सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 111: आदेश 21 नियम 19 से 22(क) के प्रावधान

Update: 2024-01-31 05:38 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 21 का नाम डिक्रियों और आदेशों का निष्पादन है। इस आलेख के अंतर्गत नियम 19 से लेकर नियम 22(क) तक विवेचना प्रस्तुत की जा रही है।

नियम-19 एक ही डिक्री के अधीन प्रतिदावों की दशा में निष्पादन- जहां न्यायालय से आवेदन ऐसी डिक्री के निष्पादन के लिए किया गया है, जिसके अधीन दो पक्षकार एक दूसरे से धन की राशियां वसूल करने के हकदार हैं, वहां-

(क) यदि दोनों राशियां बराबर हैं तो दोनों के लिए तुष्टि की प्रविष्टि डिक्री में कर दी जाएगी; तथा

(ख) यदि दोनों राशियां बराबर नहीं हैं तो बड़ी राशि के हकदार पक्षकार द्वारा ही और केवल उतनी ही राशि के लिए जो छोटी राशि के घटाने के पश्चात् शेष रहती है, निष्पादन कराया जा सकेगा, और छोटी राशि की तुष्टि की प्रविष्टि डिक्री में कर दी जाएगी।

नियम-20 बंधक-वादों में प्रति-डिक्रियां और प्रतिदावे- नियम 18 और नियम 19 में अन्तर्विष्ट उपबन्ध, बन्धक या भार का प्रवर्तन कराने में विक्रय की डिक्रियों को लागू होंगे।

नियम-21 एक साथ निष्पादन- न्यायालय निर्णीतऋणी के शरीर और सम्पत्ति के विरुद्ध एक साथ निष्पादन करने से इंकार स्वविवेकानुसार कर सकेगा।

नियम-22 कुछ दशाओं में निष्पादन के विरुद्ध हेतुक दर्शित करने की सूचना (1) जहां निष्पादन के लिए आवेदन-

(क) डिक्री की तारीख के [दो वर्ष] के पश्चात् किया गया है, अथवा

(ख) डिक्री के पक्षकार के विधिक प्रतिनिधि के विरुद्ध किया गया है, [ अथवा जहां धारा 44क के उपबन्धों के अधीन फाइल की गई डिक्री के निष्पादन के लिए आवेदन किया गया है], [अथवा] [(ग) जहां डिक्री का पक्षकार दिवालिया न्यायनिर्णीत किया गया है वहां दिवाले में समनुदेशिती या रिसीवर के विरुद्ध किया गया है]

वहां डिकी निष्पादन करने वाला न्यायालय उस व्यक्ति के प्रति, जिसके विरुद्ध निष्पादन के लिए आवेदन किया गया है, यह अपेक्षा करने वाली सूचना निकालेगा कि वह उस तारीख को जो नियत की जाएगी, हेतुक दर्शित करे कि डिक्री उसके विरुद्ध निष्पादित क्यों न की जाए।

परन्तु ऐसी कोई सूचना न तो डिक्री की तारीख और निष्पादन के लिए आवेदन की तारीख के बीच [ दो वर्ष] से अधिक बीत जाने के परिणामस्वरूप उस दशा में आवश्यक होगी जिसमें कि निष्पादन के लिए किसी पूर्वतन आवेदन पर उस पक्षकार के विरुद्ध, जिसके विरुद्ध निष्पादन के लिए आवेदन किया गया है, किए गए अन्तिम आदेश की तारीख से [ दो वर्ष] के भीतर ही निष्पादन के लिए आवेदन कर दिया गया है और न निर्णीतऋणी के विधिक प्रतिनिधि के विरुद्ध आवेदन किए जाने के परिणामस्वरूप उस दशा में आवश्यक होगी जिसमें कि उसी व्यक्ति के विरुद्ध निष्पादन के लिए पूर्वतन आवेदन पर न्यायालय उसके विरुद्ध निष्पादन चालू करने का आदेश दे चुका है।

(2) पूर्वगामी उपनियम की कोई भी बात उस उपनियम द्वारा विहित सूचना निकाले बिना डिक्री के निष्पादन में कोई आदेशिका निकालने से न्यायालय को प्रवारित करने वाली नहीं समझी जाएगी, यदि उन कारणों से जो लेखबद्ध किए जाएंगे, उसका विचार हो कि ऐसी सूचना निकालने से अयुक्तियुक विलम्ब होगा या न्याय के उद्देश्य विफल हो जाएंगे।

