सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 आदेश भाग 42: आदेश 8 नियम 2 के प्रावधान

Update: 2023-12-19 04:15 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 8 लिखित कथन से संबंधित है जो प्रतिवादी का प्रतिवाद पत्र होता है। आदेश 8 का नियम 2 नए तथ्यों के रूप में अभिवचन के संबंध में है। इसका अर्थ यह है कि यदि प्रतिवादी अपनी कोई बात अलग से कहना चाहता है तो उसे विशेष रूप से ऐसे अभिवचन करने होंगे। इस आलेख के अंतर्गत नियम-2 पर प्रकाश डाला जा रहा है।

नियम-2 नए तथ्यों का विशेष रूप से अभिवचन करना होगा-प्रतिवादी को अपने अभिवचन द्वारा वे सब बातें उठानी होंगी जिनसे यह दर्शित होता है कि वाद [पोषणीय नहीं था] या विधि की दृष्टि से वह व्यवहार शून्य है या शून्यकरणीय है और प्रतिरक्षा के सब ऐसे आधार उठाने होंगे जो ऐसे हैं कि यदि वे न उठाए गए तो सम्भाव्य है कि उनके सामने आने से विरोधी पक्षकार चकित हो जाएगा। जिनसे तथ्य के ऐसे विवाद्यक पैदा हो जाएँगे जो वाद-पत्र से पैदा नहीं होते हैं। उदाहरणार्थ कपट, परिसीमा, निर्मुक्ति, संदाय, पालन या अवैधता दर्शित करने वाले तथ्य।

आदेश 8 का नियम 2 नये तथ्यों का विशेष रूप से अभिवचन करने और विशिष्टियाँ देने का उपबन्ध करता है, जब कि नियम 7 पृथक् (भिन्न) आधारों पर आधारित प्रतिरक्षा या मुजरा के अलग-अलग कथन करने का उल्लेख करता है। फिर नियम 8 प्रतिरक्षा या प्रतिदावे के प्रस्तुत करने के बाद को पश्चात्वतों घटनाओं के नये आधार को भी लिखित कथन में उठाने की अनुमति देता है, जिसके लिए आदेश 6 नियम 17 के अधीन लिखित-कथन में संशोधन करना होगा। इन नियमों को साथ-साथ पढ़ने से प्रतीत होता है कि प्रतिरक्षा का स्वरूप क्या होगा और इसमें क्या-क्या बातें उठाई जा सकेंगी। इस नियम की व्याख्या में हम इन सब का विवेचन करेंगे।

नए तथ्यों का विशेष रूप से अभिवचन करना (नियम 1) इस नियम में दो प्रकार की प्रतिरक्षा बताई गई है-

(क) (i) ये सब बातें उठानी होंगी जिनसे यह दर्शित होता हो कि वाद पोषणीय (चलने योग्य) नहीं था, या- (ii) वह संव्यवहार विधि को दृष्टि से शून्य या शून्यकरणीय है।

(ख) प्रतिरक्षा के सब ऐसे आधार उठायें जायेंगे, जो (1) विरोधी को चकित कर देंगे या

(ii) ऐसे तथ्य-विवाद्यक पैदा हो जायेंगे, जो वादपत्र से पैदा नहीं होते हैं (उदाहरणार्थ - कपट,परिसीमा, निर्मुक्ति, संदाय, पालन या अवैद्यता दर्शित करने वाले तथ्य)

इस प्रकार प्रतिरक्षा के लिखित कथन में (1) प्रारम्भिक आपत्तियाँ उठाई जायेंगी और (2) नये आधार उठाये जा सकेंगे। इनके प्रसंग में हम" प्रतिरक्षा के स्वरूप व भेद" का विवेचन करेंगे।

प्रारम्भिक आपत्तियाँ- इसके अधीन दो बातें हैं- (क) प्रारम्भिक कार्यवाही और (ख) प्रारम्भिक आपत्तियाँ और विधि प्रश्न।

