सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 142: आदेश 22 नियम 4 व 4(क) के प्रावधान

Update: 2024-02-29 06:36 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 22 वाद के पक्षकारों की मृत्यु, विवाह और दिवाला है। किसी वाद में पक्षकारों की मृत्यु हो जाने या उनका विवाह हो जाने या फिर उनके दिवाला हों जाने की परिस्थितियों में वाद में क्या परिणाम होगा यह इस आदेश में बताया गया है। इस आलेख के अंतर्गत आदेश 22 के नियम 4 व 4(क) पर चर्चा की जा रही है।

नियम-4. कई प्रतिवादियों में से एक या एकमात्र प्रतिवादी की मृत्यु की दशा में प्रक्रिया -

(1) जहां दो या अधिक प्रतिवादियों में से एक की मृत्यु हो जाती है और वाद लाने का अधिकार अकेले उत्तरजीवी प्रतिवादी के या अकेले उत्तरजीवी प्रतिवादियों के विरुद्ध बचा नहीं रहता है या एकमात्र प्रतिवादी या एकमात्र उत्तरजीवी प्रतिवादी की मृत्यु हो जाती है और वाद लाने का अधिकार बचा रहता है वहां उस निमित्त किए गए आवदेन पर न्यायालय मृत प्रतिवादी के विधिक प्रतिनिधि को पक्षकार बनवाएगा और वाद में अग्रसर होगा।

(2) इस प्रकार पक्षकार बनाया गया कोई भी व्यक्ति जो मृत प्रतिवादी के विधिक प्रतिनिधि के नाते अपनी हैसियत के लिए समुचित प्रतिरक्षा कर सकेगा।

(3) जहां विधि द्वारा परिसीमित समय के भीतर कोई आवेदन उपनियम (1) के अधीन नहीं किया जाता है वहां वाद का, जहां तक वह मृत प्रतिवादी के विरुद्ध है, उपशमन हो जाएगा।

(4) जब कभी वह ठीक समझे, वादी को किसी ऐसे प्रतिवादी के जो लिखित कथन फाइल करने में असफल रहा है या जो उसे फाइल कर देने पर, सुनवाई के समय उपसंजात होने में और प्रतिवाद करने में असफल रहा है, विधिक प्रतिनिधि को प्रतिस्थापित करने की आवश्यकता से छूट दे सकेगा और ऐसे मामले में निर्णय उक्त प्रतिवादी के विरुद्ध उस प्रतिवादी की मृत्यु हो जाने पर भी सुनाया जा सकेगा और उसका वही बल और प्रभाव होगा मानो वह मृत्यु होने के पूर्व सुनाया गया हो।

(5) जहां-

(क) वादी, प्रतिवादी की मृत्यु से अनभिज्ञ था और उस कारण से वह इस नियम के अधीन प्रतिवादी के विधिक प्रतिनिधि का प्रतिस्थापन करने के लिए आवेदन, परिसीमा अधिनियम, 1963 (1963 का 36) में विनिर्दिष्ट अवधि के भीतर नहीं कर सकता था और जिसके परिणामस्वरूप वाद का उपशमन हो गया है; और

(ख) वादी, परिसीमा अधिनियम, 1963 (1963 का 36) में इसके लिए विनिर्दिष्ट अवधि के अवसान के पश्चात् उपशमन अपास्त करने के लिए आवेदन करता है और उस अधिनियम की धारा 5 के अधीन उस आवेदन को इस आधार पर ग्रहण किए जाने के लिए भी आवेदन करता है कि ऐसी अनभिज्ञता के कारण उक्त अधिनियम में विनिर्दिष्ट अवधि के भीतर उसके आवेदन न करने के लिए उसके पास पर्याप्त कारण था, वहां न्यायालय उक्त धारा 5 के अधीन आवेदन पर विचार करते समय ऐसी अनभिज्ञता के तथ्य पर, यदि साबित हो जाता है तो, सम्यक् ध्यान देगा।

