Constitution में इमरजेंसी लगाये जाने पर होने वाले बदलाव

Update: 2024-12-30 06:47 GMT

मूल विचार का प्रश्न यह है कि जब कभी आर्टिकल 352 के अंतर्गत आपात उद्घोषणा की जाती है तब कांस्टीट्यूशन में क्या परिवर्तन आते हैं और उद्घोषणा के क्या प्रभाव होते हैं? कुछ निम्नलिखित प्रभाव आपात उद्घोषणा के होते हैं-

संघ द्वारा राज्यों को निर्देश देना।

आपात उद्घोषणा का सर्वप्रथम प्रभाव यही होता है कि संघ की कार्यपालिका शक्ति राज्यों को इस बात का निर्देश देने तक बढ़ जाती है कि वे अपनी कार्यपालिका शक्ति किस तरह से प्रयोग करें। आपात की स्थिति में राज्य की कार्यपालिका शक्ति केंद्र कार्यपालिका शक्ति के अधीन काम करती है। कांस्टीट्यूशन के आर्टिकल 353 में एमेंडमेंट आर्टिकल 352 में एमेंडमेंट किए जाने के कारण आवश्यक हुआ है। आर्टिकल 353 में एक नया परंतुक जोड़कर संसद को यह शक्ति दी गई कि वह किसी ऐसे राज्य पर भी आपात संबंधी कानून लागू कर सकती है जो राज्य से अलग है जिसमें आपात उद्घोषणा प्रवर्तन में है। यदि उस भाग की गतिविधियों से भारत के किसी भाग की सुरक्षा को कोई खतरा हो। आपात उद्घोषणा के लागू होते ही भारत का कांस्टीट्यूशन संघात्मक से एकात्मक कांस्टीट्यूशन हो जाता है।

संघ की राज्य सूची के विषयों पर विधि बनाने की शक्ति-

आपात की घोषणा के प्रवर्तन के समय संसद को राज्य सूची के किसी भी विषय पर कानून बनाने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। उसे ऐसे किसी विषय पर कानून बनाने की शक्ति होती है जो संघ उनके पदाधिकारियों को कर्तव्य सौंपी हो भले ही वो विषय संघ सूची में उल्लिखित न हो।

इस प्रकार आपातकालीन स्थिति में केंद्र और राज्यों के बीच विधायी शक्ति का विभाजन नाम मात्र का हो जाता है। इस स्थिति में भी राज्य विधानमंडल को कानून बनाने की शक्ति प्राप्त होती है। शक्ति पूरी तरीके से समाप्त नहीं होती बल्कि केवल निलंबित हो जाती है। राज्य विधान मंडल राज्य सूची के विषय पर कानून बना सकते हैं पर वह संसद द्वारा पारित विधियों के अधीन होते हैं।

संघ और राज्यों के बीच संबंधों में बदलाव-

आपात उद्घोषणा प्रवर्तन की अवधि में राष्ट्रपति आदेश द्वारा जैसा कि वह उचित समझे आर्टिकल 268 से लेकर 279 तक में उपस्थित केंद्र और राज्यों के बीच संबंधों में परिवर्तन कर सकता है। आपातकाल में बहुत सारे ऐसे संबंध जिनमें राज्यों को वित्त सहायता प्राप्त होती है उन्हें भी राष्ट्रपति द्वारा अपने ढंग से परिवर्तित किया जा सकता है पर ऐसे प्रत्येक आदेश को शीघ्र संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा।

लोकसभा की अवधि में वृद्धि-

आपात घोषणा प्रवर्तन में है तब संसद विधि द्वारा लोकसभा की अवधि को 1 वर्ष के लिए बढ़ा सकती है यह अवधि एक बार में 1 वर्ष से अधिक नहीं बढ़ाई जा सकती है। आपात उद्घोषणा के समाप्त हो जाने के बाद 6 महीने बाद स्वयं ही समाप्त हो जाती है।

