सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 68: आदेश 14 नियम 1 के प्रावधान

Update: 2024-01-04 13:07 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 14 विवाद्यकों का स्थिरीकरण और विधि विवाद्यकों के आधार पर या उन विवाद्यकों के आधार पर जिन पर रजामन्दी (सहमति) हो गई है वाद का अवधारण से संबंधित है। यह विचारण से ठीक पूर्व का प्रक्रम है। इस स्तर पर न्यायालय किसी भी वाद में वाद प्रश्न तय कर देती है अर्थात उन नियमों को तय कर देती है जिस पर विचारण कर न्यायलय अपना निर्णय देगी। यह संहिता का एक महत्वपूर्ण आदेश है एवं इसका विस्तार पूर्वक अध्ययन किया जाना चाहिए। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 14 के नियम 1 पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

नियम-1 विवाद्यकों की विरचना (1) विवाद्यक तब पैदा होते हैं जब कि तथ्य या विधि की कोई तात्विक प्रतिपादना एक पक्षकार द्वारा प्रतिज्ञात और दूसरे पक्षकार द्वारा प्रत्याख्यात की जाती है।

(2) तात्विक प्रतिपादनाएं विधि या तथ्य की वे प्रतिपादनाएं है जिन्हें वाद लाने का अपना अधिकार दर्शित करने के लिए वादी को अभिकथित करना होगा या अपनी प्रतिरक्षा गठित करने के लिए प्रतिवादी को अभिकथित करना होगा।

(3) एक पक्षकार द्वारा प्रतिज्ञात और दूसरे पक्षकार द्वारा प्रत्याख्यात हर एक तात्विक प्रतिपादना एक सुभिन्न विवाद्यक का विषय होगी।

(4) विवाद्यक दो किस्म के होते हैं-

(क) तथ्य विवायक,

(ख) विधि दिदायक

(5) न्यायालय वाद की प्रथम सुनवाई में वादपत्र को और यदि कोई लिखित कथन हो तो उसे पढ़ने के पश्चात् और 'आदेश 10 के नियम 2 के अधीन परीक्षा करने के पश्चात् तथा पक्षकारों या उनके प्लीडर की सुनवाई करने के पश्चात यह अभिनिश्चित करेगा कि तथ्य की या विधि की कि तात्विक प्रतिपादनाओं के बारे में पक्षकारों में मतभेद है और तब यह उन विवाद्यकों की विरचना और अभिलेखन करने के लिए अग्रसर होगा जिनके बारे में यह प्रतीत होता है कि मामले का ठीक विनिश्चय उन पर निर्भर करता है।

(6) इस नियम की कोई भी बात न्यायालय से यह अपेक्षा नहीं करती कि वह उस दशा में विवाद्यक विरचित और अभिलिखित करे जब प्रतिवादी वाद की पहली सुनवाई में कोई प्रतिरक्षा नहीं करता।

विवाद्यकों की विरचना के नियम- आदेश 14 के नियम 1 के उपनियम (1) से (4) में विवाद्यक बनाने के आधारभूत नियम दिये गये हैं, जिनका सारांश इस प्रकार है-

(1) जब तथ्य या विधि को कोई तात्विक प्रतिपादना (कथन) को एक पक्षकार स्वीकार करे और दूसरा उसे अस्वीकार करे, तो इनके बीच उत्पन्न प्रश्न विवाद्यक या वाद प्रश्न होता है।

(2) प्रत्येक तात्विक प्रतिपादना के लिए एक अलग विवाद्यक बनाया जायेगा।

(3) ऐसे विवाद्यक दो किस्म (प्रकार) के होते हैं- (क) तथ्य विवाद्यक और (ख) विधि-विवाद्यक, जब तथ्य और विधि का मिश्रित प्रश्न अन्तर्वलित होता है, तो विधि और तथ्य का मिश्रित विवाद्यक भी उत्पन्न होता है।

