सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 175: आदेश 32 नियम 4 के प्रावधान

Update: 2024-05-06 03:45 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 32 का नाम 'अवयस्कों और विकृतचित्त व्यक्तियों द्वारा या उनके विरुद्ध वाद' है। इस आदेश का संबंध ऐसे वादों से है जो अवयस्क और मानसिक रूप से कमज़ोर लोगों के विरुद्ध लाए जाते हैं या फिर उन लोगों द्वारा लाए जाते हैं। इस वर्ग के लोग अपना भला बुरा समझ नहीं पाते हैं इसलिए सिविल कानून में इनके लिए अलग व्यवस्था की गयी है। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 32 के नियम 4 पर विवेचना प्रस्तुत की जा रही है।

नियम-4 कौन वाद-मित्र की हैसियत में कार्य कर सकेगा या वादार्थ संरक्षक नियुक्त किया जा सकेगा-

(1) जो व्यक्ति स्वस्थ चित्त है और वयस्क है, वह अवयस्क के वाद-मित्र या वादार्थ संरक्षक की हैसियत में कार्य कर सकेगा : परन्तु यह तब, जबकि ऐसे व्यक्ति का हित अवयस्क के हित के प्रतिकूल न हो और वाद-मित्र की दशा में वह प्रतिवादी न हो या वादार्थ संरक्षक की दशा में वह वादी न हो।

(2) जहाँ अवयस्क का ऐसा संरक्षक है जो सक्षम प्राधिकारी द्वारा नियुक्त या घोषित किया गया है वहाँ जब तक कि न्यायालय का उन कारणों से, जो लेखबद्ध किए जाएँगे, यह विचार न हो कि अवयस्क का इसमें कल्याण है कि दूसरे व्यक्ति को उसके वाद-मित्र की हैसियत में कार्य करने के लिए अनुज्ञात किया जाए या उसको वादार्थ संरक्षक नियुक्त किया जाए, ऐसे संरक्षक से भिन्न कोई व्यक्ति, यथास्थिति, न तो इस प्रकार कार्य करेगा और न इस प्रकार नियुक्त किया जाएगा।

(3) कोई भी व्यक्ति अपनी [लिखित] सहमति के बिना वादार्थ संरक्षक नियुक्त नहीं किया जाएगा।

(4) जहां वादार्थ संरक्षक की हैसियत में कार्य करने के लिए कोई भी अन्य व्यक्ति योग्य और रजामन्द नहीं है वहां न्यायालय अपने अधिकारियों में से किसी को ऐसा संरक्षक होने के लिए नियुक्त कर सकेगा और निदेश दे सकेगा कि ऐसे संरक्षक की हैसियत में अपने कर्तव्यों के पालन में ऐसे अधिकारी द्वारा उपगत खर्चे या तो वाद के पक्षकारों द्वारा या पक्षकारों में से किसी एक या अधिक के द्वारा न्यायालय में की किसी ऐसी निधि में से जिसमें अवयस्क हितबद्ध है या अवयस्क की सम्पत्ति में से, दिए जाएंगे और ऐसे खर्चों के प्रतिसंदाय या उनके अनुज्ञात किए जाने के लिए ऐसे निदेश दे सकेगा जो न्याय और मामले की परिस्थितियों से अपेक्षित हों

नियम 4 में बताया गया है कि वादमित्र या वादार्थ संरक्षक किसे नियुक्त किया जा सकेगा।

उपनियम (3) में शब्द "लिखित" जोड़कर वादार्थ संरक्षक नियुक्त किए जाने वाले व्यक्ति की लिखित सहमति होना आज्ञापक बना दिया गया है। इससे न्यायालयों के मतभेद समाप्त हो गए हैं। उपनियम (4) में शब्दावली या अवयस्क की सम्पत्ति में से जोड़कर न्यायालय को शक्ति प्रदान की गई है, ताकि न्यायालय के अधिकारी को जब संरक्षक नियुक्त किया जाए, तो उसके खर्चे उस अवयस्क की सम्पत्ति में से दिलवाए जा सकें।

वादमित्र या वाद संरक्षक की नियुक्ति की शर्तें नियम 4 में निम्न शर्तें दी गई हैं:-

