समझिये कैसे IPC की धारा 77 एवं 78 के अंतर्गत न्यायिकतः एवं न्यायिक आदेश एवं निर्णय के अनुसरण में किये गए कार्य को साधारण अपवाद का लाभ मिलता हैं? ['साधारण अपवाद श्रृंखला' 5]
पिछले लेख में हमने विस्तार से समझा कि आखिर क्षम्य (Excusable) कृत्य के अंतर्गत किन परिस्थितियों में मत्तता (Intoxication) के दौरान किये गए कृत्य (धारा 85-86) किसी भी अपराध के लिए कब अपवाद बन सकते हैं। जहाँ धारा 85, मत्तता के दौरान किये गए कार्य के लिए, अपराध से पूर्ण बचाव प्रदान करती है, वहीँ धारा 86 के अंतर्गत स्वैच्छिक मत्तता की स्थिति कारित करने में व्यक्ति द्वारा किये गए अपराध के लिए ज्ञान के पक्ष में उपधारणा (presumption) का निर्माण किया जाता है।
इस श्रृंखला के भाग 1 में हमने भारतीय दंड संहिता, 1860 के अंतर्गत 'साधारण अपवाद' (General Exceptions) क्या हैं, यह समझा और यह जाना कि कैसे यह अध्याय ऐसे कुछ अपवाद प्रदान करता है, जहाँ किसी व्यक्ति का आपराधिक दायित्व खत्म हो जाता है। इसी भाग में हम भारतीय दंड संहिता की धारा 76 और 79 के अंतर्गत 'तथ्य की भूल' को भी समझ चुके हैं।
हम यह जानते हैं क्षम्य (Excusable) कृत्य वह है, जिसमें हालांकि एक व्यक्ति द्वारा कुछ नुकसान पहुंचाया/अपराध किया गया था, फिर भी उस व्यक्ति या उस श्रेणी के व्यक्तियों को उस कृत्य के लिए क्षमा किया जाना चाहिए क्योंकि उसे उस कृत्य के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता है। इसके अलावा, तर्गसंगत कृत्य (Justifiable act) वह हैं, जो हैं तो अपराध ही लेकिन कुछ विशेष परिस्थितियों के अंतर्गत उन्हें अपवाद माना जाता है और इसलिए उनके लिए एक व्यक्ति का कोई आपराधिक दायित्व नहीं बनता है।
जहाँ हम क्षम्य कृत्यों के अंतर्गत आने वाली धाराओं को इस श्रृंखला के माध्यम से पूर्ण रूप से समझ चुके हैं, वहीँ आज हम 'तर्कसंगत कृत्य' के अंतर्गत न्यायिकतः कार्य करते हुए न्यायाधीश का कार्य (धारा 77) एवं न्यायालय के निर्णय का आदेश के अनुसरण में किया गया कार्य (धारा 78) को समझेंगे और यह जानेंगे कि दंड संहिता में इन्हें किस प्रकार अपवाद माना गया है।
न्यायिकतः कार्य करते हुए न्यायाधीश का कार्य (धारा 77)
जैसा कि हम जानते हैं कि कानून उन चीजों के लिए एक व्यक्ति को दंडित करने का इरादा नहीं करता है, जिस चीज़ पर वह व्यक्ति संभवतः कोई नियंत्रण नहीं रख सकता था या कोई कार्य करना उस व्यक्ति की जिम्मेदारी थी। 'Actus non facit reum nisi mens sit rea' (एक कृत्य आपराधिक मनोवृत्ति के बिना किसी व्यक्ति को दोषी नहीं बनाता है) का सिद्धांत, केवल एक अनुस्मारक के रूप में काम करता है, जो यह बताता है कि आपराधिक कानून किसी व्यक्ति को दंडित करने के लिए उस व्यक्ति में किसी प्रकार के दोषी मानसिक तत्व (guilty mental element/guilty mind) को ढूंढता है। और यह जाहिर है कि दोषी मानसिक तत्व की अनुपस्थिति में व्यक्ति को किसी प्रकार की कोई सजा दी नहीं जा सकती है।
भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 77 कहती है, "कोई बात अपराध नहीं है, जो न्यायिकतः कार्य करते हुए न्यायाधीश द्वारा ऐसी किसी शक्ति के प्रयोग में की जाती है, जो या जिसके बारे में उसे सद्भावपूर्वक विश्वास है कि वह उसे विधि द्वारा दी गयी है" - Act of Judge when acting judicially—Nothing is an offence which is done by a Judge when acting judicially in the exercise of any power which is, or which in good faith he believes to be, given to him by law.