मूल अधिकारों के अंतर्गत आर्टिकल 19 में प्रदत्त मूल अधिकारों का निलंबन-

आपात उद्घोषणा का सबसे खतरनाक पहलू यह है कि जब आर्टिकल 358 के अनुसार आपात की उद्घोषणा प्रवर्तन में है तब आर्टिकल 19 की किसी बात से राज्य कोई ऐसी विधि बनाने की अथवा कार्यपालिका को कोई ऐसी कार्यवाही करने की शक्ति आर्टिकल 13 के अधीन नहीं होगी। आर्टिकल 13 राज्य की विधायिका शक्ति पर अंकुश लगाता है जिसके अनुसार राज्य कोई भी ऐसा कानून नहीं निर्मित कर सकता जो मूल अधिकारों को कम करता हो किंतु आपात घोषणा के प्रवर्तन काल में राज्य के ऊपर यह प्रतिबंध समाप्त हो जाता है।

राज्य द्वारा बनाए गए कानूनों को इस आधार पर न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती कि वह मूल अधिकारों के विरुद्ध हैं या उनका उल्लंघन करते हैं। इस स्थिति में आर्टिकल 19 में प्रदत्त अधिकारों का केवल निलंबन ही होता है अधिकार पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाते हैं और आपात उद्घोषणा के प्रवर्तन में न रहने पर व्यवस्था पुनर्जीवित होते हैं किंतु आपात के दौरान किए गए कृत्यों के विरुद्ध आपात स्थिति की समाप्ति के बाद भी कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती। कांस्टीट्यूशन के 32वें एमेंडमेंट अधिनियम 1976 द्वारा आर्टिकल 358 में एक नया परंतुक जोड़ा गया है।

आर्टिकल 352(1) में किए गए एमेंडमेंट के कारण आवश्यक हुआ है इसके अनुसार यदि भारत के किसी एक भाग में आपातकालीन स्थिति लागू है इसे समय बनाए गए कानून अन्य भागों में भी लागू होंगे यदि उन भागों में उत्पन्न होने वाली गतिविधियों में भारत के किसी भाग की सुरक्षा को खतरा है।

एम ए पाठक बनाम भारत संघ के मामले में आर्टिकल 358 में प्रयुक्त पदावली वे बातें जो की गई या जाने में छोड़ दी गई है के प्रभाव के विषय में सुप्रीम कोर्ट को विचार करने का अवसर मिला। इस मामले में तथ्य यह था कि जीवन बीमा निगम के कर्मचारियों के बीच 1961 में एक समझौता हुआ जिसके अनुसार जीवन बीमा निगम उनको बोनस देने के लिए राजी हो गया किंतु 1976 में आपातकाल के दौरान संसद एलआईसी मॉडिफिकेशन सेटेलमेंट एक्ट 1976 पास करके 1971 में किए गए समझौतों को रद्द कर दिया गया और यह उपबंध किया गया कि कर्मचारीगण आपात के दौरान बोनस की मांग नहीं कर सकते हैं।

कर्मचारियों ने उपर्युक्त अधिनियम की मान्यता को सुप्रीम कोर्ट ने निर्धारित किया कि उद्घोषणा का प्रभाव यह होता है कि आर्टिकल 14 और 19 द्वारा अधिकार नहीं होते बल्कि उनका प्रवर्तन कराने का अधिकार निर्मित हो जाता है। उपयुक्त का अर्थ लगाया जाना चाहिए और आपात उद्घोषणा की समाप्ति पर उपर्युक्त समझौता पुनर्जीवित हो जाता है उसके लिए आपातकाल की अवधि के लिए भी दावा किया जा सकता है। संक्षेप में विधिक दावे आपात घोषणा मात्र से ही रद्द नहीं हो जाते हैं उनको केवल आर्टिकल 358 और 359 के प्रवर्तन काल में विधि बनाकर ही निलंबित किया जा सकता है।

आर्टिकल 359 के अंतर्गत मूल अधिकारों के प्रवर्तन का निलंबन-

आर्टिकल 359 के अनुसार जहां कि आपात उद्घोषणा प्रवर्तन में है वहाँ राष्ट्रपति आदेश द्वारा यह घोषित कर सकता है कि भाग-3 द्वारा दिए गए अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए जैसे कि उक्त आदेश में वर्णित हो किसी न्यायालय के प्रवर्तन का अधिकार तथा इस प्रकार वर्णित अधिकारों को प्रवृत्त कराने के लिए किसी न्यायालय में लिखित कार्यवाही या उस अवधि के लिए जैसा कि आदेश में उल्लेखित की जाए निलंबित रहेंगे। उपरोक्त प्रकार का समस्त आदेश समस्त भारत या उसके किसी भाग पर लागू रहेगा।