अपीलार्थी द्वारा अधीनस्थ न्यायालय के समक्ष वादपत्र संधारण नहीं होने का विशिष्ट अभिवाक नहीं किया गया है जो कि आवश्यक कानून की पूर्ति नहीं करता है। अब यह तथ्य नहीं उठाया जा सकता।'

प्रारम्भिक कार्यवाही में निम्नलिखित बातें आती हैं। इनमें से जो लागू होती हों या लागू को जा सकती हों, उन पर अभिवक्ता को ध्यान देकर आवेदन न्यायालय में प्रस्तुत करना चाहिये-

1. वादपत्र के अधिकधनों का संशोधन यदि वादपत्र में कोई कलंकात्मक, उलझन भरे या अनुचित शब्दों का प्रयोग करते हुए कथन हों, तो उनको काट देने के लिए आदेश, 6, नियम 16 के अधीन आवेदन किया जा सकता है।

2. विशिष्टियाँ मांगना- यदि वादपत्र में किसी तथ्य के बारे में आदेत 6 के नियम 5 के अधीन आवश्यक विवरण या विशिष्टियाँ नहीं दी गई हों, जो नियम के अधीन आवश्यक हों, तो पहले ऐसे अधिक अच्छे कथन या विशिष्टियाँ देने के लिये न्यायालय में आवेदन किया जा सकता था, पर अब नियम 5 को हटा दिया गया है।

3. परिप्रश्न पूछना-वादपत्र पढ़ने के बाद किसी तथ्य के बारे में प्रश्नगत बातें पूछने के लिये न्यायालय की अनुमति से परिप्रश्न प्रस्तुत किये जा सकते हैं, ताकि वाद के विवादग्रस्त प्रश्नों का स्पष्टीकरण हो सके। आदेश 2 के नियम 2 से 3 में परिप्रश्नों सम्बन्धी नियम दिये गये हैं। नियम 5 के लोपित होने से "परिप्रश्न" का महत्व बढ़ गया है।

4. दस्तावेजों का निरीक्षण एवं प्रकटीकरण-वादपत्र में वर्णित तथा उसके साथ प्रस्तुत किये गये दस्तावेजों का निरीक्षण करने या उनका प्रक्टीकरण करने के लिये आदेश 17 के नियम 12 से 20 के अधीन आवेदन न्यायालय में करना चाहिए, ताकि वादी की दस्तावेजी साक्ष्य का असली रूप प्रकट हो जाय और उसके आधार पर प्रतिरक्षा की तैयारी की जा सके।

(ख) प्रारम्भिक आपत्तियाँ एवं विधि-प्रश्न

प्रारम्भिक आपत्तियाँ अधिकतर विधि के प्रश्न होते हैं, जिनके द्वारा किसी वाद में कुछ दोष आ जाते हैं। जिनको दूर करने पर वाद दूषित हो सकता है। इन कथनों से वाद के विचारण में विलम्ब होता है, अत: इनको "विलम्बकारी कथन" (Dialatory Pleas) भी कहा जाता है। इन कथनों पर न्यायालय को विचारण के आरम्भ में ही निपटारा करना होता है, अतः इनको तुरन्त उठाया जाना चाहिये, अन्यथा इन्हें अभित्यजित कर दिया माना जाता है। यहाँ नीचे हमने अनेक प्रारम्भिक आपत्तियों का वर्णन किया है। यदि अलग से दिये गये आवेदन पत्र पर न्यायालय कोई निर्णय नहीं दे या निर्णय आप के विरुद्ध चला जाय, तो भी आप उन आपत्तियों को अपने प्रतिवाद-पत्र में सम्मिलित करेंगे। ये अधिकतर विधि के तकनीकी प्रश्न है, जिनको प्रतिवाद-पत्र में न उठाने पर आगे अपील में भी नहीं उठाने दिया जावेगा। अतः यह विशेष ध्यान देने की बात है।