नियम-4 (क) विधिक प्रतिनिधि न होने की दशा में प्रक्रिया-

(1) यदि किसी वाद में न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि ऐसे किसी पक्षकार का जिसकी मृत्यु वाद के लम्बित रहने के दौरान हो गई है, कोई विधिक प्रतिनिधि नहीं है तो न्यायालय वाद के किसी पक्षकार के आवेदन पर, मृत व्यक्ति की सम्पदा का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्ति की अनुपस्थिति में कार्यवाही कर सकेगा या आदेश द्वारा, महाप्रशासक या न्यायालय के किसी अधिकारी या किसी ऐसे अन्य व्यक्ति को जिसको वह मृत व्यक्ति की सम्पदा का प्रतिनिधित्व करने के लिए ठीक समझता है, वाद के प्रयोजन के लिए नियुक्त कर सकेगा, और वाद में तत्पश्चात् दिया गया कोई निर्णय या किया गया कोई आदेश मृत व्यक्ति की सम्पदा को उसी सीमा तक आबद्ध करेगा जितना कि वह तब करता जब मृत व्यक्ति का निजी प्रतिनिधि वाद में पक्षकार रहा होता।

(2) न्यायालय इस नियम के अधीन आदेश करने से पूर्व-

(क) यह अपेक्षा कर सकेगा कि मृत व्यक्ति की सम्पदा में हित रखने वाले ऐसे व्यक्ति को (यदि कोई ) जिनको न्यायालय ठीक समझता है, आदेश के लिए आवेदन की सूचना दी जाए; और को मृत व्यक्ति की सम्पदा का प्रतिनिधित्व करने के लिए हो

(ख) यह अभिनिश्चित करेगा कि जिस व्यक्ति नियुक्त किया जाना प्रस्थापित है, यह इस प्रकार नियुक्त किए जाने के लिए रजामंद है और वह मृत व्यक्ति के हित के प्रतिकूल कोई हित नहीं रखता है।

नियम 4 कई प्रतिवादियों में से एक या एक मात्र प्रतिवादी की मृत्यु हो जाने पर प्रक्रिया बताता है, जबकि नियम 4-क विधिक प्रतिनिधि न होने पर प्रक्रिया बताता है।

इस नियम 4 में उपनियम (4) तथा (5) जोड़े गये हैं। इससे कई न्यायालयों के बीच का मतभेद समाप्त कर दिया गया है।

नियम 4 में पांच उपनियम हैं-

जब दो या अधिक प्रतिवादी हैं,

उनमें से एक की मृत्यु हो जाती है, तो अकेले उत्तर जीवियों के विरुद्ध वादाधिकार बचा नहीं रहा है,

एक मात्र प्रतिवादी या एकमात्र उत्तरजीवी प्रतिवादी की मृत्यु हो जाती है और वादाधिकार बचा (जीवित) रहता है ऐसी स्थिति में आवेदन करने पर मृत प्रतिवादी के विधिक प्रतिनिधि को पक्षकार बनाया जावेगा और वाद आगे चलेगा।

इस प्रकार बनाया गया पक्षकार समुचित प्रतिरक्षा करने का हकदार होगा।

परन्तु परिसीमा की अवधि (नब्बे दिन) के भीतर ऐसा आवेदन नहीं करने पर, उस वाद का उस मृत प्रतिवादी के विरुद्ध उपशमन हो जाएगा।

न्यायालय ऐसे प्रतिवादी-

जिसने लिखित-कथन फाइल नहीं किया, या

जो लिखित-कथन फाइल कर देने के बाद न तो सुनवाई के समय उपस्थित रहा और न प्रतिवाद किया,

