सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 32 का नाम 'अवयस्कों और विकृतचित्त व्यक्तियों द्वारा या उनके विरुद्ध वाद' है। इस आदेश का संबंध ऐसे वादों से है जो अवयस्क और मानसिक रूप से कमज़ोर लोगों के विरुद्ध लाए जाते हैं या फिर उन लोगों द्वारा लाए जाते हैं। इस वर्ग के लोग अपना भला बुरा समझ नहीं पाते हैं इसलिए सिविल कानून में इनके लिए अलग व्यवस्था की गयी है। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 32 के नियम 1 को समझने का प्रयास किया जा रहा है।
नियम-1 अवयस्क वाद-मित्र द्वारा वाद लाएगा - अवयस्क द्वारा हर वाद उसके नाम में ऐसे व्यक्ति द्वारा संस्थित किया जाएगा जो ऐसे वाद में अवयस्क का वाद-मित्र कहलाएगा।
[ स्पष्टीकरण-इस आदेश में "अवयस्क" से वह व्यक्ति जिसने भारतीय अवयस्कता अधिनियम, 1875 (1875 का 9), की धारा 3 के अर्थ में अपनी वयस्कता प्राप्त नहीं की है, अभिप्रेत है जहाँ वाद उस अधिनियम की धारा 2 के खण्ड (क) और खण्ड (ख) में वर्णित विषयों में से किसी विषय या किसी अन्य विषय के सम्बन्ध में हो।]
आदेश 32 का नियम 1 अवयस्क की परिभाषा स्पष्ट करते हुए अवयस्क द्वारा लाए जाने वाले वाद को वाद-मित्र द्वारा करना आवश्यक बताता है। अवयस्क के लिए वाद लाने वाले वाद-मित्र या संरक्षक के लिए वाद लाने से पूर्व न्यायालय की अनुमति या किसी अनुज्ञा को आवश्यकता नहीं है।
भारतीय वयस्कता अधिनियम के अधीन "वयस्क" का अर्थ-भारत का निवासी कोई भी व्यक्ति 18 वर्ष की आयु प्राप्त करने पर वयस्क हो जाता है और इससे कम आयु का होने तक अवयस्क रहता है। 1976 के संशोधन से पहले अवयस्कता की आयु के बारे में न्यायालयों में मतभेद रहा है। इस मतभेद को दूर करने के लिए नियम 1 में एक "स्पष्टीकरण" जोड़ा गया है।
यह न्यायालय का कर्तव्य है कि वह यह देखे कि उसके सामने यदि कोई पक्षकार अवयस्क है, तो उसका उचित तरीके से प्रतिनिधित्व होना चाहिये।
वाद-मित्र या वादार्घ संरक्षक नियुक्त करने का उद्देश्य- एक अवयस्क को एक वाद में स्वयं पैरवी करने या प्रतिरक्षा करने के लिए अक्षम माना गया है। अतः उसके हित का किसी वयस्क व्यक्ति द्वारा ध्यान रखा जाना आवश्यक है। इसी उद्देश्य से वाद-मित्र या वादार्थ संरक्षक की व्यवस्था की गई है, परन्तु वे किसी वाद के पक्षकार नहीं होते हैं।
वाद-शीर्षक का प्ररूप- संहिता की पहली अनुसूची के परिशिष्ट "क" में क्रम संख्या 10 पर एक अवयस्क के वाद का शीर्षक इस प्रकार दिया गया-
क ख अवयस्क (आयु, पिता का नाम, निवास आदि, अपने वाद-मित्र ग घ द्वारा अतः वादपत्र के शीर्षक में वाद-मित्र या वादार्थ संरक्षक का भी विवरण देना चाहिये।
