सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 174: आदेश 32 नियम 3 व 3(क) के प्रावधान

Update: 2024-05-06 03:41 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 32 का नाम 'अवयस्कों और विकृतचित्त व्यक्तियों द्वारा या उनके विरुद्ध वाद' है। इस आदेश का संबंध ऐसे वादों से है जो अवयस्क और मानसिक रूप से कमज़ोर लोगों के विरुद्ध लाए जाते हैं या फिर उन लोगों द्वारा लाए जाते हैं। इस वर्ग के लोग अपना भला बुरा समझ नहीं पाते हैं इसलिए सिविल कानून में इनके लिए अलग व्यवस्था की गयी है। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 32 के नियम 3 व 3(क) पर टिप्पणी प्रस्तुत की जा रही है।

नियक-3 अवयस्क प्रतिवादी के लिए न्यायालय द्वारा वादार्थ संरक्षक की नियुक्ति -

(1) जहां प्रतिवादी अवयस्क है वहां न्यायालय उसकी अवयस्कता के तथ्य के बारे में अपना समाधान हो जाने पर उचित व्यक्ति को ऐसे अवयस्क के लिए वादार्थ संरक्षक नियुक्त करेगा।

(2) वादार्थ संरक्षक की नियुक्ति के लिए आदेश अवयस्क के नाम में और उसकी ओर से या वादी द्वारा किए गए आवेदन पर अभिप्राप्त किया जा सकेगा।

(3) ऐसा आवेदन इस तथ्य को सत्यापित करने वाले शपथपत्र द्वारा समर्थित होगा कि जो बातें वाद में विवादग्रस्त हैं उनमें जो हित अवयस्क का है उस हित के प्रतिकूल कोई हित प्रस्थापित संरक्षक का नहीं है और वह ऐसे नियुक्त किए जाने के लिए ठीक व्यक्ति है।

(4) कोई भी आदेश इस नियम के अधीन किए गए आवेदन पर तब तक के सिवाय नहीं किया जाएगा जब कि अवयस्क के किसी ऐसे संरक्षक को जो ऐसे प्राधिकारी द्वारा नियुक्त या घोषित किया गया है जो इस निमित्त सक्षम है या जहां ऐसा संरक्षक नहीं है वहां [अवयस्क के पिता को या जहां पिता नहीं है वहां माता को या जहां पिता या माता नहीं है वहां अन्य नैसर्गिक संरक्षक को] या जहां [ पिता, माता या अन्य नैसर्गिक संरक्षक नहीं] है वहां उस व्यक्ति को जिसकी देखरेख में अवयस्क है, सूचना दी गई है और जिस किसी व्यक्ति पर इस उपनियम के अधीन सूचना की तामील की गई है, उस व्यक्ति की ओर से किया गया कोई भी आक्षेप सुन लिया गया है।

(4क) यदि न्यायालय किसी मामले में ठीक समझे तो वह अवयस्क को भी उपनियम (4) के अधीन सूचना दे सकेगा।]

(5) जो व्यक्ति अवयस्क के लिए वादार्थ संरक्षक उपनियम (1) के अधीन नियुक्त किया गया है, यदि उसकी नियुक्ति का पर्यवसान निवृत्ति, हटाए जाने या मृत्यु के कारण न हो गया हो तो, वह उस वाद में उद्भूत होने वाली सभी कार्यवाहियों के पूरे दौरान में जिनके अन्तर्गत अपील न्यायालय या पुनरीक्षण न्यायालय में की गई कार्यवाहियां और डिक्री के निष्पादन की कार्यवाहियां आती हैं उसी हैसियत में बना रहेगा।

नियम-3(क) अवयस्क के विरुद्ध डिक्री का तब तक अपास्त न किया जाना जब तक कि उसके हितों पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़ा हो (1) अवयस्क के विरुद्ध पारित कोई डिक्री केवल इस आधार पर अपास्त नहीं की जाएगी कि अवयस्क के वाद के लिए वाद-मित्र या संरक्षक वाद की विषय-वस्तु में अवयस्क के हित के प्रतिकूल कोई हित रखता है, किन्तु यह तथ्य कि वाद के लिए वाद-मित्र या संरक्षक के ऐसे प्रतिकूल हित के कारण अवयस्क के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है, डिक्री अपास्त करने के लिए आधार होगा।

