सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 45: प्रतिदावा (काउंटर क्लेम) से संबंधित प्रावधान

Update: 2023-12-20 14:58 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 8 लिखित कथन से संबंधित है जो प्रतिवादी का प्रतिवाद पत्र होता है। आदेश 8 के नियम 6 में नियम 6(क) से लेकर नियम 6(छ) तक नियम जोड़े गए हैं एवं उन्हें जोड़कर प्रतिदावे से संबंधित प्रावधानों को स्पष्ट किया गया है। सीपीसी में प्रतिदावा से संबंधित प्रावधान ठीक मुजरा के प्रावधान के बाद उपलब्ध करवाए गए हैं। इस आलेख के अंतर्गत प्रतिदावा से संबंधित इन्हीं नियमों पर चर्चा की जा रही है।

नियम-6(क) प्रतिवादी द्वारा प्रतिदावा (1) वाद में प्रतिवादी नियम 6 के अधीन मुजरा के अभिवचन के अपने अधिकार के अतिरिक्त वादी के दावे के विरुद्ध प्रतिदावे के रूप में किसी ऐसे अधिकार या दावे को, जो वादी के विरुद्ध प्रतिवादी को, वाद फाइल किए जाने के पूर्व या पश्चात् किन्तु प्रतिवादी द्वारा अपनी प्रतिरक्षा परिदत्त किए जाने के पूर्व या अपनी प्रतिरक्षा परिदत्त किए जाने के लिए परिसीमित समय का अवसान हो जाने के पूर्व, किसी वाद हेतुक के बारे में प्रोद्भूत हुआ हो, उठा सकेगा चाहे ऐसा प्रतिदावा नुकसानी के दावे के रूप में हो या नहीं:

परन्तु ऐसा प्रतिदावा न्यायालय की अधिकारिता की धन-संबंधी सीमाओं से अधिक नहीं होगा।

(2) ऐसे प्रतिदावे का प्रभाव प्रतीपवाद के प्रभाव के समान ही होगा जिससे न्यायालय एक ही वाद में मूल दावे और प्रतिदावे दोनों के सम्बन्ध में अन्तिम निर्णय सुनाने के लिये समर्थ हो जाए।

(3) वादी को इस बात की स्वतंत्रता होगी कि वह प्रतिवादी के प्रतिदावे के उत्तर में लिखित कथन ऐसी अवधि के भीतर जो न्यायालय द्वारा नियत की जाए, फाइल करे।

(4) प्रतिदावे को वादपत्र के रूप में माना जाएगा और उसे वही नियम लागू होंगे जो वाददपत्रों को लागू होते हैं।

6(ख) प्रतिदावे का कथन किया जाना-जहाँ कोई प्रतिवादी, प्रतिदावे के अधिकार का समर्थन करने वाले किसी आधार पर निर्भर करता है वहाँ यह अपने लिखित कथन में यह विनिर्दिष्टतः कथन करेगा कि वह ऐसा प्रतिदावे के रूप में कर रहा है

6(ग) प्रतिदावे का अपवर्जन-जहाँ प्रतिवादी कोई प्रतिदावा उठाता है और वादी यह दलील देता है कि उसके द्वारा उठाए गए दावे का निपटारा प्रतिदावे के रूप में नहीं वरन् स्वतंत्र वाद में किया जाना चाहिए, वहाँ वादी प्रतिदावे के सम्बन्ध में विवाद्यकों के तय किए जाने से पूर्व किसी भी समय न्यायालय से इस आदेश के लिए आवेदन कर सकेगा कि ऐसे प्रतिदावे का अपवर्जन किया जाए और न्यायालय ऐसे आवेदन की सुनवाई करने पर ऐसा आदेश कर सकेगा जो वह ठीक समझे।

6(घ) वाद के बन्द कर दिए जाने का प्रभाव-यदि किसी मामले में जिसनें प्रतिवादी कोई प्रतिदावा उठाता है, वादी का वाद रोक दिया जाता है, बन्द या खारिज कर दिया जाता है तो ऐसा होने पर भी प्रतिदावे पर कार्यवाही की जा सकेगी।

6(ड़) प्रतिदावे का उत्तर देने में वादी द्वारा व्यतिक्रम-यदि वादी प्रतिवादी द्वारा किए गए प्रतिदावे का उत्तर प्रस्तुत करने में व्यतिक्रम करता है तो न्यायालय वादी के विरुद्ध उस प्रतिदावे के सम्बन्ध में जो उसके विरुद्ध किया गया है, निर्णय सुना सकेगा या प्रतिदावे के सम्बन्ध में ऐसा आदेश कर सकेगा जो वह ठीक समझे।