नियम-22(क) विक्रय से पूर्व किन्तु विक्रय की उद्घोषणा की तामील के पश्चात् निर्णीतऋणी की मृत्यु पर विक्रय का अपास्त न किया जाना-जहाँ किसी सम्पत्ति का किसी डिक्री के निष्पादन में विक्रय किया जाता है वहाँ केवल इस कारण कि विक्रय की उद्घोषणा के जारी किए जाने की तारीख और विक्रय की तारीख के बीच निर्णीत-ऋणी की मृत्यु हो गई है और इस बात के होते हुए भी विक्रय अपास्त नहीं किया जाएगा कि डिक्रीदार ऐसे मृत निर्णीतऋणी के विधिक प्रतिनिधि को उसके स्थान पर रखने में असफल रहा है, किन्तु ऐसी असफलता की दशा में न्यायालय विक्रय को उस दशा में अपास्त कर सकेगा जिसमें उसका समाधान हो जाता है कि विक्रय का मृत निर्णीतऋणी के विधिक प्रतिनिधि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है।

आदेश 21 नियम 19 एक ही डिक्री के अधीन प्रतिदावों (काउन्टर क्लेम्स) के निष्पादन की व्यवस्था करता है। यह नियम बन्धक वादों में प्रतिद्धिक्रियों और प्रतिदावों पर भी लागू होता है, जैसा नियम 20 में उपबन्धित किया गया है। इस नियम का उद्देश्य एक ही डिक्री के अधीन दो दावों को एक साथ निपटाना है, ताकि निष्पादन की दो कार्यवाहियों नहीं करनी पड़े।

निष्पादन का तरीका- किसी डिक्री में जब दोनों पक्षकार एक दूसरे से धन-राशियां वसूल करने के हकदार हो, तो वहां-

(क) दोनों राशियाँ बराबर (समान) हो, तो डिक्री में उनकी तुष्टि (समायोजन) लिख दी जावेगी और

(ख) दोनों राशियों बराबर न हो, असमान हो, तो छोटी राशि की तुष्टि लिखी जावेगी और बड़ी राशि का हकदार पक्षकार दोनों राशियों के अन्तर के बराबर शेष राशि का निष्पादन करा सकेगा।

जब एक डिक्री में दोनों पक्षकार एक दूसरे से कुछ राशि प्राप्त करने के हकदार होते हैं, तो दोनों में से बड़ी राशि मांगने वाले पक्षकार को ही डिक्री का निष्पादन कराने का अधिकार है, छोटी रकम वाला पक्षकार समायोजन करायेगा, न कि निष्पादन। जब बड़ी रकम का हकदार पक्षकार पूरी रकम के लिए डिक्री का निष्पादन करवा लेता है, तो उसे उस छोटी रकम वाले पक्षकार को उसकी रकम वापस करनी होगी। इसके लिए धारा 151 का सहारा लिया जा सकता है। निष्पादन न्यायालय को यह अन्तर्निहित शक्ति प्राप्त है कि वह इस नियम की बातों में नहीं आने वाले मामलों में भी सेट ऑफ लागू कर सकता है।

नियम 20 के अनुसार बंधक वादों में प्रतिडिक्रियों और प्रतिदावों के मामलों में उपरोक्त नियम 18 तथा 19 के उपबन्ध लागू होंगे। इस नियम से परोक्ष रूप में यह प्रकट होता है कि- धन के संदाय के लिए डिक्री शब्दावली में बन्धक या भार को लागू करने के लिए विक्रय की डिक्री सम्मिलित नहीं है।

डिक्री की प्रकृति- नियम 20 की भाषा से यह प्रकट नहीं होता है कि- समायोजन या मुजरा की जाने वाली दोनों डिक्रियां बन्धक वाद की डिक्रियां होनी चाहिये। अतः एक भार के प्रवर्तन में विक्रय की डिक्री को अन्तःकालीन लाभ की डिक्री के साथ मुजरा किया जा सकता है। यह निर्णय बंधक- डिक्री में निहित व्यक्तिगत उपचार के अधिकार तक सीमित है।

इस नियम को लागू करने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि डिक्री के अधीन व्यक्तिगत दायित्व हो, यह पर्याप्त है कि वह दायित्व विधिक रूप से प्रवर्तनीय (लागू करने योग्य) हो।

एक साथ निष्पादन- न्यायालय निर्णीतऋणी के शरीर और सम्पत्ति के विरुद्ध एक साथ निष्पादन करने से इंकार स्वविवेकानुसार कर सकेगा।