इसी क्रम में हम भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 78 को भी समझते हैं। यह धारा यह कहती है कि, "कोई बात, जो न्यायालय के निर्णय या आदेश के अनुसरण में की जाए या उसके द्वारा अधिदिष्ट हो, यदि वह उस निर्णय या आदेश के प्रवृत रहते की जाये, अपराध नहीं है, चाहे उस न्यायालय को ऐसा निर्णय या आदेश देने की अधिकारिता न रही हो, परन्तु यह तब जब कि कार्य करने वाला व्यक्ति सद्भावपूर्वक यह विश्वास रखता हो कि उस न्यायलय को वैसी अधिकारिता थी।" - Act done pursuant to the judgment or order of Court—Nothing which is done in pursuance of, or which is warranted by the judgment or order of, a Court of Justice; if done whilst such judgment or order remains in force, is an offence, notwithstanding the Court may have had no jurisdiction to pass such judgment or order, provided the person doing the act in good faith believes that the Court had such jurisdiction.
किसी भी बड़ी जिम्मेदारी को दिए जाने के साथ उस जिम्मेदारी को बेहतर ढंग से निभाने हेतु पूर्ण स्वतंत्रता भी दी जानी चाहिए, इसी बात को ध्यान में रखते हुए इन दोनों धाराओं को दंड संहिता में 'साधारण अपवाद' के अंतर्गत जगह दी गयी। एक न्यायाधीश एवं उसका स्टाफ भयमुक्त वातावरण में कार्य कर सके, यह सुनिश्चित करती हुई ये दोनों धाराएं न्यायिक अधिकारीयों द्वारा दिए गए निर्णयों को सुरक्षा प्रदान करती हैं। इसके अंतर्गत, आप एक न्यायाधीश या उसके स्टाफ के विरूद्ध कोई मामला अदालत में नहीं ला सकते, वो भी सिर्फ इसलिए कि उसने उस निर्णय में पक्षकारों के मध्य विवाद, अधिकार या कर्तव्य से सम्बंधित एक बाध्यकारी आदेश जारी किया है।
एक न्यायाधीश से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती है कि वह अपने फैसले या आदेश में शामिल किए गए कारणों के अलावा कोई अन्य कारण दे। एक न्यायिक अधिकारी सुरक्षा पाने का हकदार है, ऐसी सुरक्षा जिसे इन दोनों धाराओं द्वारा सुनिश्चित किया गया है, और यह सुरक्षा प्रदान करने का उद्देश्य दुर्भावनापूर्ण या भ्रष्ट न्यायाधीशों की रक्षा करना नहीं है, बल्कि जनता को उन खतरों से बचाना है, जो संबंधित न्यायिक अधिकारियों की जांच के अधीन होने पर, न्याय प्रशासन के सामने आएंगे। एक न्यायाधीश को स्वतंत्र निर्णय लेने हेतु उचित रूप से स्वतंत्रता प्रदान की जानी चाहिए।
जबकि हम इन दोनों धाराओं के उद्देश्य को समझ चुके हैं, आइये दोनों धाराओं के महत्वपूर्ण अवयवों को समझते हैं।
'न्यायाधीश' कौन है?
भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 19 कहती है, 'न्यायाधीश' शब्द न केवल हर ऐसे व्यक्ति का द्योतक है, जो पद रूप से न्यायाधीश अभिहित हो, किन्तु उस हर व्यक्ति का भी द्योतक है, जो किसी विधि कार्य में, चाहे वह सिविल हो या दाण्डिक, अंतिम निर्णय या ऐसा निर्णय,जो उसके विरुद्ध, अपील न होने पर अंतिम हो जाये या ऐसा निर्णय, जो किसी अन्य प्राधिकारी द्वारा पुष्ट किये जाने पर अंतिम हो जाए, देने के लिए विधि द्वारा सशक्त किया गया हो, अथवा, जो उस व्यक्ति-निकाय में से एक हो, जो व्यक्ति-निकाय ऐसा निर्णय देने के लिए विधि द्वारा सशक्त किया गया हो।" - The word 'Judge' denotes not only every person who is officially designated। as a Judge, but also every person-who is empowered by law to give, in any legal proceeding, civil or criminal, a definitive judgment, or a judgment which, if not appealed against would be definitive, or a judgment which, if confirmed by some other authority would be definitive, or who is one of a body of persons, which body of persons is empowered by law to give such a judgment.