तो ऐसे प्रतिवादी के विधिक प्रतिनिधि को प्रतिस्थापित करने से वादी को छूट दे सकेगा, छूट देने का यह विवेकाधिकार न्यायालय वाद के किसी भी प्रक्रम पर, निर्णय के पूर्व प्रयुक्त कर सकेगा' और ऐसे प्रतिवादी की मृत्यु हो जाने पर भी उसके विरुद्ध निर्णय सुना सकेगा उपनियम (4)] इसके लिये प्ररूप संख्यांक 6, परिशिष्ट (ख) में समन जारी किया जावेगा।

वादी को जहाँ प्रतिवादी की मृत्यु का पता नहीं चल सका और वह उस प्रतिवादी की मृत्यु के दिनांक से नब्बे दिन के भीतर उसके विधिक प्रतिनिधि को प्रतिस्थापित करने का आवेदन नहीं दे सका और वाद का उपशमन हो गया, और उक्त अवधि समाप्त होने के बाद वादी ने उपशमन को अपास्त करने के लिए आवेदन किया और उसके साथ परिसीमा अधिनियम की धारा 5 के अधीन देरी को क्षमा करने का भी आवेदन किया हो और मृत्यु का ज्ञान नहीं होने का पर्याप्त कारण साबित कर दिया हो, तो न्यायालय उस पर विचार करते हुए उचित ध्यान देगा।

विधिक-प्रतिनिधि न होने को दशा में, न्यायालय द्वारा अपनायी जाने वाली प्रक्रिया नियम 4-क में ऊपर दो गई है।

कई प्रतिवादियों के विरुद्ध वाद प्रस्तुत किया लेकिन एक प्रतिवादी का वाद् प्रस्तुति से पूर्व ही निधन हो चुका था अतः उसके विधिक प्रतिनिधि अभिलेख पर नहीं लगाये जा सकते क्योंकि उसके विरुद्ध वाद अकृत है।

आदेश 1, नियम 10 तथा आदेश 22, नियम 4 की परिधि - उच्च न्यायालय में अपील जिस पक्षकार के विरुद्ध दाखिल की गई, उसकी पहले ही मृत्यु हो गई। अतः उसके वारिसों को पक्षकार बनाने के लिए आवेदन किया। आदेश 22, नियम 4 के अधीन आवेदन के लिए विहित 90 दिन का समय बहुत पहले बीत जाने के कारण उच्च न्यायालय ने यह आवेदन खारिज कर दिया। निर्णय किया गया कि- प्रस्तुत मामले में उक्त उपबंध लागू न होकर आदेश 1, नियम 10 लागू होगा, जिसके लिए परिसीमा-काल अनुच्छेद 137 के अधीन तीन वर्ष का है। आवेदन मंजूर किया गया।

मृत व्यक्ति को सम्पदा का प्रतिनिधित्व करने के लिए उसके विधिक् प्रतिनिधियों को अभिलेख पर लाने के लिए प्रस्तुत किए गए प्रार्थना पत्र का मतलब यह नहीं है कि अभिलेख पर उसके विधिक प्रतिनिधि प्रतिस्थापित हो गये है। जब आदेश 22 नियम 4(1) के अन्तर्गत प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया कया जाता है। तब न्यायालय यह विचार करेगा कि विधिक प्रतिनिधि के रूप में नामित व्यक्ति को मृत व्यक्ति को सम्पदा का प्रतिनिधित्व प्रतिनिधित्व करने के के लिए अभिलेख पर लेना चाहिए। जब तक इ क इस निमित्त कोई निर्णय नहीं। हो जाता तब तक वह व्यक्ति विधिक प्रतिनिधि के रूप में मृत व्यक्ति को सम्पदा की ओर से प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता।

आदेश 22, नियम 4 व 5 के प्रावधान आज्ञापक (Mandatory) है, अपील के लम्बित (Pending) रहने के दौरान एक मात्र प्रत्यर्थी/वादी मर जाता है। उसके विधिक प्रतिनिधियों को अभिलेख पर लिये बिना न्यायालय अपील का निस्तारण गुणावगुण (Merit) पर कर देता है तो ऐसा निर्णय मृत व्यक्ति के विरुद्ध माना जायेगा, जो अपास्त किये जाने के काबिल होगा एवं अप्रभावी होगा।