इस आर्टिकल के अंतर्गत आर्टिकल 20 और 21 के अतिरिक्त अन्य अधिकारों को निलंबित किया जा सकता है। आर्टिकल 19 आपात की उद्घोषणा पर स्वतः निलंबित हो जाता है जबकि आर्टिकल 359 का प्रयोग राष्ट्रपति के आदेश द्वारा किया जाता है। आर्टिकल 359 के अंतर्गत राष्ट्रपति भाग-3 द्वारा प्रदत किसी भी मूल अधिकार को न्यायालयों द्वारा प्रवर्तित कराने के अधिकार का निलंबन कर सकता है यह आवश्यक नहीं है कि सभी अधिकार निलंबित किए जाए।

भारत के कांस्टीट्यूशन आर्टिकल 352 का प्रयोग सबसे पहले भारत पर चीन द्वारा आक्रमण के मौके पर किया गया था। सितंबर 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण किया। 26 अक्टूबर को आर्टिकल 352 के अंतर्गत राष्ट्रपति ने यह घोषणा की कि गंभीर आपात विधमान है जिसमें बाहरी आक्रमण से भारत की सुरक्षा संकट में है। यह आपात स्थिति 10 जनवरी 1968 तक चलती रही।

सन 1971 में जब पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया तो आपात स्थिति की घोषणा की गई थी। यह आपात स्थिति मार्च 1977 तक प्रवर्तन में रही। 3 नवंबर 1962 को राष्ट्रपति ने आर्टिकल 359(1) के अंतर्गत एक आदेश जारी किया जो इस प्रकार आर्टिकल 359 ए के अंतर्गत शक्ति के प्रयोग में राष्ट्रपति यह घोषित करता है कि किसी व्यक्ति के आर्टिकल 14, 21 और 22 में दिए गए अधिकारों को प्रवृति कराने के लिए जब तक आर्टिकल 352 एक के अंतर्गत जारी की गई आपात उद्घोषणा प्रवर्तन में है किसी न्यायालय के प्रवर्तन का अधिकार निलंबित रहेगा।

माखन सिंह बनाम पंजाब राज्य एआईआर 1964 सुप्रीम कोर्ट 382 के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय लिया कि राष्ट्रपति के आदेश के परिणामस्वरुप पिटीशनर के किसी भी कानून के अधीन न्यायालय में जाने के अधिकार का निलंबन हो जाता है। केवल आर्टिकल 32 के अधीन सुप्रीम कोर्ट जाने के अधिकार के ऊपर ही नहीं है वरन आर्टिकल 226 के अधीन हाईकोर्ट जाने के विरुद्ध भी है। आर्टिकल में प्रयुक्त शब्दावली से बिल्कुल स्पष्ट है न्यायालय में नहीं जा सकता तो परोक्ष रूप से किसी अन्य विधि के अधीन भी उन्हीं न्यायालयों में नहीं जा सकता है।

इस मामले में न्यायालय ने कहा कि जैसे ही आर्टिकल 352 के अंतर्गत आपात उद्घोषणा की जाती है आर्टिकल 19 में प्रदत्त अधिकार निलंबित हो जाते हैं। आपात उद्घोषणा के प्रवर्तन में न रहने पर आर्टिकल 19 पुनर्जीवित हो जाता है किंतु आपातकाल में किए गए कृत्यों को आपात के पश्चात चुनौती नहीं दी जा सकती है। इसके विपरीत आर्टिकल 359 के अंतर्गत मूल अधिकार निलंबित नहीं होते हैं, वरन न्यायालयों द्वारा केवल उनके प्रवर्तन कराने का अधिकार निलंबित हो जाता है।