आदेश 21 के नियम 21 में एक साथ (साथ-साथ) निष्पादन करने का विवेकाधिकार न्यायालय को प्रदान किया गया है।

न्यायालय का विवेक- यह न्यायालय के विवेकाधिकार में है कि वह निर्णीत-ऋणी के शरीर के विरुद्ध (अर्थात् उसे गिरफ्तार करने या सिविल जेल में भेजने) या उसकी सम्पत्ति के विरुद्ध (अर्थात्- सम्पत्ति को कुर्क करके या विक्रय द्वारा) एक ही समय पर एक साथ दोनों तरीकों से निष्पादन का आदेश देवे या इसके लिए इन्कार करे। न्यायालय डिक्रीदार के एक साथ निष्पादन करवाने के आवेदन पर स्वविवेक से यह निर्देश दे सकता है कि पहले एक रीति (तरीके) से निष्पादन करवाया जावे और फिर दूसरा तरीका अपनाया जावे।

यह नियम केवल धन संबंधी डिक्री के बारे में नहीं है। यह सब प्रकार की डिक्रियों को लागू होता है।

सिविल कारागार में निरोध का प्रश्न- धन के संदाय की डिक्री का निष्पादन निर्णीतऋणी को सिविल कारागार में निरोध द्वारा या उसकी सम्पत्ति की कुर्की और विक्रय दोनों तरीकों से किया जा सकता है। परन्तु यदि न्यायालय का यह अभिमत हो कि डिक्रीदार निर्णीत-ऋणी को अनावश्यक रूप से तंग कर त्रास देने के लिए न्यायालय की क्रिया का दुरुपयोग करना चाहता है, तो न्यायालय ऐसी दशा में डिक्री का निष्पादन उस रीति से करने से मना कर सकता है।

ध्यान रहे, कारागार में भेजने के लिए संहिता की धारा 51 तथा धारा 58 के उपबन्धों का पालन करना होगा

आदेश 21 का नियम 22 उन परिस्थितियों का वर्णन करता है, जिसमें निष्पादन करने के विरुद्ध निर्णीत-ऋणी या उसके विधिक प्रतिनिधि को हेतुक दर्शित करने (कारण बताने) के लिए नोटिस (सूचना) देना आवश्यक होगा। 1978 के संशोधन में एक वर्ष की अवधि को प्रतिस्थापित कर दो वर्ष कर दिया गया है।

इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश) तथा मध्य प्रदेश के उच्च न्यायालयों ने संशोधन कर इस नियन में एक पन्तुक जोड़ा है, जो एक समान है-

परन्तु किसी डिक्री के निष्पादन के लिए कोई आदेश इस कारण अवैध नहीं होगा कि इस नियम के अधीन सूचना पत्र (नोटिस) जारी किये जाने में कोई त्रुटि हुई है, जब तक कि निर्णीत-ऋणी को उस त्रुटि के कारण गम्भीर क्षति नहीं हुई हो

नियम की वैधता का प्रश्न यह नियम संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं करता है, न यह नेसर्गिक न्याय के सिद्धान्तों के प्रतिकूल है वरन् इसमें सूचना देने का प्रावधान किया गया है, जो आवश्यक है।

नोटिस (सूचना) कब आवश्यक (उपनियम-1) निष्पादन का आवेदन यदि निम्न परिस्थितियों में दिया गया है, तो न्यायालय एक नोटिस द्वारा निर्णीत-ऋणी को एक नियत तारीख को डिक्री के निष्पादन के विरुद्ध कारण बताने के लिए सूचित करेगा:-

(1) डिक्री की तारीख के बाद दो वर्ष बीत जाने पर निष्पादन का आवेदन पेश करने पर, अथवा

(2) जब निष्पादन का आवेदन डिक्री के पक्षकार (निर्णीत ऋणी) के विधिक प्रतिनिधि के विरुद्ध है, अथवा

(3) जहां पता 44-क के उपबंधों के अधीन फाइल की गई डिक्री के निष्पादन का आवेदन किया गया है (धारा 4-क-व्यतिकारी राज्य क्षेत्रों के न्यायालयों द्वारा पारित डिक्री के निष्पादन के बारे में है) अथवा

(4) जहां डिक्री का पक्षकार दिवालिया घोषित कर दिया गया है और दिवाले में समनुदेशिती या रिसीवर के विरुद्ध निष्पादन-आवेदन किया गया है।