विधिक प्रतिनिधियों को अभिलेख पर प्रतिस्थापित करने का मुख्य उद्देश्य मामले का न्यायनिर्णय करने का होता है।

हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जहाँ प्रतिवादीगणों के विरुद्ध घोषणात्मक डिक्री का अनुतोष चाहा गया हो, वहाँ किसी एक प्रतिवादी की मृत्यु पर उसके विधिक प्रतिनिधि को अभिलेख पर नहीं लाये जाने पर वाद का उपशमन हो जायेगा।

मृतक प्रतिवादी के विधिक प्रतिनिधि को समन-

अपील के फाइल करने से पहले प्रतिवादी की मृत्यु हो गई, तो कोई वैध अपील मौजूद नहीं है और मृतक के विधिक प्रतिनिधियों को अभिलेख पर लाने का कोई प्रश्न नहीं उठता। इसके लिए उपाय आदेश 22 के अधीन उपलब्ध नहीं है। अपीलार्थी को नई अपील विधिक प्रतिनिधियों के विरुद्ध फाइल करने का निदेश दिया गया, यदि ऐसी अपील परिसीमा के भीतर आती है या फिर विधिक प्रतिनिधियों के विरुद्ध अपील फाइल करने में हुए विलम्ब को क्षमा करने के लिए आवेदन करना चाहिए।

न्यायालय द्वारा प्रक्रिया के मामले में उदारता रखना आवश्यक - आदेश 22 के उपवन्ध केवल प्रक्रियात्मक हैं और उनका संकुचित अर्थ नहीं किया जाना चाहिये जिससे न्याय हो विफल हो जाए। जब किसी मामले के तथ्यों व परिस्थिति से पर्याप्त कारण प्रकट हो, कि-मृतक के विधिक प्रतिनिधियों के प्रतिस्थापन में देरी जानबूझ कर नहीं हुई है, तो न्यायालय द्वारा राहत देना न्यायोचित होगा, चाहे शपथपत्र में न तो देरी का कारण लिखा है, न उपशमन को अपास्त करने की कोई प्रार्थना की गई है। विधिक प्रतिनिधियों का पक्षकार बनाने के आवेदन में इस प्रार्थना को अन्तर्हित (छिपी हुई) मान लेना चाहिये। इस मामले में, विधिक प्रतिनिधियों ने लिखित कथन फाइल किये तथा गुणागुण पर कार्यवाही में भाग लिया। दो वर्ष बाद यह एतराज उठाना कि वादियों की चूक से वाद उपशमित हो गया। ऐसा एतराज स्वीकार नहीं किया गया।

जब नियम लागू नहीं होता - बम्बई पब्लिक ट्रस्ट एक्ट 1950 की धारा 19 के अधीन की गई कार्यवाही का पक्षकार की मृत्यु पर उपशमन नहीं होता और संहिता काआदेश 22, नियम 4 लागू नहीं होता।

रिट याचिका - आदेश 22 सीपीसी के उपबंध पर रिट याचिका पर लागू नहीं है, किन्तु न्यायालय प्रार्थी की मृत्यु की दशा में फिर भी देख सकता है।

दत्तकपुत्र विधिक प्रतिनिधि होगा- एक प्रतिवादी-किराएदार का दत्तकपुत्र मृत प्रतिवादी के विधिक-प्रतिनिधि के रूप में यह तर्क (कथन) नहीं उठा सकता कि वह विवादग्रस्त भवन में एक अतिक्रमी (ट्रेसपासर) के रूप में है और बेदखली का वाद चलने योग्य नहीं है। आदेश 22 का नियम 4(2) एक मृत-प्रतिवादी के विधिक प्रतिनिधि को आक्षेपों का एक अतिरिक्त लिखित कथन प्रस्तुत करने को अधिकृत करता है, जिसमें यह मृत-प्रतिवादी या प्रत्यर्थी के व्यक्तिगत सम्बन्ध थे।