(क) कौन वादमित्र या वादार्थ संरक्षक नियुक्त किया जा सकेगा

जो व्यक्ति - (i) स्वस्थचित्त है और (ii) वयस्क है, (iii) जिसका हित अवयस्क के प्रतिकूल नहीं है, और (iv) जो वादमित्र की दशा में प्रतिवादी नहीं है, या वादार्थ संरक्षक की दशा में वादी नहीं है। संरक्षक के लिए लिखित में सम्मति दे दी है। (v) ऐसे व्यक्ति ने वादार्थ-संरक्षक नियुक्त किए जाने के सक्षम प्राधिकारी द्वारा नियुक्त या घोषित संरक्षक की प्रास्थिति (उपनियम-2) - उपनियम (2) के अनुसार जहां किसी सक्षम प्राधिकारी द्वारा किसी को अवयस्क का संरक्षक नियुक्त किया गया है, तो उसके अलावा किसी अन्य व्यक्ति को उस अवयस्क का संरक्षक नियुक्त नहीं किया जाएगा। परन्तु न्यायालय का यह विचार हो कि किसी दूसरे व्यक्ति को संरक्षक नियुक्त करना उस अवयस्क के कल्याण के लिए आवश्यक है, तो वह कारण अभिलिखित करने के बाद किसी दूसरे व्यक्ति को भी संरक्षक नियुक्त कर सकेगा।

संरक्षक की नियुक्ति संबंधी अधिनियम अवयस्क के संरक्षक नियुक्त या घोषित करने संबंधी उपबन्धों के लिए निम्न अधिनियम में भी उपबंध है -

(1) हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956

(2) संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890

(3) कोर्ट ऑफ वाईस एक्ट (अलग अलग राज्यों में है)

(4) स्वीय विधि (पर्सनल लॉ)

न्यायालय के अधिकारियों में से संरक्षक की नियुक्ति (उपनियम-4) -

( 1) जहां कोई भी अन्य व्यक्ति वादार्थ-संरक्षक के रूप में उस अवयस्क के वाद में प्रतिरक्षा करने के लिये - (i) योग्य नहीं पाया जाए, या (ii), वह ऐसा करने के लिए सहमत (रजामन्द) नहीं हो, तो न्यायालय अपने अधिकारियों में से किसी को वादार्थ संरक्षक नियुक्त कर सकेगा।

(2) ऐसी नियुक्ति करते समय न्यायालय यह निदेश दे सकेगा कि उस अधिकारी द्वारा संरक्षक के रूप में उसे कार्य करने के लिए किए खर्चे उसे न्यायालय की ऐसी निधि में से, जिसमें वह अवयस्क हितबद्ध है या उस अवयस्क की सम्पत्ति में से दिये जायेंगे और इस बारे में उस मामले की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए न्याय संगत निदेश दे सकेगा।

आदेश 32, नियम 4 (4) के अधीन यदि नैसर्गिक संरक्षक किसी वाद में अवयस्क के लिए संरक्षक के रूप में कार्य करने का इच्छुक न हो, तो न्यायालय अपने किसी अधिकारी को ऐसे संरक्षक के रूप में नियुक्त कर सकता।

एक वाद में कहा गया है कि स्पष्ट रूप से जब संरक्षक का हित अवयस्क के प्रतिकूल है तो डिक्री शून्य है।

इस मामले में एक अवयस्क ने एक वाद संस्थित किया, जिसमें उसने यह घोषणा चाही कि-दो डिक्रियाँ तथा निष्पादन में तीन विक्रय की कार्यवाहियां जो उसके पिता की सम्पदा में उसके अंश (शेयर) को प्रभावित करती हैं, वे जहां तक उसके विरुद्ध हैं, अवैध हैं; क्योंकि उस वाद में उस (अवयस्क) का प्रतिनिधित्व उसके चाचा द्वारा किया गया था, जो स्पष्ट रूप से उसके हितों के प्रतिकूल है।

अधीनस्थ न्यायाधीश ने इस वाद को डिक्रीत कर दिया, पर उच्च न्यायालय ने डिक्री को अपास्त कर दिया, क्योंकि वह वाद घारा 244, सीपीसी 1882 (अब धारा 47) के अधीन वर्जित था। वादिनी के समक्ष उचित मार्ग यही था कि वह निष्पादन की कार्यवाही में एतराज उठाती ।