अवयस्क-विधिक प्रतिनिधि की सुनवाई मृत व्यक्ति के विरुद्ध एक पक्षीय डिक्री को निष्पादन-कार्यवाही में उसके विधिक-प्रतिनिधियों ने चुनौती दी, जिसे निष्पादन न्यायालय ने अस्वीकार कर दिया। उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण में वादी ने तर्क दिया कि उच्च न्यायालय को पुनरीक्षण में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। वादी के इस तर्क को न्यायहित में अस्वीकार कर दिया गया, क्योंकि वे विधिक प्रतिनिधि अवयस्क थे। उनके विरुद्ध डिक्री पारित की जाने से पहले उनको सुनवाई दी जानी चाहिये।
एक मामले में कहा गया है कि अकिंचन-वाद के लिए उसके साधनों पर विचार जब अकिंचन के रूप में वाद लाया जाता है तो वाद की विषय-सामग्री अर्थात् वादगत सम्पत्ति को उस व्यक्ति के साधने पर विचार करते समय संगणित नहीं किया जावेगा, उसे अपवर्जित (exclude) कर दिया जावेगा। इस मामले में, प्रार्थियों ने एक साधारण बंधक निष्पादित किया और वाद द्वारा उसके अवैध होने की घोषणा चाही। उनके पास वादगत सम्पत्ति के अलावा कोई और सम्पत्ति नहीं थी। अतः वादगत सम्पत्ति को अलग किया गया। इसी प्रकार बंधक को छुड़ाने की साम्या भी अलग किये जाने योग्य है।
वाद का प्रत्याहरण जब अवैध यदि संरक्षक न्यायालय की इजाजत के बिना बाद का प्रत्याहरण कर लेता है, उसे वापस ले लेता है और वह अवयस्क के हित के विरुद्ध है, तो वह अवैध न होकर शून्यकरणीय है।
अवयस्कता पर विवाद जब किसी व्यक्ति के विरुद्ध कोई वाद लाया जावे और उसकी वयस्कता के प्रश्न पर विवाद उठे, तो इसके लिए अलग से प्रारम्भिक विवाद्यक (वादप्रश्न) बनाकर उसकी जांच करके निर्णय किया जाएगा। इसके बाद ही वाद में कार्यवाही आगे चल सकेगी। जो व्यक्ति किसी दूसरे के अवयस्क होने का कथन करे, प्रमाण का भार उसी पर होगा कि वह साबित करे कि वह व्यक्ति अवयस्क है।
ऐसे मामलों में उस व्यक्ति की माता के साक्ष्य के साथ जन्मपत्री प्रस्तुत करना एक उत्तम साक्ष्य माना गया है। स्कूल के प्रमाणपत्र में जन्म तारीख या नगरपालिका के जन्म रजिस्टर इसके लिए साक्ष्य माने जाते हैं।
अप्राप्तवयों और विकृतचित्त व्यक्तियों द्वारा या उनके विरुद्ध वाद आदेश 32, नियम 2, 3, 15 और धारा 131 यदि वादी अप्राप्तवय या विकृतचित्त या मानसिक दुर्लभता से ग्रस्त व्यक्ति है तो प्रतिवादी इस बात पर जोर दे सकता है कि इस दृष्टि से कि उन कार्यवाहियों का कोई आबद्धकर परिणाम निकल सके, उन कार्यवाहियों को वादमित्र द्वारा संस्थित और अभियोजित किया जाना चाहिए।
देवमूर्ति (deity or idol) एक सनातन अवयस्क देवमूर्ति स्वयं वाद का संचालन नहीं कर सकती। अतः उसका महन्त (शेबत), पुजारी या व्यवस्थापक वाद ला सकता है, यद्यपि इस नियम में इसका स्पष्ट उपबंध नहीं है, किन्तु देवमूर्ति को उच्चतम न्यायालय ने सनातन अवयस्क (परपेचुअल माइनर) माना है।
देवमूर्ति का वादमित्र- आदेश 32 देवमूर्ति के वाद मित्र की नियुक्ति के लिए विशेष रूप से कोई उपबन्ध नहीं करता। किसी मामले में, मूर्ति के उपासक (पूजक) को उसका प्रतिनिधित्व करने की तदर्थ (एडहाक) शक्ति है, जहां मूर्ति का रौबत अवयस्क (मूर्ति) के हितों के विरुद्ध कार्य करता हो।