विवाद्यक विरचित करना न्यायालय का कर्त्तव्य (उपनियम 5) - सिविल प्रक्रिया संहिता के अधीन विवाद्यक बनाना न्यायालय का कर्तव्य है।

उपनियम (5) के अनुसार- (1) न्यायालय वाद को प्रथम सुनवाई के दिन-

(क) वादपत्र और लिखित-कथन (यदि कोई हो) अर्थात् अभिवचन पढ़ने के पश्चात् और

(ख) आदेश 10 के नियम 2 के अधीन परीक्षा करने के पश्चात्, और

(ग) पक्षकारों और उनके प्लीडरों को सुनवाई करने के बाद।

जिन तात्विक प्रतिपादनाओं (मुख्य तथ्यों) पर पक्षकारों में मतभेद है और जो मामले के विवाद के ठीक निर्णय के लिए आवश्यक हैं उन पर विवाद के प्रश्नों को विवाद्यक के रूप में विरचित कर लेखबद्ध करेगा।

उपनियम 6 के अनुसार जब प्रतिवादी कोई प्रतिरक्षा पहली सुनवाई के समय नहीं करे, तो न्यायालय से यह अपेक्षा को जा सकती कि वह उस दिशा में उसी दिन विवाद्यक बनाये। इसके लिए आगे का दिनांक तय किया जा सकता है।

यह न्यायालय का कर्तव्य है कि वह स्वयं अभिवचन की परीक्षा करे और केवल पक्षकारों द्वारा फाइल किए गए प्रस्तावित विवाद्यकों पर ही निर्भर न रहे। फिर भी न्यायालय के इस दायित्व में दोनों पक्षकारों की ओर से वकीलों को योगदान करना चाहिए। विवाद्यक की रचना का कार्य स्वयं न्यायालय को करना चाहिये।

एक वाद में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि-अभिवचनों से परे कोई विवाद्यक विरचित नहीं किया जा सकता है।

विधि-विवाद्यक पर विनिश्चय -

वाद की संधारणीयता के बारे में प्रतिवादी द्वारा उठाये गये सभी विधि-प्रश्नों पर इस प्रक्रम पर विचार नहीं किया जा सकता, जब वाद हेतुक प्रकट न करने के प्रश्न पर निर्णय किया जाता है। तथ्य या विधि के सभी प्रश्नों को आदेश 14, नियम 1 के उपबंधों के अनुसार एक विवाद्यक की विषय-सामग्री बनानी चाहिये। यह हो सकता है कि तथ्य के विवाद्यकों का विचारण करने को कार्यवाही के पहले विधिक विवाद्यकों का निर्णय किया जा सकेगा, परन्तु आदेश 7, नियम 11 के प्रारम्भिक प्रक्रम पर यह प्रश्न तय नहीं किया जा सकता कि वास्तव में क्या वाद संधारणीय है या नहीं।

प्रारम्भिक विवाद्यक-

एक वाद में विवाद्यकों के स्थरीकरण हेतु समन जारी किये गये एवं वाद प्रारम्भिक विवाद्यक के निस्तारण हेतु सूचीबद्ध था। न्यायालय पक्षकार के शील, चरित्र व दस्तावेजों की वैधानिकता जाँच नहीं करेगा एवं इसी आधार पर वाद खारिज नहीं किया जायेगा।

अभिवचन (प्लीडिंग्स) का अर्थ तथा स्वीकृतियों का प्रभाव -

आदेश 6, नियम 1 में अभिवचन की परिभाषा इस प्रकार दो गई है-" अभिवचन" से वादपत्र या लिखित कथन अभिप्रेत है। अभिवचन में विधि या तथ्य को तात्विक तथ्य या प्रतिपादनायें होती हैं, जिनको एक पक्षकार प्रतिज्ञात (स्वीकार) करता है और दूसरा अस्वीकार करता है, तो उनसे एक वाद-प्रश्न या विवाद्यक उत्पन्न होता है।