1. अधिकारिता का प्रश्न- उस वाद के सम्बन्ध में उस न्यायालय को जिसमें वाद प्रस्तुत किया गया है. क्षेत्रीय, आर्थिक और विशेष (विषयगत) अधिकारिता है या नहीं? इस प्रश्न पर विचार करने के बाद यदि यह पता चले कि न्यायालय को ऐसी अधिकारिता नहीं है, तो वह आदेश 7, नियम 10 के अधीन उस वादपत्र को वापस करने के लिये उस न्यायालय में आवेदन कर सकता है।

2. वादपत्र को अस्वीकार करवाने के लिये कार्यवाही - आदेश 7. नियम 11 के अधीन (क) से (घ) में वर्णित चार परिस्थितियों में वादपत्र को खारिज या नामंजूर किया जा सकता है। अतः एक आवेदन पत्र द्वारा न्यायालय से उस वादपत्र को नामंजूर (अस्वीकार) करने के लिये प्रार्थना की जा सकती है।

3. वादहेतुकों तथा पक्षकारों के कुसंयोजन व असंयोजन सम्बन्धी आक्षेप - आदेश 1, नियम 9 के अधीन आवश्यक और उचित पक्षकारों के संयोजन सम्बन्धी आक्षेप इसी प्रक्रम पर उठाये जाने चाहिये। इसी प्रकार वादहेतुकों के संयोजन सम्बन्धी आक्षेप तथा अलग से विचारण करने के लिये आक्षेप आवेदन द्वारा उठाने चाहिये। यदि यह वाद उसी वादहेतुक पर दूसरा (पश्चात्वती) वाद है, तो आदेश 2, नियम 2 सम्बन्धी एतराज भी उठाया जा सकता है।

4. श्रवणाधिकार का आक्षेप-यदि वादी को सुनवाई का अधिकार (श्रवणाधिकार) (focus stanch) नहीं हो, तो उसका एतराज भी एक आवेदन द्वारा किया जा सकता है। अवयस्क अपने वादमित्र के द्वारा ही बाद ला सकता है. ऐसा एतराज उठाया जा सकता है।

5. माध्यस्थम् खण्ड का आक्षेप - संविदा पर आधारित बाद में यदि माध्यस्थम् खण्ड हो और वाद संस्थित करने के पहले मध्यस्थ के माध्यम से संविवाद का निपटारा किया जाना हो, तो ऐसे खण्ड की पालना किये बिना किया गया वाद संधारणीय नहीं होता। ऐसा आक्षेप अलग आवेदन पेश कर इस प्रक्रम पर किया जा सकता है।

6. विधि द्वारा अपवर्जित (वारित) होने का आक्षेप - आदेश 7 के नियम 2 (प) के अधीन विधि के किसी उपबन्ध से वारित पारित हुआ बाद चलने योग्य नहीं। होने से वादपत्र को नामंजूर किया जा सकता है। ऐसे आक्षेपों में धारा 80. सि.प्र.सं. का नोटिस नहीं देना, अन्य विधिक नोटिस नहीं देना, आवश्यक पूर्व-अनुमति नहीं लेना, वाद का परिसीमा विधि के अधीन काल-बाधित होना आदि आते हैं। जिनको एक अलग आवेदन द्वारा इसी प्रक्रम पर उठाया जा सकता है। इसी प्रकार धारा 10 सि.प्र.सं. के अधीन वाद को रोकने के लिये आवेदन पत्र दिया जा सकता है।

7. पूर्व-न्याय का वर्जन-संहिता की धारा 11 के अधीन "पूर्व-न्याय के सिद्धान्त" से वाद के वारित होने की आपत्ति उठाई जा सकती है

8 वाद मूल्यांकन सम्बन्धी आक्षेप प्रतिवाद-पत्र फाइल करने से पहले आवेदन पत्र के रूप में ऐसा आक्षेप उठाया गया। यह अवैध नहीं माना गया। चुनाव याचिका में पक्षकारों के असंयोजन का आक्षेप बाद के किसी प्रक्रम पा भी उठाया जा सकता है और आदेश के नियम 2 की बाधा नहीं मानी गई। पक्षकारों सम्बन्धी दोष (कुसंयोजन या असंयोजन) को स्पष्ट शब्दों में विशेष रूप से बताया जाना चाहिये।

