उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि साक्ष्य के स्तर पर याचिकाओं में संशोधन की अनुमति केवल तभी दी जा सकती है, जब न्यायालय इस बात से संतुष्ट हो कि सम्यक तत्परता के बावजूद पक्षकार ट्रायल शुरू होने से पहले संशोधन का अनुरोध नहीं कर सका।
बंटवारा के एक मुकदमे में, गवाही पहले ही शुरू हो गयी थी और उस स्तर पर, वादी ने याचिका में संशोधन की मांग को लेकर अर्जी दी थी। बचाव पक्ष ने सुप्रीम कोर्ट में यह कहते हुए प्रतिवाद किया था कि नागरिक प्रक्रिया संहिता (सीपीसी), 1908 के नियम-16 आदेश-6 के मद्देनजर याचिका में संशोधन पर तब तक विचार नहीं किया जा सकता, जब तक न्यायालय इस तथ्य पर नहीं पहुंचा जाता कि सम्यक तत्परता के बावजूद पक्षकार ट्रायल शुरू होने से पहले याचिका में संशोधन नहीं कर सका था।
नागरिक प्रक्रिया संहिता के आदेश-6, नियम 16 में यह प्रावधान है कि न्यायालय सुनवाई के किसी भी चरण में किसी भी पार्टी को उचित शर्तों पर अपनी दलीलें संशोधित करने या बदलने की अनुमति दे सकता है, बशर्ते ये संशोधन दोनों पक्षों के बीच जारी विवाद के वास्तविक प्रश्नों के निर्धारण के लिए आवश्यक हो।
इस नियम के प्रावधान निम्न प्रकार से हैं :-
बशर्ते, मुकदमे की सुनवाई शुरू होने के बाद संशोधन की कोई भी अर्जी मंजूरी नहीं की जायेगी, जब तक कि अदालत इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचती कि सम्यक तत्परता के बावजूद, पार्टी ट्रायल शुरू होने से पहले मामला नहीं उठा सकी थी।
सुप्रीम कोर्ट ने विद्याबाई एवं अन्य बनाम पद्मालता एवं अन्य, (2009)2एससीसी 409, मामले में इस प्रावधान की व्याख्या करते हुए कहा है:
"यह तय करना कोर्ट का प्राथमिक कर्तव्य है कि क्या संबंधित पक्षों के बीच जारी वास्तविक विवाद के निर्धारण के लिए इस तरह का संशोधन आवश्यक है? केवल इस तरह की शर्त पूरी होने पर ही संशोधन की अनुमति दी जाती है। हालांकि सीपीसी के आदेश 6 के नियम 17 में संलग्न प्रावधान कोर्ट की इस शक्ति को प्रतिबंधित करता है। यह प्रावधान कोर्ट के अधिकार क्षेत्र के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाता है। इस तरह के मामले में कोर्ट का अधिकार क्षेत्र सीमित है। इस प्रकार जब तक क्षेत्राधिकार की पुष्टि नहीं हो जाती तब तक न्यायालय को याचिका में संशोधन की अनुमति का अधिकार नहीं होगा।"
न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एम आर शाह की पीठ ने बचाव पक्ष की दलील से सहमति जताते हुए कहा कि आदेश 6 नियम 16 के प्रावधान के तहत विचार करते हुए कोर्ट को निष्कर्ष दिये बिना याचिका में संशोधन की अनुमति नहीं देनी चाहिए।
"मौजूदा मामले में सिविल जज ने इस बारे में कोई निष्कर्ष नहीं दिया कि कोर्ट इस बात को लेकर संतुष्ट है कि सम्यक तत्परता के बावजूद पार्टी ट्रायल शुरू होने से पहले संशोधन का मामला नहीं उठा सकी थी। कोर्ट की ओर से इस बारे में कोई निष्कर्ष नहीं दिये जाने के बाद कि सम्यक तत्परता के बावजूद पार्टी ने ट्रायल शुरू होने से पहले संशोधन का अनुरोध नहीं किया था, ट्रायल जज का आदेश 2 कायम रखने योग्य नहीं है।"
इस प्रकार, शीर्ष अदालत ने संशोधन अर्जी खारिज कर दी।
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