जब कोई पक्षकार अपने अभिवचन में किसी प्रतिपादना (तथ्य) को स्वीकार कर लेता है, तो उसे सुनवाई में साबित करने की आवश्यकता नहीं है परन्तु न्यायालय किसी स्वीकृत तथ्य के लिए भी साक्ष्य की मांग कर सकता है। अतः ऐसे स्वीकृत तथ्यों के बारे में विवाद्यक बनाने की आवश्यकता नहीं होती है। ये स्वीकृतियाँ वास्तविक या आन्वयिक हो सकती है।

विवाद्यकों की रचना-

विधि के उपबंध का उल्लेख - परिसीमा अधिनियम के अनुच्छेद 142 के लागू होने का प्रश्न विवाद्यक के रूप में प्रस्तुत नहीं किया गया अथवा उसके लागू होने का विवाद्यक विरचित हो नहीं किया। विरचित विवाद्यक के बारे में यह आवश्यक नहीं है कि उसे लागू किये जाने के लिये उसमें विधि के उपबंध का उल्लेख किया जाए।

जब प्रतिरक्षा में असुविधा नहीं- यदि विवाद्यक बारीकी से न रचे गये हों किन्तु सम्बन्धित पक्षकार को अपनी प्रतिरक्षा का पूर्ण एवं सम्यक् अवसर प्रदान किया गया हो तो यह नहीं कहा जा सकता है कि सम्बन्धित पक्षकार को ऐसे संदिग्ध विवाद्यकों के कारण अपनी प्रतिरक्षा में असुविधा हुई है।

विवाद्यक बनाने के लिए विवाद का विशदीकरण - 1976 के संशोधन के बाद संविवाद का विरादीकरण (स्पष्ट करने) के लिए पक्षकार की परीक्षा करना बाध्यकारी (अनिवार्य) है।

वाद की प्रथम सुनवाई-

एक मामले में उच्चतम न्यायालय के अभिमत के अनुसार, इसका अर्थ कभी भी पक्षकारों की प्रारम्भिक परीक्षा और विवाद्यकों के स्थिरीकरण के लिए निश्चित किए गये दिनांक से पहले नहीं हो सकता। जहाँ राज्य के अधिनियमों में इस शब्दावली का प्रयोग किया गया है। वहाँ राज्य के उच्च न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय इस शब्दावली के निर्वचन के लिए सर्वश्रेष्ठ मार्गदर्शक हैं। अतः इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जब उ.प्र. नगर भवन (पट्टा, किराया एवं बेदखली) अधिनियम, 1972 की धारा 20 (4) में शब्दावली वाद को पहली सुनवाई का अर्थ विवाद्यक बनाने के बाद जब वाद का विचारण करने और साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिए दिनांक तय की जाती है वह पहली सुनवाई को दिनांक स्वीकार किया है, तो इसमें कोई गलती गलती नहीं है।

विवाद्यक बनाने के लिए बादी का आवेदन करना आवश्यक नहीं - एक वाद में संयुक्त कुटुम्ब को सम्पत्ति के अन्य संक्रामण को एक सहदायिकों द्वारा चुनौती दी गई। इसके प्रतिफल को पर्याप्तता के बारे में बताना होगा। इसके लिए वादी द्वारा आवेदन करना कोई पूर्व शर्त नहीं है।

विवाद्यक बनाना-

साधारणतया लिखित कथन में उठाये गये प्रश्न (कथन) पर एक विवाद्यक (वाद प्रश्न) बनाया जाता है, परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि सभी कथनों पर विवाद्यक बनाया जाए। विवाद्यक विधि और तथ्य के प्रश्नों पर निपटारा करने के लिए बनाये जाते हैं।