6(च) जहाँ प्रतिवादी सफल होता है वहाँ प्रतिवादी को अनुतोष-जहाँ किसी वाद में वादी के दावे के विरुद्ध प्रतिरक्षा के रूप में मुजरा या प्रतिदावा सिद्ध कर दिया जाता है और कोई ऐसा अतिशेष पाया जाता है जो, यथास्थिति, वादी या प्रतिवादी को शोध्य है वहाँ न्यायालय ऐसे पक्षकार के पक्ष में जो ऐसे अतिशेष के लिए हकदार हो, निर्णय दे सकेगा।

6(छ) लिखित कथन से सम्बन्धित नियमों का लागू होना-प्रतिवादी द्वारा दिए गए लिखित कथन से सम्बन्धित नियम प्रतिदावे के उत्तर में फाइल किए गए लिखित कथन को भी लागू होंगे।

प्रतिदावा से संबंधित मूल सिद्धांत इस प्रकार हैं-

(1) प्रतिदावा, नियम 6 में वर्णित मुजरा के अधिकार के अतिरिक्त अधिकार है- अर्थात्- मुजरा के साथ-साथ प्रतिदावा भी किया जा सकता है।

(2) प्रतिदावा किसी ऐसे वादहेतुक के बारे में जो प्रतिरक्षा या प्रतिवाद प्रस्तुत करने के समय तक कभी भी व्त्पन्न हुआ हो, किया जा सकेगा, चाहे उसमें नुकसानी का दावा हो या नहीं।

(3) इस प्रकार प्रतिदावा एक स्वतंत्र वादहेतुक के आधार पर किए जाने वाले प्रतीपवाद (cross suit) के समान है, जिसे वादपत्र के रूप में माना जावेगा और वाद-पत्र सम्बन्धी नियम लागू होंगे।

(4) परन्तु ऐसे प्रतिदावे में मांगी गई राशि न्यायालय की अधिकारिता को धन सम्बन्धी सीमाओं से अधिक नहीं होगी।

(5) प्रतिवाद-पत्र (लिखित कथन) में प्रतिवादी यह स्पष्ट उल्लेख करेगा कि यह प्रतिदावे के रूप में ये आधार दे रहा है। उसे वादपत्र की तरह ही उस अधिकार से सम्बन्धित तात्विक तथ्यों का कथन करना होगा और विशिष्टियों देनी होंगी।

(6) वादी को इस प्रतिदावे का उत्तर न्यायालय द्वारा नियत अवधि के भीतर 'लिखित कथन' के रूप में देना होगा। इसके अभिवचन के बारे में प्रतिवाद-पत्र सम्बन्धी नियम लागू होंगे।

(7) ऐसा प्रतिदावा नुकसानी के दावे के रूप में हो या नहीं आदेश 8 नियम 6क के शब्दों से पह सुस्पष्ट प्रकट होता है कि प्रतिदावा ऐसे किसी भी विषय जिसके बाबत् स्वतंत्र वाद लाया जा सकता है, प्रस्तुत किया जा सकता है। यह आवश्यक नहीं है कि प्रतिदावा का वाद हेतुक मूल वाद हेतुक से सम्बन्धित होवे। केवल वाद का पक्षकार प्रतिदावा ला सकता है।

(8) प्रतिकूल कब्जा के आधार पर स्वत्व की घोषणा के वाद में प्रतिवादी के कब्जा के आधार पर प्रतिदावा में प्रतिवादी को कब्जा व स्थायी व्यादेश का अनुतोष अनुज्ञेय है।

प्रतिदावे का प्रभाव और परिणाम - उपरोक्त नियम 6 से 6(छ) तक में किए गए उपबन्धों का नियम इस प्रकार है-

(1) प्रतिदावा उठाने पर वादी उसके अपवर्जन के लिए आवेदन कर सकता है कि उस प्रतिदावे का एक स्वतंत्र दावे के रूप में निपटारा किया जाना चाहिए। (नियम 67)

(2) प्रतिदावा उठाने के बाद (अर्थात् प्रतिवाद-पत्र प्रस्तुत करने के बाद, जिसमें प्रतिदावा उठाया गया है) यदि वादी का वाद रोक दिया जाए, या उसे वादी बन्द कर दे, वापस लेले या न्यायालय उसे खारिज कर दे अर्थात् किसी भी कारण से वादी का वाद समाप्त हो जाने पर भी प्रतिदावे पर कार्यवाही चालू रहेगी और उसे प्रतीपवाद को तरह निपटाकर डिक्री पारित की जावेगी। (नियम 6प) (3) नियम 6क (3) के अधीन प्रतिदावे के उत्तर में 'लिखित कथन' प्रस्तुत करने के लिए न्यायालय समय नियत करेगा, यदि वादी उस समय या न्यायालय द्वारा बढ़ाये गये समय में प्रतिदावे का उत्तर प्रस्तुत नहीं करता है तो इस व्यतिक्रम (चूक) के लिये न्यायालय के पास दो उपाय हैं- वह निर्णय सुना सकेगा, या उस प्रतिदावे के सम्बन्ध में उचित आदेश देगा।

