सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 आदेश भाग 110: आदेश 21 नियम 18 के प्रावधान

Update: 2024-01-30 10:01 GMT

सिविल प्रक्रिया संहिता,1908(Civil Procedure Code,1908) का आदेश 21 का नाम डिक्रियों और आदेशों का निष्पादन है। इस आलेख के अंतर्गत नियम 18 पर प्रकाश डाला जा रहा है।

नियम-18 प्रति-डिक्रियों की दशा में निष्पादन (1) जहां न्यायालय से आवेदन ऐसी प्रति-डिक्रियों के निष्पादन के लिए किए जाते हैं जो दो राशियों के संदाय के लिए पृथक् पृथक् वादों में उन्हीं पक्षकारों के बीच पारित की गई हैं और ऐसे न्यायालय द्वारा एक ही समय निष्पादनीय हैं, वहां-

(क) यदि दोनों राशियाँ बराबर हैं तो दोनों डिक्रियों में तुष्टि की प्रविष्टि कर दी जाएगी; तथा (ख) यदि दोनों राशियां बराबर नहीं है तो बड़ी राशि वाली डिक्री के धारक द्वारा ही और केवल उतनी ही राशि के लिए जो छोटी राशि को घटाने के पश्चात् शेष रहती है, निष्पादन कराया जा सकेगा और बड़ी राशि वाली डिक्री में छोटी राशि की तुष्टि की प्रविष्टि कर दी जाएगी और साथ ही साथ छोटी राशि वाली डिक्री में भी तुष्टि की प्रविष्टि कर दी जाएगी।

(2) इस नियम के बारे में यह समझा जाएगा कि ये वहां लागू हैं जहां दोनों में से कोई पक्षकार उन डिक्रियों में से एक का समनुदेशिती है और मूल समनुदेशक द्वारा शोध्य निर्णीतऋणों के बारे में भी वैसे ही लागू हैं जैसे स्वयं समनुदेशिती द्वारा शोध्य निर्णीत ऋणी को।

(3) इस नियम के बारे में यह नहीं समझा जाएगा कि यह लागू है जब तक कि- (क) उन वादों में से, जिनमें डिक्रियां की गई है एक में का डिक्रीदार दूसरे में का निर्णीतऋणी न हो और हर एक पक्षकार दोनों वादों में ऐसी ही हैसियत न रखता हो; तथा (ख) डिक्रियों के अधीन शोध्य राशियां निश्चित न हों।

(4) कई व्यक्तियों के विरुद्ध संयुक्ततः और पृथक्तः पारित डिक्री का धारक अपनी डिक्री को ऐसी डिक्री के सम्बन्ध में जो ऐसे व्यक्तियों में एक या अधिक के पक्ष में अकेले उसके विरुद्ध पारित की गई हो प्रति-डिक्री के रूप में बरत सकेगा।

इस नियम के संबंध में संहिता में निम्न दृष्टांत दिए गए हैं-

(क) ख के विरुद्ध 1,000 रुपए की डिक्री क के पास है। क के विरुद्ध 1,000 रुपए के संदाय के लिए एक डिक्री ख के पास है जो तब संदेय होगी जबकि क कतिपय माल किसी भविष्यवर्ती दिन को परिदान करने में असफल रहे। ख अपनी डिक्री को प्रति-डिक्री के रूप में इस नियम के अधीन नहीं बरत सकता।

(ख) सहवादी ख और क 1,000 रुपए की डिक्री ग के विरुद्ध अभिप्राप्त करते हैं और ख के विरुद्ध ग 1,000 रुपए की डिक्री अभिप्राप्त करता है। इस नियम के अधीन ग अपनी डिक्री को प्रति-डिक्री के रूप में नहीं बरत सकता।

(ग) क 1,000 रुपए की डिक्री ख के विरुद्ध अभिप्राप्त कर सकता है। ग जो ख का न्यासी है ख की ओर से क के विरुद्ध 1,000 रुपए की डिक्री अभिप्राप्त करता है। ख इस नियम के अधीन ग की डिक्री को प्रति-डिक्री के रूप में नहीं बरत सकता।

