क्या अदालतें धारा 138 NI Act के मामलों का शीघ्र निपटारा सुनिश्चित कर सकती हैं?

Update: 2024-11-25 12:47 GMT

धारा 138 एन.आई. एक्ट

धारा 138 एन.आई. एक्ट, 1881, उन मामलों से संबंधित है जहां चेक dishonour (अस्वीकृत) हो जाता है, चाहे वह धन की कमी हो या अन्य कारणों से। यह प्रावधान व्यापारिक लेन-देन की विश्वसनीयता बनाए रखने के उद्देश्य से बनाया गया है और इसमें सजा का प्रावधान है, जिसमें दो साल तक की कैद या चेक की राशि का दोगुना जुर्माना लगाया जा सकता है।

हालांकि, वर्षों से इन मामलों की संख्या इतनी अधिक हो गई है कि अदालतें इनके शीघ्र निपटारे में असमर्थ हो रही हैं। सुप्रीम कोर्ट ने suo motu (स्वतः संज्ञान) मामले In Re: Expeditious Trial of Section 138 NI Act Cases में इन समस्याओं पर विचार किया और इन मामलों को शीघ्र निपटाने के उपाय सुझाए।

सारांश निपटान की कानूनी व्यवस्था (Legal Framework for Summary Disposal)

धारा 143 एन.आई. एक्ट यह सुनिश्चित करती है कि धारा 138 के मामलों की सुनवाई सारांश प्रक्रिया (Summary Procedure) में हो। यह प्रक्रिया दंड प्रक्रिया संहिता (Criminal Procedure Code - CrPC) की धारा 262 से 265 तक के प्रावधानों को अपनाती है।

सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि सारांश सुनवाई को summons trial (सम्मन प्रक्रिया) में बदलने का निर्णय केवल तभी लिया जाए जब ठोस कारण दर्ज किए जाएं। इसका उद्देश्य इन मामलों की तेज सुनवाई सुनिश्चित करना है।

धारा 202 CrPC के तहत अन्वेषण का प्रावधान (Mandatory Inquiry Under Section 202 CrPC)

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यदि आरोपी अदालत की क्षेत्रीय अधिकारिता (Jurisdiction) के बाहर रहता है, तो धारा 202 CrPC के तहत अन्वेषण (Inquiry) करना अनिवार्य है।

इस प्रावधान को एन.आई. एक्ट की धारा 145 के साथ समायोजित किया गया, जिससे शिकायतकर्ता (Complainant) अपने साक्ष्य affidavit (शपथ-पत्र) के माध्यम से प्रस्तुत कर सके। इससे प्रक्रियात्मक विलंब (Procedural Delay) को कम करने में मदद मिलेगी।

मुकदमों का समेकन (Consolidation of Trials)

CrPC की धारा 219 और 220 आरोपों के संयोजन (Joinder of Charges) और सुनवाई (Trial) को संबोधित करती हैं। धारा 219 के अनुसार, समान प्रकार के अधिकतम तीन अपराध, जो 12 महीने के भीतर किए गए हों, को एक साथ सुना जा सकता है। वहीं, धारा 220 उन अपराधों की एकसाथ सुनवाई की अनुमति देती है जो एक ही लेन-देन (Transaction) से जुड़े हों।

सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया कि धारा 219 में संशोधन कर एक ही उद्देश्य के लिए जारी किए गए चेक से जुड़े सभी मामलों की एक साथ सुनवाई की अनुमति दी जानी चाहिए।

इसके अलावा, अदालत ने निर्देश दिया कि एक लेन-देन से जुड़े मामलों में यदि एक शिकायत पर सम्मन की सेवा (Service of Summons) हो चुकी है, तो उसे अन्य संबंधित शिकायतों के लिए भी मान्य माना जाए।

मध्यस्थता और समाधान की भूमिका (Role of Mediation and Settlement)

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि धारा 138 के मामलों के लंबित अपीलों (Pending Appeals) और पुनरीक्षण याचिकाओं (Revision Petitions) को मध्यस्थता (Mediation) के माध्यम से हल किया जा सकता है। इस पहल से न्यायिक समय और संसाधन दोनों बचाए जा सकते हैं।

सम्मन मामलों में मजिस्ट्रेट की शक्तियां (Magistrate's Powers in Summons Cases)

सुप्रीम कोर्ट ने मजिस्ट्रेट के सम्मन को वापस लेने (Recall of Summons) की शक्तियों की समीक्षा की। यह पुनः पुष्टि की गई कि वर्तमान कानूनी ढांचे में ऐसी कोई शक्ति उपलब्ध नहीं है, जब तक कि कोई विशेष प्रावधान (Statutory Provision) न हो।

हालांकि, अदालत ने सिफारिश की कि धारा 138 के मामलों में मजिस्ट्रेट को सीमित अधिकार दिए जाएं, ताकि वे सम्मन जारी करने के निर्णय पर पुनर्विचार कर सकें।

महत्वपूर्ण निर्णयों का संदर्भ (Reference to Important Judgments)

इस निर्णय में कई प्रमुख मामलों का उल्लेख किया गया, जिनमें:

1. Vijay Dhanuka v. Najima Mamtaj: इसमें धारा 202 CrPC के तहत अन्वेषण की अनिवार्यता को स्पष्ट किया गया।

2. Meters and Instruments v. Kanchan Mehta: इसमें न्यायिक दक्षता (Judicial Efficiency) और निष्पक्षता (Fairness) के संतुलन पर विचार किया गया।

3. Balbir v. State of Haryana: इसमें धारा 220 के तहत अपराधों के संयोजन की व्याख्या की गई।

सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों का उद्देश्य धारा 138 के मामलों की सुनवाई को तेज करना है। इसमें सारांश प्रक्रिया को प्राथमिकता देना, सम्मन सेवा में सुधार और मुकदमों के समेकन के सुझाव शामिल हैं। इसके साथ ही, मध्यस्थता के माध्यम से विवादों को सुलझाने और विधायी संशोधनों की सिफारिश की गई है। यह निर्णय न्यायिक दक्षता को बढ़ाने और व्यापारिक लेन-देन की विश्वसनीयता को बनाए रखने की प्रतिबद्धता को दोहराता है।

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