विधिक-प्रतिनिधि द्वारा लिखित कथन प्रस्तुत करना- एक विधिक प्रतिनिधि आदेश 22 नियम 4(2) के अधीन एक अधिकार के रूप में लिखित-कथन प्रस्तुत कर सकता है, उसे आदेश 8, नियम 9 के अधीन न्यायालय से अनुमति प्राप्त करने की कोई आवश्यकता नहीं है।

नोटिस का प्रभाव - खाताधारी की मृत्यु की सूचना जब बैंक की शाखा को दो गई, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि उस बैंक को दूसरी शाखा को भी सूचना दे दो गई।

अपील में विधिक प्रतिनिधि को पक्षकार बनाना - सहस्वामियों के रूप में घोषणा करने का वाद डिक्रीत कर दिया गया, उसकी अपील में अपीलार्थी ने मृतक के विधिक प्रतिनिधियों को पक्षकार बनाने के लिए आवेदन समय के भीतर नहीं किया। केवल मृतक प्रत्यर्थी के विरुद्ध अपील के उपशमन का आदेश उचित नहीं है। वादी ने एक सहस्वामियों के रूप में दावा किया था, न कि संयुक्त स्वामियों के रूप में। अत: जीवित प्रत्यर्थियों द्वारा मृतक की सम्पदा का प्रतिनिधित्व करने का मापदण्ड (टेस्ट) यहाँ लागू नहीं होता।

विधिक-प्रतिनिधियों का प्रत्यास्थापन - एक धन वसूली के वाद में वाद फाइल करने से पहले प्रतिवादी को मृत्यु हो गई, जिसका पता बाद में चला। ऐसी दशा में, उस मृतक प्रतिवादी के विधिक-प्रतिनिधियों को वाद के शीर्षक में प्रतिस्थापित करने के संशोधन के लिए आवेदन चलने योग्य है और उसे आरंभ में ही शून्य मानकर खारिज नहीं किया जा सकता। परन्तु ऐसा आवेदन परिसीमा के भीतर करना होगा।

उपशमन अपास्त करने के लिए आवेदन परिसीमाकाल-अपील के एकमात्र प्रत्यर्थी के मरने पर उसके विधिक प्रतिनिधियों को पक्षकार बनाने के लिए 90 दिन के भीतर आवेदन न करने पर अपील का उपशमन उपशमन अपास्त करने के लिए 60 दिन के भीतर कोई आवेदन न किया जाना आवेदन का कालर्जित होना-आवेदन फाइल करने में हुआ विलम्ब माफ करने के लिए किसी प्रकार के कारण के अभाव में उपशमन अपास्त नहीं किया जा सकता।

पक्षकार बनाने के लिए आवेदन [आदेश 22, नियम 4 और 10] यदि वाद में मूल पक्षकार की मृत्यु होने पर, जो हिन्दू अविभक्त कुटुम्ब का कर्ता था, उसके स्थान पर नए कर्ता को पक्षकार बनाने के लिए आवेदन नियम 4 की बजाय नियम 10 के अधीन किया गया हो तो भी आवेदन की मंजूरी को तकनीकी त्रुटि के आधार पर अपास्त नहीं किया जाएगा।

कब्जा लेने की कार्यवाही अपील मृतक अभिधारी के विधिक प्रतिनिधि को पक्षकार बनाना आवश्यक है-विधिक प्रतिनिधि मृतक की वैयक्तिक हैसियत से भिन्न अपना कोई भी दावा कर सकता है।

उपशमन का स्वरूप उपशमन स्वतः होता है, इसके लिए किसी आदेश की आवश्यकता नहीं होती। विहित समय (नब्बे दिन) के बाद भी उत्तराधिकारी को पक्षकार जोड़ा जा सकता है। औपचारिक (formal) पक्षकार के विधिक-प्रतिनिधि को नहीं जोड़ने से उपरामन नहीं होता।

