क्या विधानसभा अपने सदस्यों को चल रहे सत्र से आगे निलंबित कर सकती है?

Update: 2025-01-04 11:15 GMT

सुप्रीम कोर्ट के फैसले आशीष शेलार और अन्य बनाम महाराष्ट्र विधान सभा और अन्य (2022) में इस सवाल पर विचार किया गया कि क्या विधानसभा अपने सदस्यों को चल रहे सत्र (Ongoing Session) से आगे निलंबित कर सकती है।

कोर्ट ने 12 विधायकों के एक साल के निलंबन को असंवैधानिक (Unconstitutional) करार देते हुए इसे रद्द कर दिया। इस फैसले में संवैधानिक सिद्धांतों (Constitutional Principles), प्राकृतिक न्याय (Natural Justice), और प्रक्रिया के नियमों (Procedural Rules) पर जोर दिया गया।

संवैधानिक ढांचा (Constitutional Framework)

भारत का संविधान विधानसभाओं को अनुच्छेद 194 और 212 के तहत स्वायत्तता (Autonomy) प्रदान करता है। हालांकि, ये शक्तियां (Powers) पूर्ण नहीं हैं और इन्हें संवैधानिक सीमाओं और न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) का पालन करना आवश्यक है।

अनुच्छेद 194 विधानसभाओं को उनके कार्य संचालन और मर्यादा बनाए रखने का अधिकार देता है, लेकिन ये अधिकार मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights) और संवैधानिक सुरक्षा उपायों (Constitutional Safeguards) के अधीन हैं।

सत्र से आगे निलंबन के मुद्दे (Issues in Suspension Beyond Session)

मूल प्रश्न यह था कि क्या विधानसभा सदस्यों को चल रहे सत्र के बाद भी निलंबित कर सकती है। महाराष्ट्र विधानसभा के नियम 53 (Rule 53) के अनुसार, निलंबन की अवधि केवल चल रहे सत्र तक ही सीमित हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विधायी स्वायत्तता (Legislative Autonomy) मौलिक अधिकारों या संवैधानिक सुरक्षा उपायों का उल्लंघन नहीं कर सकती।

प्राकृतिक न्याय और प्रक्रिया की निष्पक्षता (Natural Justice and Procedural Fairness)

सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि किसी भी दंडात्मक कार्रवाई (Punitive Action), जैसे निलंबन, को प्राकृतिक न्याय (Natural Justice) के सिद्धांतों के अनुरूप होना चाहिए। निलंबित विधायकों को अपना पक्ष रखने का मौका नहीं दिया गया, जो प्रक्रिया की निष्पक्षता (Procedural Fairness) का उल्लंघन था।

इसके अलावा, स्पष्ट कारण और साक्ष्यों (Evidence) की अनुपस्थिति ने इस निलंबन को मनमाना (Arbitrary) और असंवैधानिक बना दिया।

विधायी कार्यों की न्यायिक समीक्षा (Judicial Review of Legislative Actions)

राजा राम पाल बनाम लोकसभा अध्यक्ष (2007) जैसे ऐतिहासिक मामले का हवाला देते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने दोहराया कि विधायी कार्य (Legislative Actions) मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights) के उल्लंघन की स्थिति में न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं। हालांकि अदालतें विधायी प्रक्रियाओं में हस्तक्षेप नहीं कर सकतीं, लेकिन वे संवैधानिक प्रावधानों (Constitutional Mandates), गंभीर अवैधता (Gross Illegality), या मनमानेपन (Arbitrariness) की जांच कर सकती हैं।

सीमित निलंबन पर फैसले का समर्थन (Precedents Supporting Limited Suspension)

कोर्ट ने कुछ महत्वपूर्ण मामलों का उल्लेख किया:

• अलागापुरम आर. मोहनराज बनाम तमिलनाडु विधान सभा (2016), जिसमें निलंबन के मामलों में प्रक्रिया की निष्पक्षता (Procedural Fairness) को सुनिश्चित करने पर जोर दिया गया।

• किहोटो होलोहोन बनाम जाचिल्हु और अन्य (1992), जिसने यह स्पष्ट किया कि न्यायपालिका का काम यह सुनिश्चित करना है कि विधायी विशेषाधिकार (Legislative Privileges) संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन न करें।

अनुशासन और लोकतंत्र के बीच संतुलन (Balance Between Discipline and Democracy)

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एक साल का निलंबन अत्यधिक था और प्रतिनिधित्व के लोकतांत्रिक सिद्धांत (Democratic Principle of Representation) का उल्लंघन करता था। कोर्ट ने यह भी कहा कि निर्वाचन क्षेत्रों (Constituencies) को प्रतिनिधित्व से वंचित नहीं किया जा सकता। निलंबन की अवधि को केवल चल रहे सत्र तक सीमित किया गया, जो नियम 53 और संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप था।

आशीष शेलार बनाम महाराष्ट्र विधान सभा का यह फैसला विधायी स्वायत्तता (Legislative Autonomy) और संवैधानिक सर्वोच्चता (Constitutional Supremacy) के बीच संतुलन स्थापित करता है। यह दिखाता है कि विधानसभाओं को अनुशासन बनाए रखना चाहिए, लेकिन यह संविधान के दायरे में रहकर किया जाना चाहिए। यह फैसला लोकतांत्रिक मूल्यों और मौलिक अधिकारों की सुरक्षा सुनिश्चित करने में एक मील का पत्थर है।

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