साक्ष्य मान्य नहीं है।
बिना अभिवचन के साधारणतया प्रमाण की कोई सुसंगति नहीं होती है- एक बात जो अभिवचन में नहीं है, न किसी नीचे के न्यायालय में उठाई गई न विशेष अनुमति याचिका में है, उसे पहली बार उच्चतम न्यायालय में नहीं उठाया जा सकता। जब वादी ने वास्तव में बंटवारे द्वारा विभाजन करने का अभिवचन नहीं किया, तो ऐसे मामले की शक्ति पर उसे सफलता नहीं मिल सकती।"
आज्ञापक व्यादेश और आधिपत्य (कब्जे) की वापसी के एक वाद में, लिखित कथन में केवल इस तथ्य का उल्लेख किया गया कि "वादी ने उसके द्वारा मने गये अनुसार वादगत-सम्पत्ति के क्षेत्रफल को नहीं खरीदा था।" इसके बाद विचारण के समय प्रतिवादी को यह छूट नहीं है कि वह ऐसा साक्ष्य प्रस्तुत करे कि उस सम्पत्ति का क्षेत्रफल उसके द्वारा कहे अनुसार कम था, क्योंकि ऐसा करना अभिवचन के बाहर जाना होगा।
अभिवचन और साक्ष्य ऐसे विषय पर साक्ष्य नहीं दिया जा सकता और दिया गया हो तो देखा नहीं जा सकता जो अभिवचन में नहीं है। अभिवचन में है या नहीं, इसके लिए उसकी शब्दावली ही नहीं, सार देखा जाना चाहिये। देखना यह होगा कि क्या विरोधी पक्षकार को ज्ञात था कि यह प्रश्न निर्णयार्थ है और उसे उस पर साक्ष्य देने का अवसर मिला। अभिवचन के अभाव में साक्ष्य (सबूत) विचार में नहीं लिया जा सकता। अभिवचन के बिना उस बिन्दु पर बहस नहीं की जा सकती।
एक मामले में जब स्वयं वादिनी ने कहा कि विधवा ने जातीय रूढि के अनुसार पुनर्विवाह कर लिया और विचारण न्यायालय में उसकी वैधता को प्रश्नगत नहीं किया गया तो वैध पुनर्विवाह करने का साक्ष्य अपेक्षित नहीं है। जब दोनों पक्षकार विवाद की वस्तु को जानते थे और दोनों ने उस पर साक्ष्य दिया, तो इस बात का महत्त्व नहीं है कि वादपत्र में वह बात स्पष्ट रूप से नहीं कही गई।
संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति को पिता ने परिवार के कर्ता की हैसियत से बेच दिया। इस विक्रय के अवैध होने के आधार पर उस सम्पत्ति की वापसी के लिए एक वाद लाया गया। लिखित-कथन में यह कथन नहीं उठाया गया कि अन्य संक्रामण पूर्वगामी ऋण को चुकाने के लिए किया गया था। परन्तु इस प्रश्न पर साक्ष्य लिया गया और न्यायालय ने अपना निष्कर्ष भी इस पर दिया। यह अवैध है।
अभिवचन में संशोधन या परिवर्तन
एक मामले में पिटीशनर द्वारा अपील के लम्बित रहने के दौरान लिखित कथन में संशोधन करने के लिए आवेदन दिया गया और उसे निचले अपील न्यायालय द्वारा नामंजूर किया गया। किसी पक्षकार को सही अनुतोष देने से केवल इसलिए इंकार नहीं किया जा सकता है कि प्रक्रिया के नियमों में कुछ गलती, उपेक्षा, अनियमितता हुई है या व्यतिक्रम हुआ है।
वादपत्र में संशोधन- वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध केवल एक घोषणात्मक वाद फाइल किया और तदनुसार न्यायालय फीस संदत्त की। वाद में कब्जे के पारिणामिक अनुतोष को वादपत्र में जोड़ने के लिए वादी ने वादपत्र का संशोधन करने के लिए आवेदन किया। आवेदन समय बीत जाने पर दिए गए होने के आधार पर न्यायालय द्वारा खारिज कर दिया गया।
न्यायालय का कर्त्तव्य- क्या न्यायालय को संशोधन आवेदन का मंजूर कर लेना चाहिए था।
अभिवचन में परिवर्तनवादी ने वाद-सम्पत्ति के स्वत्व की घोषणा का वाद किया, जिसमें उक्त सम्पति की खरीद की पूरी रकम वादी द्वारा देना कहा गया था, परन्तु बाद में इसे बदल कर कहा गया कि भुगतान प्रतिवादी (पति) द्वारा वादी (पत्नी) के फण्ड में से किया गया था। पति द्वारा पत्नी की ओर से वास्तविक संव्यवहार करना कोई अनहोनी बात नहीं है। अतः वादी के द्वारा इस बदलाव से यह वाद खारिज नहीं किया जा सकता।