नोटिस जब आवश्यक नहीं होगा (परन्तुक) उप नियन (1) के नीचे परन्तुक के अनुसार (1) निष्पादन के पहले के आवेदन पर अन्तिम आदेश की तारीख से दो वर्ष के भीतर आवेदन कर दिया गया हो, (2) विधिक प्रतिनिधि के विरुद्ध पहले के आवेदन पर निष्पादन चालू करने का आदेश दे दिया गया हो।

इन दोनों स्थितियों में नोटिस देना आवश्यक नहीं होगा।

नोटिस से अभिमुक्ति (छूट)-(उपनियम-2)-

उपनियम (2) न्यायालय को एक विशेष शक्ति प्रदान करता है, जिसका प्रयोग न्यायालय आपवादिक मामलों में कर सकता है। इस प्रकार उपनियम (1) के अधीन सूचना निकाले बिना भी न्यायालय निम्न शर्तों का पालन करने पर आगे निष्पादन की आदेशिका निकाल सकता है। ऐसी सूचना निकालने से (क) निष्पादन में अनुचित देरी होगी, या (ख) न्याय के उद्देश्य की विफलता (असफलता) होगी (ग) इन कारणों को लेखबद्ध किया जावेगा। इस प्रकार कारण लेखबद्ध करना आवश्यक है, परन्तु ऐसा न करना केवल एक अनियमितता माना गया है।

आदेश 21 के नियम 23(1) और (2) निर्णीत-डिक्रियों के निष्पादन की कार्यवाही के एक ही प्रक्रम के बारे में है। उपनियम (2) किसी पश्चात्वर्ती प्रक्रम पर निर्णीत-ऋणी की हाजिरी अनुध्यात नहीं करता।

नोटिस की तामील की आवश्यकता-

नोटिस निकालना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् निर्णीत-ऋणी या उसके विधिक प्रतिनिधियों पर उसकी तामील करवाना आवश्यक है। नोटिस देने की प्रक्रिया को उपनियम (2) के अधीन छोड़ा जा सकता है, परन्तु इसके लिए कारण लेखबद्ध करने होंगे। उपनियम (2) का पालन करने के बाद ही नोटिस की औपचारिता की आवश्यकता नहीं है। अन्यथा नोटिस देना आवश्यक है। इस नियम के अधीन न्यायालयों ने नोटिस देना आवश्यक माना है। बिना नोटिस न्यायालय को आगे कार्यवाही करने की अधिकारिता नहीं है और नोटिस का लोप करने पर विक्रय स्वतः (अपने आप) शून्य हो जाता है।

परन्तु यदि निर्णीत-ऋणी को निष्पादन कार्यवाही का पता चल जाता है और वह उपस्थित हो जाता है, तो फिर नोटिस की आवश्यकता नहीं होती। इस नियम का उद्देश्य निर्णीत-ऋणी को निष्पादन के विरुद्ध कारण दर्शित करने का एक अवसर देना है। इस प्रकार न्यायालय की कार्यवाही में भाग लेने के बाद वह यह नहीं कह सकता कि- उसे नोटिस नहीं देने से कार्यवाही दूषित हो गई। इस प्रकार नोटिस नहीं देना एक अनियमितता मानी गई है, इससे विक्रय शून्य या अवैप नहीं जाता।

नोटिस की तामील में अनियमितता करना और तामील नहीं करना में अन्तर है। तामील नहीं करना आदेश 21. नियम 10 के अधीन एक तात्विक अनियमितता है। एक अवयस्क को वयस्क मानकर की गई नोटिस की तामील एक अनियमितता है।

गलत व्यक्ति को विधिक प्रतिनिधि के रूप में नोटिस का प्रभाव एक सही व्यक्ति को नोटिस नहीं देना एक गंभीर अनियमितता है और इसके परिणामस्वरूप विक्रय शून्यकरणीय हो गया अर्थात् यह उस समय तक वैप है, जब तक उसे आदेश 21, नियम 10 के अधीन अपास्त नहीं कर दिया जाय या परिसीमा के भीतर बह स्वतंत्र बाद द्वारा उसे अपास्त न करवा लेवे।

अपीलार्थी ने उपस्थित होकर एतराज किया कि वह सही व्यक्ति नहीं है, परन्तु न्यायालय ने उस एतराज पर यह निर्णय दिया कि वह सही व्यक्ति है और फिर निष्पादन किया। इस प्रकार न्यायालय ने अपनी अधिकारिता का प्रयोग किया। यह सत्य है कि उसने यह दुखद गलती की, पर न्यायालय को गलत और सही दोनों का निर्णय करने की अधिकारिता है।

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