(घ) क, ख, ग, घ और ङ संयुक्ततः और पृथकत: च द्वारा अभिप्राप्त डिक्री के अधीन 1,000 रुपये के देनदार हैं। क अकेला च के विरुद्ध 1,000 रुपए की डिक्री अभिप्राप्त करता है और उस न्यायालय मे निष्पादन के लिए आवेदन करता है जिसमें वह संयुक्त डिक्री निष्पादित की जा रही है। घ इस नियम के अधीन अपनी संयुक्त डिक्री को प्रति डिक्री के रूप में बरत सकेगा।

नियम 18 प्रति-डिक्रियों के निष्पादन का तरीका बताता है, जब कि आगे नियम 19 में एक ही डिक्री के अधीन प्रतिदावों का निष्पादन करना बताया गया है। नियम 18 और 19 के उपबंध बन्धक या भार (चार्ज) से संबंधित है।

दोनों डिक्रीदारों द्वारा निष्पादन आवेदन पहली शर्त-

जहां न्यायालय से आवेदन ऐसी प्रति डिक्रियों के निष्पादन के लिए किए जाते हैं यह शब्दावली यह प्रकट करती है कि- प्रतिडिक्रियाँ के निष्पादन के लिए न्यायालय में दोनों द्वारा आवेदन किया जाना आवश्यक है।

जहां दोनों में से कोई डिक्रीदार आवेदन करने का लोप करता है, तो दूसरा डिक्रीदार अपनी डिक्री की पूरी राशि को प्राप्त करने के लिए निष्पादन करवा सकता है।

नियम लागू होने की शर्तें [उप नियम (1)]- जब तक निम्नलिखित चार शर्तें पूरी नहीं हो जाती, यह नियम लागू नहीं होता-

(1) ऐसी प्रतिडिक्रियाँ (दो डिक्रियां) हैं, जो दो राशियों के संदाय के लिए हैं,

(2) जो दो पृथक् पृथक् (अलग-अलग) वादों में प्राप्त की गई हैं,

(3) जो एक ही समय एक ही न्यायालय में निष्पादनीय हैं, और

(4) जो उन वादों के उन्हीं (समान) पक्षकारों के बीच पारित की गई हैं- अर्थात् उनकी एक सी ही हैसियत हो।

जो एक वाद में डिक्रीदार हो, दूसरे में निर्णीत-ऋणी होगा।

इस नियम में दिए गए दृष्टांत में

दृष्टांत (क) में- ख के पास की डिक्री संदेय नहीं है, क्योंकि वह सशर्त है।

दृष्टांत (ख) में- इसमें पक्षकारों की एक सी हैसियत नहीं है।

दृष्टांत (ग)- इसमें भी पक्षकारों की एक सी हैसियत नहीं है।

अतः इन तीनों दृष्टान्तों में यह नियम लागू नहीं होता और ये प्रतिडिक्रियाँ नहीं है।

दृष्टांत (प) में- क, ख, ग, घ व ड संयुक्तः और पृथक्तः देनदार (निर्णीतऋणी है) अतः पृथक्तः देनदार होने से वह लेनदार "च" के विरुद्ध प्राप्त की गई डिक्री का मुजरा संयुक्त डिक्री के निष्पादन के समय करवा सकता है।

मुजरा (set of) करने का तरीका-

उपनियम (1) के खण्ड (क) के अनुसार यदि दोनों डिक्रियों की संदेय राशि (रकम) बराबर है, तो दोनों डिक्रियों में उनकी तुष्टि हो जाना लिख दिया जावेगा, परन्तु खण्ड (ख) के अनुसार यदि दोनों डिक्रियों की राशियाँ बराबर (समान) नहीं है, तो छोटी राशि की तुष्टि दोनों डिक्रियों में लिख दी जावेगी और बड़ी राशि वाली डिक्री की शेष राशि- अर्थात् दोनों राशियों के अन्तर की राशि का निष्पादन कराया जा सकेगा।