आर्टिकल 19 में जब प्रदत अधिकार समस्त भारत में निलंबित हो जाते हैं जबकि आर्टिकल 359(1) में जारी किए गए आदेश का विस्तार पूरे भारत या उसके किसी भाग में हो सकता है।

आर्टिकल 19 जब तक आपात उद्घोषणा प्रवर्तन में है तब तक निलंबित रहता है जबकि आर्टिकल 359 एक के अंतर्गत अधिकारों का निलंबन पूरे समय से छोटी अवधि के लिए हो सकता है।

आर्टिकल 358 के अंतर्गत आपातकाल में किए गए कृत्यों को आपात की समाप्ति के पश्चात चुनौती नहीं दी जा सकती क्योंकि उनको आर्टिकल 360 के अंतर्गत ऐसे कृत्यों को आदेश की समाप्ति पर चुनौती दी जा सकती है यदि उनके द्वारा उस काल के नागरिकों के किसी अधिकार का अतिक्रमण किया गया है कि उस काल में भी अधिकार जीवित रहते हैं।

प्रभाकर पांडुरंग बनाम महाराष्ट्र राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अभिनिर्धारित किया है कि यदि किसी नागरिक को भारत प्रतिरक्षा अधिनियम या उसके अधीन निर्मित किसी नियम के विरुद्ध उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया गया हो तो आर्टिकल 360 के अंतर्गत न्यायालय से प्रवर्तन करने का उसका अधिकार निलंबित नहीं किया जा सकता है।

26 जून 1975 को राष्ट्रपति ने इस आधार पर आपात स्थिति की घोषणा की कि आंतरिक अशांति से देश की सुरक्षा खतरे में है। बाहरी आक्रमण से देश की सुरक्षा के लिए संकट के आधार पर 1971 में की गई आपात स्थिति की घोषणा पहले से ही प्रवचन में थी। इन दोनों आपात घोषणाओं को वापस ले लिया गया। सन् 1971 में लागू की गई आपात उद्घोषणा को 27 मार्च 1977 में समाप्त किया गया है।

सन 1975 में लागू की गई आपात स्थिति को 21 मार्च 1977 को वापस कर लिया गया है। कांस्टीट्यूशन के 38 वें एमेंडमेंट अधिनियम 1975 द्वारा आर्टिकल 352 में एक नया खंड 4 जोड़कर स्पष्ट कर दिया गया है कि आर्टिकल 352 के खंड 1 में अलग आधार पर अलग उद्घोषणा करने की शक्ति शामिल है भले ही इसके अंतर्गत एक उद्घोषणा पहले ही की गई है वह प्रवर्तन में हो।

44वा कांस्टीट्यूशन एमेंडमेंट 1978-

इस एमेंडमेंट द्वारा आर्टिकल 359 में 2 एमेंडमेंट किए गए। आर्टिकल 359 के अधीन आर्टिकल 20 और 21 के अधिकारों के प्रवर्तन के लिए न्यायालय में जाने के अधिकार निलंबित नहीं होंगे। आर्टिकल 359 के अधीन उन विधियों को कार्यपालिका आदेशों से लागू करना होगा जिसमें इस आशय का उल्लेख होगा कि आपात उद्घोषणा से संबंधित है।

इस प्रकार 44वा एमेंडमेंट अधिनियम यह स्पष्ट करता है कि प्रथम आर्टिकल 359 के अधीन राष्ट्रपति को आर्टिकल 21 द्वारा प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार को निलंबित करने का अधिकार नहीं होगा अर्थात भविष्य में आर्टिकल 21 को निलंबित नहीं किया जा सकता है।

दूसरे आर्टिकल 359 के अधीन आपात के दौरान उन्हीं नीतियों और उनके अधीन जारी किए गए कार्यपालिका आदेशों को न्यायालय में चुनौती दिए जाने से संरक्षण प्राप्त होगा जो आपात उद्घोषणा से संबंधित है अन्य विधियों को नहीं। यह एमेंडमेंट बंदी प्रत्यक्षीकरण के मामले में हाईकोर्ट द्वारा दिए गए खतरनाक निर्णय के प्रभाव को दूर करने के लिए पारित किया गया।

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