मुख्य या प्रतिदावा सिद्ध हो जाने उसके लिये उसके पक्ष में निर्णय देगा तथा जो राशि शेष के रूप में जिस पक्षकार द्वारा शोध्य (वसूलनीय) पायी जावे, डिक्री पारित की जावेगी।

न्यायालय-निर्णयों में प्रतिपादित सिद्धान्त - प्रतिदावा एक ऐसा दावा है, जिसमें प्रतिवादी वादी द्वारा मांगे गये अधिकार से अधिक की मांग करता है। मुजरा करने के लिये अधिकृत व्य‌क्ति के अधिकारों या बकाया का वादी के दावे के साथ समायोजन करने का अधिकार है।

प्रतिदावे के किसी मामले में अवधि की गणना प्रतिवाद-पत्र की दिनांक से की जाती है, न कि उस दावे की दिनांक से। बेदखली के वाद में प्रतिरक्षा वादी के विरुद्ध प्रतिदावे में पट्टा निष्पादन करने की संविदा के विनिर्दिष्ट पालन का कथन नहीं कर सकता।

विवाद्यक बनने के पश्चात् एवं साक्ष्य बन्द हो जाने के बाद प्रतिदावा नहीं किया जा सकता।

प्रतिदावा केवल वादी के विरुद्ध ही किया जा सकता है। सह-प्रतिवादियों के विरुद्ध पेश किया गया प्रतिदावा पोषनीय नहीं। न्यायालय के क्षेत्राधिकार से परे स्थित सम्पत्ति के लिये प्रतिदावा पोषणीय नहीं है।

विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम के अधीन वादी द्वारा प्रस्तुत वाद में प्रतिवादी इस आधार पर प्रतिदावा नहीं ला सकता कि उसके द्वारा तृतीय पक्ष को बेची गई सम्पति को उस पक्ष ने अधिक मूल्य पर बेचा है।

वादी द्वारा संविदा को विनिर्दिष्ट अनुपालन करवाने के लिये प्रस्तुत वाद में प्रेसीडेंसी लघुवाद न्यायालय अधिनियम 1882 को धारा 41 के तहत वादी को वादग्रस्त सम्पत्ति से बेदखली का प्रतिदावा, न्यायालय को अधिकारिक न होने के आधार पर पोषणीय है।

विभाजन के वाद में प्रतिवादी ने प्रतिदावा के द्वारा वादग्रस्त सम्पत्ति से भिन्न सम्पति के बाबत् अन्य प्रतिवादीगण के विरुद्ध अनुतोष चाहा वादी के विरुद्ध इस भिन्न सम्पत्ति बाबत् कोई क्लेम नहीं किया। निर्धारित किया गया कि प्रतिवादी अन्य सम्पत्ति बाबत् सहप्रतिवादी के विरुद्ध प्रतिदावा नहीं ला सकता।

उच्चतम न्यायालय ने अपने नवीनतम फैसले में अभिनिर्धारित किया प्रतिदावा (Counter claim) प्रस्तुत करने का प्रतिवादी का एक अतिरिक्त अधिकार है कि यह अधिकार या दावे (claim) के लिए प्रतिदावा करें लेकिन यह आवश्यक है कि प्रतिदावा के लिए वादकारण दावा (Suit) प्रस्तुत करने से पूर्व या वाद में लेकिन प्रतिवादी द्वारा प्रतिरक्षा का अधिकार लेने से पहले उत्पन्न हो, अति देरी से प्रस्तुत किया गया प्रतिदावा पोषणीय नहीं होगा। प्रतिदावा प्रस्तुत करने का अधिकार प्रतिवादी का एक अतिरिक्त अधिकार है।