प्रिवी कौंसिल का निर्णय प्रिवी कौंसिल ने अपील में उच्च न्यायालय के निर्णय को पलटते हुए अभिनिर्धारित किया कि वे उच्च न्यायालय के इस निष्कर्ष से सहमत नहीं हैं कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1882 की धारा 244 उन प्रश्नों को लागू होती है, जिनको इस वाद में उठाया गया है और डिक्री दी गई है अर्थात् उन पक्षकारों के बीच, जिनको कि संहिता के उपबन्धों के अनुसार उचित रूप से पक्षकार बनाया गया है।

अधीनस्थ न्यायाधीश के मत से सहमति प्रकट करते हुए कहा गया कि अपीलार्थी कभी भी इन वादों में से किसी में शब्द पक्षकार के उचित अर्थ में पक्षकार नहीं थी। उसकी बहिन विवाहिता होने से संहिता की धारा 457 के अधीन संरक्षक नियुक्तः होने के लिए अयोग्य थी और मौलादाद (चाचा) का हित स्पष्ट रूप से अवयस्क के हितों के प्रतिकूल था।

निर्णय का अनुसरण उपरोक्त निर्णय का विभिन्न न्यायालयों ने अनुसरण किया है और निर्णय दिये हैं कि-जहां वादार्थ-संरक्षक का हित अवयस्क के हित के स्पष्ट रूप से विपरीत हो, तो डिक्री शून्य होगी। मद्रास, इलाहाबाद और ट्रावनकोर-कोचीन उच्च न्यायालयों ने इस प्रकार के निर्णय दिये हैं। कलकत्ता उच्च न्यायालय के अनुसार ऐसे प्रत्येक मामले में डिक्री शून्य नहीं होगी, पर यह उस मामले के तथ्यों पर निर्भर करेगी।

बम्बई, उच्च न्यायालय के मतानुसार ऐसे वाद में पारित डिक्री को वह अवयस्क टालमटोल नहीं करके उस वाद को पुनर्जीवित करवाने की कार्यवाही करेगा। तथ्य का प्रश्न क्या किसी वादार्थ संरक्षक का अवयस्क के प्रतिकूल हित है। यह तथ्य का प्रश्न है। जहां एक बंधक या अन्य संव्यवहार अवयस्क की ओर से किया गया। इसके बाद उस संव्यवहार को लागू करने के लिए उस अवयस्क के विरुद्ध वाद किया गया तो प्रश्न उठा कि क्या वह संव्यवहार करने वाला व्यक्ति उस अवयस्क के विरुद्ध इस वाद में उसका वादार्थ-संरक्षक नियुक्त किया जा सकता है?

अभिनिर्धारित किया गया कि संहिता या अन्य प्राधिकारों में कुछ भी ऐसा नहीं है, जो यह प्रतिपादित करता हो कि एक नियम के रूप में, ऐसे व्यक्ति को वादार्थ संरक्षक नियुक्त नहीं करना चाहिये या किसी भी परिस्थिति में उसे वैधता पूर्वक संरक्षक नियुक्त नहीं किया जा सकता।

नियम 4(1) के परन्तुक में अवयस्क के हित के प्रतिकूल का अर्थ इस परन्तुक में हित की प्रतिकूलता का प्रसंग संविवाद में आई विषय-वस्तु अर्थात् वादग्रस्त सम्पत्ति या अधिकार से है।

नियम-3क का प्रभाव प्रतिकूल आवश्यक 1976 में नया नियम उक जोड़ा गया है। अतः अब अवयस्क के हित के प्रतिकूल वादमित्र या वादार्थ संरक्षक का हित होना ही पर्याप्त नहीं है, किन्तु ऐसे प्रतिकूल हित के कारण

उस अवयस्क के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ना भी आवश्यक है, तभी अवयस्क के विरुद्ध डिक्री को अपास्त किया जा सकेगा, अन्यथा नहीं।

विभाजन वाद में - एक विभाजन के वाद में पक्षकारों के हित आपस में अलग अलग होते हैं, अतः एक सहदायिक को दूसरे का संरक्षक नियुक्त नहीं करना चाहिये।

डिक्री शून्य नहीं, पर शून्यकरणीय नियम 4 (1) में विहित प्रक्रिया का उल्लंघन करते हुए पारित डिक्री शून्य नहीं है, परन्तु अवयस्क द्वारा या उसकी ओर से शून्यकरणीय है। अतः अवयस्क को इसे अपास्त कराने की कार्यवाही करनी होगी।

Tags:    

Similar News