उदाहरणार्थ-

रोहन की डिक्री 11,000 रुपए की है, जबकि सोहन की डिक्री 7,000/- रु. की है। तो दोनों डिक्रियों में 7,000/- रु. की तुष्टि लिख दी जावेगी और रोहन 11,000-7,000 4,000 रुपए के लिए अपनी डिक्री का निष्पादन करवा सकेगा। उपनियम (2) के अनुसार समनुदेशन के मामलों में भी मुजरा किया जा सकेगा।

दोनों वादों में एक सी ही हैसियत होना आवश्यक

रोहन के पक्ष में खर्चे के संदाय की व्यक्तिगत डिक्री है, उसे सोहन की उस सम्पत्ति के विरुद्ध दी गई डिक्री के साथ मुजरा नहीं किया जा सकता, जो रोहन के पास सोहन के विधिक प्रतिनिधि होने के नाते से कब्जे में है। यहां दोनों डिक्रीदार एक सी ही हैसियत में नहीं हैं। परन्तु न्यायालय अन्तर्निहित शक्ति के प्रयोग में धारा 151 के अधीन ऐसे मामले में मुजरा का आदेश दे सकता है।

अन्तःकालीन लाभ के आदेश का मुजरा-

धारा 144 के अधीन अन्तःकालीन लाभों के संदाय के लिए दिया गया आदेश धारा 2(2) के अधीन एक डिक्री है, जिसे इस नियम के अधीन मुजरा किया जा सकता है।

सुस्थापित स्थिति- यह सुस्थापित है कि-सामान्य सिद्धान्तों पर न्यायालय को नियम 18 तथा 19 से आवृत नहीं होने वाले मामलों में भी मुजरा स्वीकृत करने की अधिकारिता है। एक माध्यस्थम् अधिनिर्णय में मांगी गई राशि को डिक्री के अधीन मांगी गई राशि के साथ मुजरा किया जा सकता है।

मुजरा अनुज्ञात करने की न्यायालय की शक्ति आदेश 21, नियम 18-

यदि कोई राशि उसी संव्यवहार से उत्पन्न हो जिससे कि डिक्रीदार की उत्पन्न हुई है या ऐसे संव्यवहार से उत्पन्न हो जो कि उस मामले में डिक्रीदार वाले संव्यवहार का भाग समझा जा सके, तो ऐसी राशि का मुजरा किया जा सकता है और यदि समायोजन किए जाने के लिए ईप्सित रकम अभी डिक्रीदार के विरुद्ध दायित्व के रूप में अवधारित की जानी शेष है तो उसका मुजरा नहीं किया जा सकता।

एक वाद में अपीलार्थी एक ठेकेदार है। उसने हैदराबाद-विजयवाड़ा राष्ट्रीय मार्ग पर कुछ निर्माण कार्य करने के लिए राज्य सरकार के साथ दो करार किए थे। जबकि कार्य प्रगति पर था; उस समय ठेकेदार ने विलंब, कीमतों में वृद्धि के कारण तथा अन्य शीर्षों के अधीन हुई हानि की बाबत कतिपय दावे किए। मध्यस्थ ने ठेकेदार को पांच शीर्षों के अधीन 99,00,000 रुपये का हकदार अभिनिर्धारित किया।

सिविल न्यायालय ने मध्यस्थ का अधिनिर्णय अपास्त कर दिया। ठेकेदार द्वारा उच्च न्यायालय में अपील करने पर उच्च न्यायालय ने उन दावों में से केवल एक दावे के विस्तार तक जो कि 16,00,000 रुपए की राशि के लिए था, अपील मंजूर कर ली। डिक्री के अधीन शोध्य रकम की वसूली के लिए ठेकेदार ने एक निष्पादन याचिका फाइल की जिसमें डिक्रीत रकम के रूप में 16,00,000 रुपए, ब्याज के रूप में 7,80,000 रुपए तथा निष्पादन याचिका के खर्च के रूप में 8,691 रुपए की वसूली का दावा किया गया।