(2) इस नियम की कोई बात अवयस्क को, वाद के लिए वाद-मित्र या संरक्षक की ओर से ऐसे अवचार या घोर उपेक्षा के कारण जिसके परिणामस्वरूप अवयस्क के हित पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है, विधि के अधीन उपलभ्य कोई अनुतोष अभिप्राप्त करने से प्रवारित नहीं करेगी।

आदेश 32 के नियम 3 में अवयस्क प्रतिवादी के लिए न्यायालय द्वारा वादार्थ-संरक्षक नियुक्त करने का तरीका बताया गया है, जब कि नियम 3-क अवयस्क के विरुद्ध डिक्री तब तक अपास्त न करने का उपबंध करता है, जब तक कि उस अवयस्क के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़ा हो।

नियम 3 में उपनियम (4) में कुछ शब्द बदले गये हैं, जब कि उपनियम (4क) तथा (5) अन्तःस्थापित किये (जोड़े) गये हैं। इस प्रकार वादार्थ संरक्षक की नियुक्ति के पहले नैसर्गिक संरक्षक तथा उस अवयस्क को नोटिस (सूचना) देने की व्यवस्था है। अवयस्क को सूचना देना न्यायालय के विवेकाश्रित है। उपनियम (5) द्वारा वादार्थ संरक्षक के अधिकार व हैसियत को स्पष्ट किया गया है।

इसमें उपनियम क जोड़कर न्यायालयों के निर्णयों के मतभेद को समाप्त किया गया है। अतः कई पुराने निर्णय बेकार हो गये हैं।

वादार्थ-संरक्षक की नियुक्ति का तरीका (नियम 3) -

(1) न्यायालय द्वारा नियुक्ति (उपनियम-1) जब एक प्रतिवादी की अवयस्कता के बारे में न्यायालय का समाधान हो जाता है, तो वह किसी उचित व्यक्ति को उस अवयस्क प्रतिवादी का वादार्थ संरक्षक नियुक्त करेगा। इस प्रकार की नियुक्ति की शक्ति न्यायालय को ही प्राप्त है।

(2) आवेदन कौन करेगा ? (उपनियम-2) वादार्थ सरंक्षक की नियुक्ति के लिए आवेदन (ⅰ) अवयस्क के नाम में और उसकी ओर से या (ii) वादी द्वारा प्रस्तुत किया जावेगा।

(3) शपथपत्र द्वारा समर्थन (उपनियम-3) इस आवेदन के साथ एक शपथपत्र होगा, जिसमें दो बातें दी जावेंगी-

(i) विवादग्रस्त बातों में जो अवयस्क का हित है, उसके प्रतिकूल कोई हित प्रस्थापित (प्रस्तावित) संरक्षक

(ii) वह वादार्थ-संरक्षक नियुक्त किए जाने के लिए उचित (ठीक) व्यक्ति है।

विद्यमान संरक्षक को सूचना दी गयी (उपनियम-4) वादार्थ-संरक्षक नियुक्त करने का आवेदन प्राप्त होने पर न्यायालय उसके उस विद्यमान संरक्षक को इस आवेदन के बारे में सूचना (नोटिस) देगा, जो निम्नलिखित होगी-

(i) किसी प्राधिकारी द्वारा पहले से ही नियुक्त या पोषित किए गए संरक्षक को, या

(ii) जहां ऐसा संरक्षक नहीं है, वहां अवयस्क के पिता को, या

(iii) जहां पिता नहीं हैं, वहां माता को या

(iv) जहां पिता या माता नहीं है, वहां अन्य नैसर्गिक संरक्षक को, या

(v) जहां पिता, माता या अन्य नैसर्गिक संरक्षक नहीं है, वहां उस व्यक्ति को जिसकी देखरेख में वह अवयस्क इस प्रकार अवयस्क के विद्यमान (मौजूदा) संरक्षक को उस सूचना की तामील होने पर उसके द्वारा किए गए आक्षेप सुनवाई की जावेगी।

(5) अवयस्क को सूचना (उपनियम-क) जिस मामले में न्यायालय ठीक समझे, अवयस्क को भी उपरोक्त आवेदन की सूचना देगा। यह न्यायालय के विवेक पर छोड़ दिया गया है कि वह अवयस्क को सूचना दे या नहीं।