प्रतिदावे को प्रतीपवाद में वादपत्र के रूप में मानने के लिये न्यायालय की शक्ति- न्यायालय को यह छूट है कि वह एक प्रतिदावे को एक प्रतीपवाद के वादपत्र की तरह माने या बदल ले। वादियों ने वाद-भूमि पर अपने स्वत्व (टाइटिल) के आधार पर मामला बनाया है, जबकि प्रतिवादियों ने अपने प्रतिवाद-पत्रों में वादियों के स्वत्व से इनकार कर यह कथन किया है कि वे (प्रतिवादी) स्वामी थे और वादीगण किरायेदार थे। उन्होंने इस अनुतोष की मांग के लिये न्यायालय शुल्क का संदाय भी किया है। अभिनिर्धारित कि वाद बहुलता से बचने के लिये न्याय के हित में प्रतिवादियों के प्रतिदावे को प्रतीपवाद के रूप में समझा जावेगा।

बैंक ने अपने ऋणी के विरुद्ध एक वाद संस्थित किया, जिसने बैंक के पास अपना माल गिरवी रख दिया था। ऋणी ने मूल वादपत्र में अंकित मात्रा के आधार पर, न कि संशोधित वादपत्र में अंकित कम की गई। मात्रा के आधार पर, समायोजन की मांग की। बैंक द्वारा उस मांग पर ध्यान नहीं दिये जाने के लिये जो आवेदन दिया, वह चलने योग्य नहीं है।

प्रतिरक्षा से पहले प्रतिदावा नहीं - एक मामले में कहा गया है कि प्रतिवादी द्वारा अपनी प्रतिरक्षा प्रस्तुत करने से पहले प्रतिदावा प्रस्तुत करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती।

प्रतिदावे के लिये वादहेतुक उसे वाद संस्थित करने के पहले या वाद में उत्पन्न होना चाहिए, परन्तु यह उसकी प्रतिरक्षा प्रस्तुत करने या ऐसा करने के लिये दिये गये समय के समाप्त होने से पहले होना चाहिए। अवधि (समय) की परिसीमा स्पष्ट रूप से उस वादहेतुक के बारे में है जिस पर यह प्रतिदावा आधारित है। यह खण्ड प्रतिदावा देने के लिये कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं करता है।

वादोत्तर प्रस्तुत करते समय उपलब्ध वाद हेतुक के आधार पर प्रतिदावा प्रस्तुत किया जा सकता है। वादोत्तर प्रस्तुत करने के बाद उत्पन्न होने वाले वाद हेतुक के लिये प्रतिदावा अनुज्ञेय नहीं है। प्रतिवाद-पत्र में किया गया प्रतिदावे का वही प्रभाव होता है, जो एक प्रतीपवाद का होता है। इसलिए प्रतिदावे के लिये निर्धन व्यक्ति के रूप में वाद लाने की अनुमति के लिये दिये गये आवेदन को न्यायालय विधि के अनुसार निपटाने के लिये बाध्य है।

प्रतिदावा के के संबंध में महत्वपूर्ण नियम-

(1) प्रतिदावा स्वंय किसी धनीय दावे से संबंधित होगा, क्योंकि आदेश 8, नियम 6-च में अतिशेष के लिए निर्णय के बारे में कहा गया है।

(2) प्रतिदावा केवल उन्हीं वादों में किया जा सकता है, जहां धनराशि के दावे के हो।

यह वाद कब्जे में रहने के अधिकार के बारे में था, वादी ने इस घोषणा के लिए वाद किया था कि वह प्रश्नगत परिसर का अनुज्ञप्तिधारी (लाइसेन्स) था और वादपत्र में वर्णित अवधि के लिए उसे परिसर का कब्ज़ा रखने का अधिकार था। अतः प्रतिवादी यह प्रतिदावा नहीं कर सकता वाददी एक अतिक्रमी है और वादी को बेदखल किया जाए। निर्धारित कि ऐसा प्रतिदावा ग्रहण नहीं किया जा सकता।

प्रतिदावा का परिक्षेत्र-

प्रतिवादी किसी भी प्रकार के वाद में चाहे वह धन संबन्धी हो या अन्य प्रकार का, प्रतिदावा करने का हकदार है। यदि वादी का वाद उसके द्वारा वापस ले जाने के कारण खारिज कर दिया जाता है तो भी प्रतिवादी पर कार्यवाही की जा सकती है।

प्रतिदावा और मुजरा में अंतर-

मुजरा और प्रतिदावा में कुछ अंतर है। मुजरा भी एक अर्थ में वादी के विरुद्ध प्रतिदावा है, परन्तु साररूप में यह एक प्रतिरक्षा का रूप है, जिसमे प्रतिवादी वादी के दावे के न्याय को स्वीकार करते हुए अपने प्रतिशोध्य (काउन्टर बैलेन्स) की मांग रखता है, या तो सम्पूर्ण या भाग रूप में।