राज्य सरकार ने ठेकेदार द्वारा सरकार को देय 22,91,332 रुपए की राशि के समायोजन की ईप्सा की। राज्य सरकार ने समायोजन के पश्चात् ठेकेदार को देय 76,667 रुपए की राशि के अतिरिक्त सरकार के पास ठेकेदार की अन्य जमा राशियों सहित कुल 3,92,230 रुपए न्यायालय में जमा करा दिए। निष्पादन न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि राज्य सरकार अपने द्वारा दावाकृत रकम का मुजरा करने की हकदार है।

ठेकेदार ने उच्च न्यायालय के समक्ष एक पुनरीक्षण याचिका फाइल की। समायोजन दो राशियों की बाबत चाहा गया। 10,21,800 रुपए की राशि अधिनिर्णय के अंतर्गत आने वाली संविदाओं की बाबत अंतिम बिल तैयार करने पर ठेकेदार द्वारा सरकार को देय पाई गई। इसके अतिरिक्त, 12,69,532 रुपए की मांग ठेकेदार द्वारा अन्य संविदा में किए गए भंग की बाबत थी। उच्च न्यायालय ने दोनों मांगों के समायोजन ठीक पाए। इस पर ठेकेदार ने उच्चतम न्यायालय में अपील फाइल की। अपील भागतः मंजूर करते हुए, अभिनिर्धारित किया-

जहां तक समायोजन के प्रथम दावे का संबंध है, मामला संविदा के खंड 68 के अन्तर्गत आता है। डिक्री के अधीन ठेकेदार के पक्ष में जो अधिनिर्णय दिया गया था वह उसे सौंपे गए कार्य के केवल एक भाग से संबंधित रकम के बारे में था। संविदा अभी निष्पादन की प्रक्रिया के अधीन थी। ऐसे कार्य के लिए उसके द्वारा दावाकृत कोई भी रकम अंतिम बिल तैयार करने पर लेखे के अंतिम रूप से तय किए जाने के अध्यधीन थी। संदाय करने का अधिकार संविदा के निबंधनों पर आधारित था।

संविदा के अनुसार कार्य किए जाने के दौरान किया गया कोई भी संदाय अनंतिम संदाय की प्रकृति का था। यह सदैव अंतिम बिल तैयार किए जाने पर ठेकेदार के विरुद्ध देय पाई गई रकमों के समायोजन के अध्यधीन था। अतः प्रथम कारण के लिए राज्य सरकार द्वारा दावाकृत रकम ठेकेदार द्वारा दावाकृत डिक्रीत रकम में से मुजरा की जा सकती है।

दूसरा दावा साम्यापूर्ण मुजरा के सिद्धान्त पर आधारित है किन्तु ऐसा कोई साक्ष्य नहीं है, जिससे कि मामला इस सिद्धान्त के प्रवर्तन के अंतर्गत लाया जा सके। यह ऐसा मामला नहीं है जहां कि एक ही संव्यवहार के प्रति मांगे उद्‌भूत होती हों अथवा मांगें अपनी प्रकृति और परिस्थितियों में इस प्रकार संबद्ध हो कि वे एक संव्यवहार की भाग समझी जा सकें। न ही खण्ड 71 से कोई सहायता प्राप्त की जा सकती है।

उस उपबंध के फायदे का दावा केवल तभी किया जा सकता है, जबकि प्रतिधारित की जाने के लिए ईप्सित रकम अभिनिश्चित रकम है, एक ऐसी रकम जो कि अन्य संविदा के अधीन संदेय रकम में आसानी से समायोजित की जा सकती है। यहां पर जिस रकम के समायोजन की ईप्सा की गई है, वह अभी ठेकेदार के विरुद्ध एक दायित्व के रूप में अवधारित की जानी है। परिणामस्वरूप, 12,69,532 रुपए के समायोजन के बारे में उच्च न्यायालय का विनिश्चय कायम नहीं रखा जा सकता।

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