9.अन्य विधि-प्रश्न- तकनीकी विधि-प्रश्नों का उल्लेख हर प्रारम्भिक आपत्तियों में कर चुके हैं। उनके अलावा यदि कोई तात्विक प्रश्नों के सत्य (सही) होने की सम्भावना के साथ उसका विधि-प्रश्न सम्बन्धी आपत्ति उठाकर निराकरण किया जाता है। इसलिए किसी तथ्य को स्वीकार या अस्वीकार करने के साथ ही उस पर विधि-प्रश्न उठाया जाता है, जिसे अलग से देना चाहिये। यह अस्वीकरण या विशेष प्रतिरक्षा दोनों के साथ उठाया जा सकता है। इसमें प्रतिवादी यह बताना चाहता है कि-

"यदि केवल तर्क के लिये यह मान लिया जाय कि बादी का कथन सत्य है, तो भी जो विधि को उपधारमा बादी अपने पक्ष में उन तथ्यों से करना चाहता है, यह अनुज्ञेय (permissible) नहीं है।" यहां तात्विक प्रस्न हो उठाया जाता है। जैसे—

(1) संविदा के अवैध, शून्य, शून्यकरणीय होने सम्बन्धी आक्षेप विधि का प्रश्न है।

(2) वादिनी अपने मृतक भाई की सम्पति प्राप्त करने के लिये वाद लाती है। इसमें "प्रतिवादी इन्कार करता है कि वादी मृतक 'क' की बहिन है। यह साधारण अस्वीकरण हुआ, जिसके साथ अलग पैरा में प्रतिवादी यह विपि के प्रश्न की आपत्ति उठा सकता है कि "पक्षकारों की स्वीय विधि के अधीन एक बहन अपने मृत भाई की सम्पति की उत्तराधिकारिणी नहीं होती है।"

(3) विशेष नुकसानी के मामले में विधि-प्रश्न के आक्षेप इस प्रकार उठाये जा सकते है:-

(1) प्रतिवादी एतराज करता है कि वादपत्र के पद से में वर्णित नुकसानी विधि की दृष्टि से बाद को संधारित करने के लिये पर्याप्त नहीं है। या

(A) प्रतिवादी द्वारा दावाकृत नुकसानी अतिदूरस्थ है।

(B) वाद निम्न कारणों से संधारणीय नहीं हैं (कारण दीजिये)

इस प्रकार विधि के प्रश्नों सम्बन्धी तात्विक आपत्तियां (एतराज) अस्वीकरण या विशेष प्रतिरक्षा के कथनों के तुरन्त नीचे अलग पैरा में स्पष्ट तथा निश्चित शब्दों में उठाई जानी चाहिये।

वाद की संधारणीयता (पोषणीयता) का आक्षेप ऐसी सामग्री जो प्रकट करती है कि वाद चलने योग्य नहीं है, उसे लिखित-कथन में उठाना आवश्यक है और इसे विनिर्दिष्ट प्ररूप में उठाना होगा, अन्यथा विरोधी पक्षकार आश्चर्य में पड़ सकता है। केवल सादा कथन कि याद आवश्यक पक्षकारों के असंयोजन के लिए अशुभ (अवैध) है, पर्याप्त नहीं है। इसके अतिरिक्त, ऐसा कथन, यदि लिखित कथन में विशेष रूप से नहीं लिया गया हो, तो द्वितीय अपील में नहीं उठाया जा सकता है।

प्रतिवादी द्वारा विशिष्ठियों का देना- वादपत्र में जिस प्रकार वादी को विशिष्टियां देनी होती है, उसी प्रकार प्रतिवादी का भी प्रतिवाद पत्र में विशिष्ठियां देनी होगी। यह नियम समान रूप से दोनों पक्षकारों पर लागू होता है। परन्तु प्रतिवादी के मामले में विशिष्ठियां देने का अवसर बहुत कम आता है। क्योंकि अधिकतर प्रतिवादपत्र में वादी के कथनों का खंडन कर उन्हें अस्वीकार किया जाता है, जिसमें प्रतिवादी अपने आप को साक्ष्य देने के भार से बचाना चाहता है और अधिकतर कोई सारभूत तथ्य नहीं देता, जिसकी कि कोई विशिष्टियां देनी पड़े।