एक प्रकरण में कहा गया है कि लाइसेन्स फीस या किराये की बकाया की वसूली के वाद में यह साबित हो गया कि प्रतिवादी को वादी मकान में लाया था। यहाँ एक आवश्यक नहीं है कि प्रतिवादी की स्थिति के बारे में कोई विवाद्यक बनाया जाए कि-प्रतिवादी लाइसेंसी है या किरायेदार। चाहे लिखित कथन में ऐसा कथन उठाया गया हो। अतः यह वाद सिविल न्यायालय द्वारा विचारण योग्य है। कब्जा प्राप्ति के लिए किए गए वाद में प्रतिवादी को परिस्थिति का प्रश्न तय करना आवश्यक होता है, किराया वसूली के वाद में नहीं।

स्पष्ट इन्कार (प्रत्याख्यान) नहीं करने का प्रभाव - एक बेदखली के वाद में, वादपत्र में किराये की अदायगी में चूक (व्यतिक्रम का स्पष्ट कथन किया गया था, परन्तु प्रतिवादी (किरायेदार) ने उससे स्पष्ट इन्कार नहीं किया। अतः यह तथ्य स्वीकार किया गया माना जाएगा। अतः उसको जाँच के लिए विवाद्यक को विरचना करने का प्रश्न ही नहीं उठता था। हम यह अभिवचन प्रथम बार इस प्रक्रम पर करने को अनुमति नहीं दे सकते जब कि प्रत्यर्थी द्वारा जमा की गई किराये की कथित राशि, यदि कोई हो, उच्च न्यायालय के स्तर तक कभी नहीं उठायी गयी। बेदखली का विचारण न्यायालय का आदेश पुनः स्थापित किया गया।

विवाद्यक (वाद प्रश्न) की विरचना का प्रभाव-

किरायेदार द्वारा किराये देने में चूक करने के आधार पर बेदखली को डिक्री दी गई। उसे इस आधार पर अपास्त नहीं किया जा सकता कि-चूक का प्रमाण चाहने वाला विनिर्दिष्ट विवाद्यक उसमें नहीं बनाया गया था।

विवाद्यक (वाद प्रश्न) बनाना जब उचित नहीं- जब वादी का दावा केवल रूढ़िगत अधिकार पर आधारित था, तो ऐसा वाद प्रश्न बनाना उचित नहीं है। जब धारा 106 सम्पत्ति अन्तरण अधिनियम के अधीन किरायेदार को नोटिस देना आवश्यक नहीं था, तो उस बारे में वाद प्रश्न (इश्यू) नहीं बनाने से वाद को सक्षमता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

विवाद्यक बनाना -

यदि विवाद्यक बनाने में कोई त्रुटि (गलती) रह जाये और अपने द्वारा प्रस्तुत मामले को पक्षकार जानते हों, तो ऐसी त्रुटि से पक्षकारों को कोई हानि नहीं होगी। एक दूसरे मामले में एक तथ्य का निपटारा बिना विवाद्यक बनाये ही कर दिया गया था। इसका पक्षकारों को पता था और उन्होंने इस प्रश्न पर पर्याप्त साक्ष्य भी दिया था, तो विवाद्यक नहीं बनाना घातक नहीं है और मामले को वापिस भेजकर विवाद्यक बनाकर निर्णय करने का निदेश देने या वाद को खारिज करने की आवश्यकता नहीं है।

विवाद्यक बनाने में असफलता का प्रभाव - विवाद्यक विरचित करने में विचारण न्यायालय द्वारा लोप उस दशा में घातक होगा यदि विवाद्यक विरचित करने में असफलता के परिणामस्वरूप घोर अन्याय हुआ है। विचारण न्यायालय द्वारा विवाद्यक विरचित किए जाने में असफलता की दशा में अपील न्यायालय को मामले को प्रतिप्रेषित करने को बजाय स्वयं ऐसा विवाद्यक विरचित करना और उसे विनिश्चित करना चाहिए। केवल इस कारण ही कि विचारण न्यायालय द्वारा कोई विवाद्यक विरचित करने में असफलता हुई है, उन सभी विवाद्यकों पर जो विरचित किये गये हैं और जिन पर विचारण न्यायालय द्वारा निष्कर्ष लेखबद्ध किया गया है, नये सिरे से विचारण का आदेश नहीं दिया जायेगा।

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