वारिसों के प्रतिस्थापन से अभिमुक्ति (छूट) (आदेश 22 के नियम का उपनियम (4) जैसा कि यह सिविल प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम, 1976 द्वारा अंतःस्थापित किया गया] उच्च न्यायालय निर्णय दिए जाने से पूर्व बाद के किसी भी प्रक्रम पर उपशमन को अपास्त किए बिना भी आदेश 22 के नियन 4 के उपनियम (4) के अधीन वारिसों के प्रतिस्थापन से अभिमुक्ति दे सकता है-यदि न्यायालय द्वारा उपशमन का आदेश पहले ही अभिलिखित कर दिया गया है तो आदेश 22 के नियम 4 का उपनियम (4) लागू नहीं होगा-आदेश 22 नियम 4(4) को लागू करने की दो शर्तें हैं (1) प्रतिवादी लिखित कथन फाइल करने में असफल रहा अथवा उसे फाइल करने के पश्चात् बाद की सुनवाई के समय उपस्थित होने और उसका प्रतिवाद करने में असफल रहा; और (2) न्यायालय द्वारा उपशमन का कोई आदेश अभिलिखित न किया गया हो।

जब आदेश 22, नियम 10 लागू होगा एक मामले में प्रत्यर्थी की मृत्यु पर अपील का उपशमन कर दिया गया, परन्तु उच्च न्यायालय ने उस निर्णय को पलटते हुए अभिनिर्धारित किया कि इस मामले में प्रत्यर्थी ने अपने जीवनकाल में ही अपनी विवादग्रस्त सम्पत्ति का अन्तरण अपनी पत्नी के नाम से कर दिया था। अतः उसकी मृत्यु पर उसकी पत्नी (अन्तरिती) को आदेश 22 के नियम 10 के अधीन अभिलेख पर लाया जावेगा, न कि आदेश 22 के नियम 4 के अधीन एक विधिक प्रतिनिधि के रूप में।

जब वादी ने उसी न्यायालय में एक दूसरे बाद में विधिक प्रतिनिधियों के प्रतिस्थापन की कार्यवाही की, पर दूसरे वाद में वह प्रतिस्थापन नहीं करवा सका। ऐसे मामले में उसे विधिक प्रतिनिधियों के प्रतिस्थापन से छूट नहीं दी जा सकती।

कार्यवाही वापस खोलने की मांग अधिकार नहीं जब किसी कार्यवाही के एक पक्षकार द्वारा दूसरे पक्षकार के अधिकार तथा दायित्व का अर्जन करने पर उसे पक्षकार बनाया जाता है, तो वह उस कार्यवाही वापस खोलने की मांग नहीं कर सकता।

वाद का पुनर्जीवित होना एक बाद को समापन कार्यवाही के परिणामस्वरूप स्थगित कर दिया गया और इसी बीच एक पक्षकार का देहान्त हो गया। जब वाद पुनर्जीवित हुआ, तो उस मृतक के वारिसों ने प्रत्यास्थापन के लिए आवेदन किया, जो बाद के पुनर्जीवित होने के दिनांक से परिसीमा के भीतर माना गया।

जब कोई उत्तराधिकारी नहीं अपील में प्रत्यर्थी की मृत्यु से लगभग 15 मास बाद एक व्यक्ति का आवेदन कि प्रत्यर्थी की मृत्यु हो गई है और आवेदक को उसके वारिस के रूप में पक्षकार बनाया जाए। तत्पश्चात् अपीलार्थी का आवेदन कि उपशमन (abatement) को रद्द करके राज्य शासन को पक्षकार बनाया जाए क्योंकि प्रत्यर्थी का कोई उत्तराधिकारी नहीं है। नियम 10-क द्वारा किए गए परिवर्तनों को ध्यान में रखे बिना अपीलार्थी के आवेदन को खारिज कर देना अनुचित।

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