क्या पीड़ित बिना हाईकोर्ट की अनुमति के आरोपी के बरी होने के खिलाफ अपील कर सकते हैं?

Update: 2024-11-15 16:00 GMT
High Courts

सत्यपाल सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रश्न का उत्तर दिया कि क्या पीड़ित (Victim) बिना हाईकोर्ट की अनुमति (Leave) के आरोपी के बरी होने के खिलाफ अपील कर सकते हैं।

यह मामला आपराधिक प्रक्रिया संहिता (Cr.P.C.) की धारा 372 के प्रावधान और धारा 378(3) के प्रक्रियात्मक नियमों (Procedural Safeguards) के आपसी संबंध पर प्रकाश डालता है। यह फैसला बताता है कि पीड़ितों के अधिकारों और न्यायिक प्रक्रियाओं के बीच संतुलन कैसे बनाया जा सकता है।

धारा 372 Cr.P.C. के तहत पीड़ितों के अधिकार (Victim's Rights under Section 372 of Cr.P.C.)

धारा 372 में 2009 में किए गए संशोधन के तहत पीड़ितों को यह अधिकार दिया गया है कि वे आरोपी के बरी होने, कम सजा दिए जाने, या अपर्याप्त मुआवजा (Inadequate Compensation) के आदेश के खिलाफ अपील कर सकते हैं। "पीड़ित" (Victim) की परिभाषा Cr.P.C. की धारा 2(wa) में दी गई है, जिसमें मृतक पीड़ित के कानूनी उत्तराधिकारी (Legal Heirs) को भी शामिल किया गया है।

सत्यपाल सिंह मामले में अपीलकर्ता, मृतक की पिता होने के नाते, इस अधिकार का उपयोग करना चाहते थे। हालांकि, हाईकोर्ट ने उनकी अपील यह कहते हुए खारिज कर दी कि उन्होंने धारा 378(3) के तहत अनुमति प्राप्त नहीं की थी।

धारा 378(3) के प्रक्रियात्मक नियम (Procedural Requirements under Section 378(3))

Cr.P.C. की धारा 378(3) के अनुसार, हाईकोर्ट में बरी होने के आदेश के खिलाफ अपील करने से पहले अनुमति प्राप्त करना अनिवार्य है। यह नियम न्यायिक व्यवस्था (Judicial System) पर अनावश्यक दबाव डालने वाली अपीलों को रोकने के लिए बनाया गया है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 372 द्वारा पीड़ितों को दिया गया अधिकार और धारा 378(3) का प्रक्रियात्मक नियम एक साथ काम करते हैं। भले ही धारा 372 पीड़ितों को अपील का अधिकार देती है, लेकिन इस अधिकार का उपयोग करने के लिए हाईकोर्ट से अनुमति लेना आवश्यक है।

प्रावधानों की व्याख्या: कानूनी सिद्धांत (Interpretation of Provisos: Legal Principles)

सुप्रीम कोर्ट ने प्रावधानों की व्याख्या के लिए पहले से स्थापित नियमों का उल्लेख किया। एक प्रावधान (Proviso) मुख्य धारा का अपवाद (Exception) या योग्यता (Qualification) बनाता है, लेकिन स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर सकता।

कोर्ट ने द्वारका प्रसाद बनाम द्वारका दास सराफ और एस. सुंदरम पिल्लई बनाम वी.आर. पट्टाभिरमन मामलों का हवाला दिया, जहां कहा गया था कि किसी भी प्रावधान को उसके मुख्य प्रावधान के साथ पढ़ा जाना चाहिए।

इन्हीं सिद्धांतों को लागू करते हुए, कोर्ट ने यह कहा कि धारा 372 के प्रावधान को धारा 378(3) के साथ पढ़ा जाना चाहिए। यह सुनिश्चित करता है कि पीड़ितों को अपील करने का अधिकार मिले, लेकिन साथ ही अपीलों का न्यायिक संतुलन (Judicial Balance) बना रहे।

साक्ष्यों के पुनर्मूल्यांकन का महत्व (Importance of Re-Appreciation of Evidence)

सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट की आलोचना की कि उसने अपील को खारिज करते समय साक्ष्यों (Evidence) का पुनर्मूल्यांकन नहीं किया। अपीलीय अदालत (Appellate Court) का कर्तव्य है कि वह साक्ष्यों और कानूनी तर्कों को सावधानीपूर्वक जांचे, विशेष रूप से उन मामलों में जिनमें गंभीर आरोप, जैसे कि दहेज हत्या (Dowry Death), शामिल हैं।

कोर्ट ने कहा कि हाईकोर्ट का संक्षिप्त और यांत्रिक (Mechanical) आदेश न्यायिक प्रक्रिया के उद्देश्य को कमजोर करता है। अपीलीय अदालत को साक्ष्यों की पुनः जांच करते हुए स्पष्ट और तर्कपूर्ण निर्णय देना चाहिए।

विधायी मंशा और पीड़ित-केंद्रित दृष्टिकोण (Legislative Intent and Victim-Centric Approach)

यह फैसला 2009 में किए गए संशोधनों के पीछे की विधायी मंशा (Legislative Intent) को समझाता है। यह संशोधन 154वें विधि आयोग (Law Commission) की रिपोर्ट पर आधारित था, जिसने पीड़ित-केंद्रित दृष्टिकोण (Victim-Centric Approach) की आवश्यकता पर जोर दिया था।

संसद ने पीड़ितों को एक अधिकार देने के लिए धारा 372 में संशोधन किया, लेकिन यह सुनिश्चित किया कि प्रक्रियात्मक नियम, जैसे धारा 378(3), न्यायिक प्रक्रिया की अखंडता बनाए रखें। यह दृष्टिकोण अधिकारों और प्रक्रियात्मक नियमों के बीच संतुलन बनाता है।

सुप्रीम कोर्ट का सत्यपाल सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य मामला इस बात को दोहराता है कि substantive और procedural कानून (Substantive and Procedural Law) को संतुलित किया जाना चाहिए।

धारा 372 के तहत पीड़ितों को अपील का अधिकार दिया गया है, लेकिन इस अधिकार का उपयोग करने के लिए धारा 378(3) के तहत अनुमति लेना अनिवार्य है।

यह फैसला यह सुनिश्चित करता है कि अपीलीय अदालतें (Appellate Courts) अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए पीड़ितों को न्याय दें और अनावश्यक अपीलों से बचाव करें। यह मामला भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली (Criminal Justice System) में पीड़ित-केंद्रित न्यायशास्त्र (Victim-Centric Jurisprudence) की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

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