जानिए सिविल मामलों में आवश्यक (Necessary) एवं उचित (Proper) पक्षकार कौन होते हैं
यह कानून का एक मूल सिद्धांत है कि एक शिकायत/समस्या के निवारण के लिए एक कानूनी कार्यवाही किसी भी व्यक्ति द्वारा शुरू की जा सकती है; यह स्वाभाविक है कि इस तरह की शिकायत/समस्या के सम्बन्ध में व्यक्ति उचित न्याय कि अदालत से राहत चाहता है। यह अदालत का कर्तव्य है कि वह व्यक्ति की समस्या का समाधान, कानून की सीमाओं के भीतर रहकर करे।
चूँकि इस लेख में हम सिविल मामलों के बारे में चर्चा कर रहे हैं, तो हमारे लिए यह जान लेना आवश्यक है कि आखिर किस प्रकार के मामले सिविल मामले कहे जाते हैं। इस सबंध में हम एक लेख पहले ही प्रकाशित कर चुके हैं, जिसमे हमने इस बात पर चर्चा कि है कि आखिर सिविल प्रकृति के वाद क्या होते हैं।
यह जान लेने के बाद कि सिविल प्रकृति के वाद क्या होते हैं, हमारे लिए यह समझना भी आवश्यक है कि एक सिविल मामले को एक 'वाद' (Suit) के माध्यम से अदालत के संज्ञान में लाया जाता है। एक 'वाद' क्या होता है, इस सम्बन्ध में हमारे समक्ष कोई ठोस परिभाषा मौजूद नहीं है। सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 में भी इस शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है।
हालाँकि, हम अपनी सुविधा के लिए यह समझ सकते हैं कि एक वाद का अर्थ, न्याय की अदालत में चलने वाली उस कार्यवाही से है, जिसके द्वारा एक व्यक्ति उस उपाय/निवारण (अपनी शिकायत के सम्बन्ध में) की मांग करता है जो कानून द्वारा उसे दिया गया है।
आम बोलचाल में, "सूट" (वाद) शब्द को एक न्यायिक या अर्ध-न्यायिक प्रकृति की सभी कार्यवाहियों को शामिल करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जिसमें पीड़ित पक्षों के विवादों को निष्पक्ष मंच के समक्ष निपटाया जाता है - इथियोपिया एयरलाइंस बनाम गणेश नारायण साबू (2011) 8 एससीसी 539।
इसके अलावा, हम यह भी जानते हैं कि वाद का संस्थित किया जाना, वाद्पत्र को उपस्थित करते हुए संभव होता है। सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 26 इस सम्बन्ध में प्रावधान करती है। वहीँ, हंसराज गुप्ता बनाम ऑफिसियल लिक्वीडेटर्स ऑफ़ दी देहरादून-मसूरी इलेक्ट्रिक ट्रामवे कंपनी लिमिटेड।, (1932-33) 60 IA 13 के मामले में यह कहा गया था कि, साधारणतः एक वाद, एक सिविल कार्यवाही है, जिसे वादपत्र के प्रस्तुतीकरण के जरिये संस्थित किया जाता है।
उमा शंकर बनाम शालिग राम AIR 1975 All 36 के मामले में यह देखा गया था कि एक सूट के लिए 4 तत्वों का मौजूद होना आवश्यक है – (a) विरोधी पक्षकार (Opposing parties), (b) विवाद का विषय (Subject-matter in dispute), (c) वादकरण/वादमूल (Cause of action) एवं (d) राहत/उपाय (Relief)
एक वाद और उसके विषय में अहम् बातें जान लेने के बाद आइये आगे बढ़ते हैं और यह समझते हैं कि एक वाद में कौन 'आवश्यक पक्षकार' (Necessary Party) होते हैं एवं कौन उचित पक्षकार (Proper Party)। गौरतलब है कि इस लेख में हम यह समझेंगे कि एक वाद में किन पक्षकारों का जोड़ा जाना आवश्यक है, और कौन होते हैं आवश्यक पक्षकार एवं कौन होते हैं उचित पक्षकार।
आवश्यक पक्षकार (Necessary Party) कौन होते हैं?