(6) वादार्थ संरक्षक की कार्यावधि तथा प्रास्थिति / हैसियत (उपनियम-5) उपनियम (1) के अधीन न्यायालय द्वारा उपरोक्त तरीके से नियुक्त किए गए वादार्थ-संरक्षक को, यदि उसकी नियुक्ति निवृत्त होने, हटाये जाने या उसकी मृत्यु हो जाने के कारण समाप्त (पर्यवसान) नहीं हुई हो, तो वह (i) उस वाद में उत्पन्न होने वाली सभी कार्यवाहियों,

(ii) निष्पादन की कार्यवाहियों, (iii) अपील या (iv) पुनरीक्षण की सभी कार्यवाहियों में वादार्थ-संरक्षक की हैसियत में बना रहेगा।

संरक्षक की नियुक्ति या घोषणा ऊपर उपनियम (4) में शब्दावली किसी ऐसे संरक्षक को जो ऐसे प्राधिकारी द्वारा नियुक्त या घोषित किया गया है, का प्रसंग किया गया है। अवयस्क के संरक्षक नियुक्ति करने के लिए विधि में कई उपबन्ध हैं, जिनमें से मुख्य ये हैं-

संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम 1870 इसने न्यायालय किसी अवयस्क का संरक्षक नियुक्त कर सकेगा, न्यायालय द्वारा नियुक्त संरक्षक की शक्तियों तथा संरक्षक का न्यासी के तौर पर दायित्व उक्त अधिनियम में दिया गया है।

हिन्दू अप्राप्तययता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 इसने नैसर्गिक संरक्षक की शक्तियों (धारा 9) में बताई गई हैं।

(3) व्यक्तिगत विधि (परसनल लॉ) के उपबंध-जैसे मुस्लिम विधि, उत्तराधिकार अधिनियम आदि।

अवयस्क के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव आवश्यक डिक्री को अपास्त करने का आधार (नियम-उक)-जब तक कि अवयस्क के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़ा हो, अवयस्क के विरुद्ध किसी डिक्री को अपास्त नहीं किया जाता। ऐसी डिक्री को केवल इस आधार पर ही अपास्त नहीं किया जाता कि उस अवयस्क के वाद के लिए वादमित्र या संरक्षक वाद की विषय बस्तु में उस अयस्क के हित के प्रतिकूल (विपरीत) कोई हित रखता है।

किन्तु यह तथ्य उस डिक्री को अपास्त करने के लिए आधार होगा कि वाद के लिए वादमित्र या संरक्षक के इस प्रकार के प्रतिकूल हित के कारण उस अवयस्क के हितों पर प्रतिकूल (विपरीत) प्रभाव पड़ा है। (अर्थात् उसे हानि हुई है)

अपवाद- उपनियम (2) के अनुसार यदि वादमित्र या संरक्षक द्वारा कोई अवचार या धोर उपेक्षा (लापरवाही) की गई हो और उसके कारण अवयस्क के हित पर प्रतिकूल (विपरीत/बुरा) प्रभाव पड़ा हो, तो ऐसे मामलों में यह नियम उस अवयस्क को कानूनी कार्यवाही करने से नहीं रोकेगा।

प्रक्रियात्मक दोष तथा पर्याप्त प्रतिनिधित्व का सिद्धान्त कुछ मामले ऐसे भी होते हैं, जिनमें कोई प्रक्रियात्मक दोष रह जाता है, पर अवयस्क का पर्याप्त प्रतिनिधित्व हो जाता है। ऐसे मामले उन मामलों से सर्वधा भिन्न होते हैं, जिनमें अवयस्क का कोई प्रतिनिधित्व किया ही नहीं गया। परिणामस्वरूप उनकी डिक्री शून्य होती है। परन्तु जहां वादार्थ-संरक्षक को न्यायालय मान्यता देता है, पर या तो उसकी नियुक्ति का औपचारिक आदेश नहीं किया या किए गए आदेश में कोई दोष रह गया, तो ऐसी स्थिति में डिक्री उस अवयस्क पर बाध्यकर होगी, यदि यह दर्शित नहीं किया जाता है कि उस प्रक्रिया के दोष से उसको प्रतिकूलता (हानि) हुई है।

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