परन्तु जहां वह सकारात्मक रूप में किसी सारभूत तथ्य का अभिवचन करता है मानो वह वादपत्र में ही ऐसा कर रहा हो या वह वादी पर कपट आदि का दोषारोपण करता है, तो उसे निश्चय पूर्वक अपने तथ्यों का स्पष्ट करने के लिए विशिष्टियां देनी होगी। उदाहरण के लिए- एक प्रतिवादी दावे की राशि के संदाय (भुगतान) या आंशिक संदाय का अभिवाक् करता है, तो उसे उस दी गई राशि का मय दिनांक के विवरण देना होगा।

इसी प्रकार यदि वह अपमान लेख के मामले में अपनी प्रतिरक्षा में अपने किये गये कार्य के औचित्य (Justification) का अभिवचन करता है, तो उसे इसके लिए सभी तथ्यों का विवरण देना होगा। यदि वह कोई अतिरिक्त कथन या तर्क अपनी प्रतिरक्षा में; जैसे विबन्ध, पूर्वन्याय, सहदायी उपेक्षा आदि, उठाता है, तो उसे उनकी विशिष्ठियां अपने लिखित कथन में देनी होगी।

लिखित-कथन (प्रतिवाद पत्र) प्रस्तुत करने के बाद न्यायालय स्वयमेव या वादी के आवेदन पर जब आदेश 6 के नियम 5 के अधीन प्रतिवादी को कुछ विशिष्टियां देने का आदेश देता है, तो उसके उत्तर में प्रतिवादी को भी विशिष्टियां देनी होगी। ऐसी प्रतिवादी की विशिष्ठियां का उत्तर वादी को "लिखित-कथन" के रूप में (आदेश के नियम 1 के अनुसार पश्चात्वर्ती अभिवचन के रूप में) न्यायालय की अनुमति प्राप्त करने के बाद प्रस्तुत करना होगा।

विशिष्टियों का प्रारूपण विशिष्टियां किस प्रकार दें।

विशिष्टियां अभिवचन का एक विशेष अंग है। अतः विशिष्टियां आदेश 6 के नियम के अनुसार "अभिवचन में विशिष्टियां कचित की जायेगी। अत: (i) यदि वे छोटी हो, तो उनको तात्विक तथ्य या मुख्य तथ्य के साथ अलग से नीचे देना चाहिये और उनको तथ्यों के कथनों में सम्मिलित नहीं करना चाहिए। (3) यदि विशिष्टियां कुछ लम्बी हों, तो उनको नीचे अलग पैरा में दी जानी चाहिये। या वादपत्र या प्रतिवाद पत्र के अन्त में अनुसूची के रूप में देना चाहिये।

परन्तु यदि ये विशिष्टियां कई पृष्ठों में जाने वाली हों, तो ऐसी अधिक लम्बी विशिष्टियों को अलग से उस वादपत्र या प्रतिवादपत्र के संलग्न के रूप में संलग्न करना चाहिये और उसका उल्लेख तात्विक तथ्य के कथन के साथ करना चाहिए। अभिवचन के साथ "उपाबन्ध" (Annexure) भी अभिवचनों का अंग माना जाता है। इसी प्रकार यदि न्यायालय के आदेश पर आदेश 6 के नियम 5 के अपील विशिष्टियां देनी हो, तो फिर वे विशिष्टियां अलग से देनी होगी, जिनके लिए संहिता की पहली अनुसूची के परिशिष्ट (क) में लिखित-कथन के संख्यांक 16 में ये विशिष्टियां दी जायेंगी, जो आगे दिया जा रहा है।

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