वे सभी पक्षकार जिनकी अनुपस्थिति में किसी शिकायत (वाद के रूप में) पर विचार नहीं किया जा सकता है, या ऐसी शिकायत के सम्बन्ध में ऐसी राहत प्रदान नहीं की जा सकती है, वे "आवश्यक पक्षकार" के रूप में जाने जाए हैं।
दूसरे शब्दों में, 'आवश्यक पार्टी' वह है, जिसकी उपस्थिति के बिना विवाद का कोई प्रभावी और पूर्ण निर्धारण नहीं किया जा सकता है, और कोई राहत नहीं दी जा सकती है। एक तरह से यह कहा जा सकता है कि एक आवश्यक पक्षकार वह है जिसकी उपस्थिति के बिना वाद आगे बढ़ ही नहीं सकता है।
एक प्रसिद्ध मामले, कस्तूरी बनाम अय्यमपेरुमल (2005) 6 SCC 733 में यह आयोजित किया गया था कि एक आवश्यक पक्षकार कौन है, इस प्रश्न को निर्धारित करने के लिए 2 परीक्षण संतुष्ट किये जाने होंगे। ये परिक्षण हैं:-
(1) कार्यवाही में शामिल विवादों के संबंध में ऐसे पक्षकार के खिलाफ कुछ राहत का अधिकार होना चाहिए;
(2) ऐसे पक्षकार की अनुपस्थिति में कोई प्रभावी डिक्री पारित नहीं की जा सकती।
गौरतलब है कि किसी मामले में कोई व्यक्ति सिर्फ इसलिए एक आवश्यक पार्टी नहीं बन जायेगा कि उस मामले से सम्बंधित कुछ सवालों के जवाब देने के लिए उसके पास प्रासंगिक सबूत हैं; यह बात केवल उसे एक आवश्यक गवाह बना सकती है।
इसके अलावा, केवल इसीलिए कि एक व्यक्ति के पास किसी सिविल मामले से सम्बंधित कुछ सवालों के जवाब हैं, या मामले के उचित उपाय/निवारण में उसकी रुचि है, या वह मामले में प्रासंगिक तर्क दे सकता है, कोई आवश्यक पक्षकार नहीं बन जाता है।
एकमात्र कारण जिसके चलते किसी व्यक्ति को सिविल कार्रवाई के लिए एक आवश्यक पक्षकार कहा जा सकता, वह यह है कि वह व्यक्ति कार्रवाई के परिणाम से बाध्य होना चाहिए। इसके अलावा, यह देखा जाना चाहिए कि उस कार्रवाई में जिन प्रश्नों का निर्धारण/निपटारा किया जाना है, क्या उनका निपटारा प्रभावी और पूर्ण रूप से तबतक नहीं किया जा सकता जब तक कि ऐसा व्यक्ति पार्टी न हो?
इसलिए, यह आवश्यक है कि व्यक्ति की कार्यवाही के जवाब में, सीधे या कानूनी रूप से दिलचस्पी होनी चाहिए, अर्थात्, वह कह सकता है कि मुकदमेबाजी का परिणाम ऐसा हो सकता है जो उसे कानूनी रूप से प्रभावित करेगा यानी कि जिससे उसके कानूनी अधिकारों का हनन होगा - रमेश हीराचंद कुंदनमल बनाम नगर निगम ग्रेटर बॉम्बे एवं अन्य [(1992) 2 एससीसी 524]।
उचित पक्षकार (Proper Party)
एक उचित पार्टी या पक्षकार वह है जिसकी अनुपस्थिति में एक प्रभावी आदेश तो दिया जा सकता है, लेकिन जिसकी उपस्थिति, कार्यवाही में शामिल प्रश्न पर पूर्ण और अंतिम निर्णय के लिए आवश्यक है। किसी मामले में उचित पक्षकर वह है, जो यदि उपस्थित हो तो अदालत द्वारा मामले का निपटारा बेहतर ढंग से किया जा सकता है।
ऐसे पक्षकार जिसकी उपस्थिति को शिकायत के प्रभावी समायोजन के लिए उचित माना जा सकता है, एक सिविल कार्यवाही के लिए एक "उचित पक्ष" हैं।