प्रतिदावा तात्विक रूप से एक प्रतीपवाद है, जो वास्तव में एक अपराध का शस्त्र है और यह प्रतिवादी के लिए वादी के विरुद्ध, उतना ही प्रभावशाली है जितना स्वतंत्र कार्यवाही में है, जो दावे के प्रवर्तन के लिए सशक्त बनाता है। यहां उसी प्रकार की समान कार्यवाही होने की आवश्यकता नहीं है, जैसी कि मूल कार्यवाही या उसके समान कार्यवाही होती है, हालांकि वह दावा न्यायालय द्वारा ग्रहण करने योग्य होना चाहिये। शब्दकोषीय अर्थ के अनुसार, यह दूसरे दावे को मुजरा करने का दावा है, विशेष रूप से विधि में, जहां मुजरा एक ऐसी बात है जो किसी बात को प्रति संतुलित करती है या दूसरी बात को तैयार करती है।

अतः यह प्रतिपादना है कि प्रतिदावा केवल धनीय वादों में किया जा सकता है, स्वीकार करने योग्य नहीं है। नियम 6क में ऐसी कोई बात नहीं है, जो ऐसे दावे को धन संबंधी वादों तक सीमित करती हो, जो यह कहने के लिए कि जो कुछ मांगा जा सकता है वह केवल प्रतिवादी को नियम 6 के अधीन वादी को जो बकाया है उसका मुजरा करने के बाद अधिक बची राशि मात्र है। शब्दावली नियम 6 के अधीन मुजरा के अभिवचन के अपने अधिकार के अतिरिक्त जो नियन 6-क में आई है, ऐसा प्रतिबंध लगाने के लिए साम्य नहीं हैं।

एक बैंक ने अपने दिये गये ऋण की वसूली के लिए वाद किया, तो प्रतिवादी ने बैंक के विरुद्ध बैंक द्वारा ऋण देने के कारण से हुई हानि के लिए नुकसानी मांगकर "प्रतिदावा" किया। अभिनिर्धारित की यह मुजरा था, न कि प्रतिदावा।

प्रतिवादी द्वारा एक वाद के उत्तर में प्रतिदावा प्रस्तुत किया। ऐसा प्रतिदावा लिखित कथन प्रस्तुत करने के बाद भी फाइल किया जा सकता है। प्रतिदावा प्रस्तुत करने के लिए साक्ष्य का अभिलिखित करना आरम्भ होने से पहले तक की समय सीमा होती है।

प्रतिदावे को नामंजूर करना - किसी वाद में प्रस्तुत किये गये प्रतिदावे के लिए जब न्यायालय-शुल्क नहीं दिया गया, तो न्यायालय उस लिखित-कथन को एक वादपत्र मानकर आदेश 7 के नियम 11(ग) के अधीन नामंजूर (रिजेक्ट) कर सकता है।

यह अन्तर्हित है कि प्रतिदावा निश्चयपूर्वक किसी ऐसे अधिकार या दावे से सम्बन्धित होगा, जो प्रतिवादी को वादी के विरुद्ध प्राप्त हुए वाद हेतुक के बारे में हो, और ऐसा जो कि वाद में किये गये दावे के विरुद्ध किया जा सकता हो। जब तक ये योग्यतायें पूरी नहीं हो जाती है, वह आदेश 8 नियम 6 क से आवृत नहीं हो सकता। इसके लिये उस दावे का स्वरूप (चरित्र) जो प्रतिवादी द्वारा अभिवचन के उसके अधिकार के साथ स्थापित किया जा सकता है, महत्वपूर्ण बन जाता है, जिसकी संवीक्षा करनी होगी। इस मामले जहां वादी प्रतिवादी को भू-भाग क में अतिचार कर घुसने से रोकने के लिए वाद करता है, प्रतिवादी ऐसा प्रतिदावा नहीं बना सकता जो वादी को भूमि "ख" पर अतिचार करने से रोके। किसी भी मामले में, ऐसा प्रतिदावा लिखित-कथन को संशोधित कर नहीं जोड़ा जा सकता।

एक प्रतिदावा एक प्रतीपवाद (क्रास सूट) का प्रभाव रखता है, परन्तु वादी के मूल दावे और प्रतिवादी के प्रतिदावे पर केवल एक अन्तिम निर्णय उस वाद में घोषित किया जावेगा। प्रतिवादी के प्रतिदावे के उत्तर में वादी भी लिखित-कथन फाइल कर सकता है और इस प्रयोजन के लिए एक वादपत्र समझा जावेगा, जो वादपत्रों को लागू होने वाले नियमों से शासित होगा।

Tags:    

Similar News