बालूराम बनाम पी. चेलाथंगम एवं अन्य 2015 एआईआर (एससी) 1264 के मामले में यह देखा गया था कि एक "उचित पार्टी" वह पार्टी है, जो एक आवश्यक पार्टी नहीं है, लेकिन वह एक ऐसा व्यक्ति है, जिसकी उपस्थिति, अदालत को वाद में मौजूद विवाद के सभी मामलों/आयामों पर पूरी तरह से, प्रभावी और पर्याप्त रूप से निर्णय लेने में सक्षम करेगी, हालांकि यह जरुरी नहीं कि उसके पक्ष में, या उसके खिलाफ डिक्री होनी हो।
इसे उदाहरण से समझने के लिए, मान लीजिये किसी मामले में एक मकान मालिक अपने किरायेदार से कब्ज़ा हासिल करने के लिए अदालत पहुँचता है, अब यहाँ किरायेदार 'आवश्यक पक्षकार' होगा, परन्तु एक उप-किरायेदार/शिकमी किरायेदार (sub-tenant) केवल एक 'उचित पक्षकार' होगा। इसी प्रकार, जहाँ बेटों द्वारा अपने पिता के विरुद्ध बंटवारे का वाद लाया जाता है, वहां पोते केवल 'उचित पक्षकार' होंगे न कि 'आवश्यक पक्षकार'।
एक व्यक्ति को एक उचित पार्टी के रूप में इसलिए जोड़ा जाता है, ताकि अंत में प्रभावी रूप से सूट का फैसला किया जा सके और भविष्य के अनावश्यक मुकदमों से भी बचा जा सके। यदि किसी पक्ष को एक उचित पक्ष के रूप में शामिल नहीं किया जाता है, तो संभावना यह होती है कि वाद के समापन के बाद, उक्त व्यक्ति अपने मामले के साथ अदालत से संपर्क कर सकता है कि उसे पिछले सूट में एक पार्टी के रूप में निहित नहीं किया गया था।
इसलिए, भविष्य में अनावश्यक मुकदमों से बचने के लिए, अदालतों द्वारा आमतौर पर एक उचित पक्षकार के रूप में एक सूट के साथ संबंधित सभी व्यक्तियों को शामिल करने के लिए उचित मौके दिए जाते हैं। अदालत द्वारा ऐसा किया जाना न्याय के हित में होता है।
निष्कर्ष
अंत में, जैसा कि उदित नारायण सिंह मलपहरिया बनाम अतिरिक्त सदस्य, बोर्ड ऑफ़ रेवेन्यु 1963 SCR Supl. (1) 676 के मामले में कहा गया है, एक आवश्यक पार्टी वह है जिसकी उपस्थिति के बिना कोई आदेश प्रभावी ढंग से पारित नहीं किया जा सकता है, वहीँ एक उचित पार्टी वह है जिसकी अनुपस्थिति में एक प्रभावी आदेश तो दिया जा सकता है, लेकिन जिसकी उपस्थिति कार्यवाही में शामिल प्रश्न पर पूर्ण और अंतिम निर्णय के लिए आवश्यक है।
इसके अलावा M/S अलीजी मोमोजी एंड कंपनी बनाम लालजी मावजी एवं अन्य AIR 1997 SC 64 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह देखा था कि यह कानून अच्छी तरह से तय किया गया है कि जहाँ प्रतिवादी की मौजूदगी, विवादों के पूर्ण और प्रभावी स्थगन के लिए आवश्यक है, हालाँकि जिसके विरुद्ध कोई राहत नहीं मांगी गई है, वह एक उचित पक्षकार है। वहीँ आवश्यक पार्टी वह है, जिसकी उपस्थिति के बिना विवाद का कोई प्रभावी और पूर्ण निर्धारण नहीं किया जा सकता है, और कोई राहत नहीं दी जा सकती है।
यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि एक आवश्यक पक्षकार की अनुपस्थिति में डिक्री नहीं पारित की जा सकती है, हालाँकि एक उचित पक्षकार की अनुपस्थिति में डिक्री पारित की जा सकती है (जहाँ तक वह डिक्री अदालत के समक्ष उपस्थित पक्षकारों से सम्बंधित हो) लेकिन यह बेहतर होता है यदि अदालत के समक्ष उचित पक्षकार भी उपस्थित हो।