इस प्रकार एक निश्चित निर्णय का सुनाया जाना, न्यायालय का द्योतक है। जब तक कि किसी व्यक्ति या निकाय द्वारा बाध्यकारी और आधिकारिक निर्णय नहीं सुनाया जा सकता है, तब तक यह नहीं कहा जा सकता है कि वह एक 'न्यायालय' का गठन करता है। दंड संहिता की धारा 19 में ऐसे बहुत से दृष्टांत दिए हैं जिससे हमे 'न्यायाधीश' कौन है इस बारे में आवश्यक जानकारी मिलती है।
एक मजिस्ट्रेट जो ट्रायल के लिए मामले को दुसरे मजिस्ट्रेट के पास भेजता है, वह न्यायाधीश नहीं है। एक मजिस्ट्रेट, न्यायाधीश या प्राधिकारी केवल तभी धारा 77 के अर्थों में 'न्यायाधीश' होगा जब उसके पास यह ताकत हो कि वह एक ठोस एवं निश्चित निर्णय सुना सके, जो अपील न होने की दशा में अंतिम हो जाये।
न्यायिक रूप से कार्य करना
इस धारा के अंतर्गत यह जरुरी नहीं है कि कार्य एक 'न्यायाधीश' द्वारा किया जाये, बल्कि जरुरी यह है कि वह 'न्यायाधीश' न्यायिक रूप से कार्य (acting judicially) कर रहा हो। आइये इसे और बेहतर ढंग से समझने के लिए कुछ अभिनिर्णित वादों को देखते हैं।
अनोवर हुसैन बनाम अजोय कुमार मुख़र्जी (AIR 1965 SC 1651) अपीलकर्ता- उक्त समय बारपेटा सब-डिवीजन के सब-डिविज़नल अधिकारी (कार्यपालक) के पद पर था और सब-डिविज़नल मजिस्ट्रेट का कार्यालय भी उसमे निहित था। प्रतिवादी अजॉय कुमार मुखर्जी के पास बारपेटा डिवीजन के भीतर एक व्यापक कृषि संपदा थी। 17 मार्च, 1950 को लगभग 10:30 बजे, प्रतिवादी अजॉय कुमार मुखर्जी को अपीलकर्ता द्वारा दिए गए अधिकार के तहत सर्किल इंस्पेक्टर द्वारा गिरफ्तार किया गया, और रात के लिए हवालात में बंद कर दिया गया था। अगली सुबह प्रतिवादी को अपीलकर्ता के समक्ष पेश किया गया जिसने उसे हिरासत में भेज दिया। 3 दिन बाद प्रतिवादी छूटा। उसने 'मिथ्या कारावास' (false imprisonment) के चलते जुर्माने का वाद दायर किया जिसमे अपीलकर्ता को वादी बनाया गया। अपीलकर्ता-मुख्य प्रतिवादी द्वारा दी गयी दलील यह थी कि प्रतिवादी (अजॉय कुमार मुखर्जी) को कार्यपालिका शक्ति के 'बोना फाइड' अभ्यास में गिरफ्तार कर लिया गया था। "विश्वसनीय जानकारी और उचित संदेह" होने के कारण, जिससे यह मालूम चलता था कि प्रतिवादी कुछ अप्रिय घटनाओं से संबंधित था, जिसके लिए स्थानीय समुदाय का वर्ग जिम्मेदार था: अपीलकर्ता-मुख्य प्रतिवादी की ओर से यह निवेदन नहीं किया गया था कि अपीलकर्ता ने सब-न्यायिक मजिस्ट्रेट के रूप में अपने न्यायिक कर्तव्यों के निर्वहन में काम किया है। उच्चतम अदालत ने कहा कि न्यायिक अधिकारी के रूप में अपीलकर्ता को कोई सुरक्षा नहीं मिल सकती है, क्योंकि उसके द्वारा दिए गए आदेश में ऐसा नहीं दिखाया गया है कि उसने मजिस्ट्रेट के रूप में अपने कार्यालय के कर्तव्यों के निर्वहन में प्रतिवादी को गिरफ्तार करवाया।
राम प्रताप शर्मा बनाम दयानंद (AIR 1977 SC 809) अपीलकर्ताओं ने राष्ट्रपति को एक पत्र लिखा, जिसकी प्रति को अन्य के साथ-साथ पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश को भी भेजी गयी। इस पत्र में एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के व्यवहार की आलोचना की गयी, जो अपनी यात्रा के दौरान भिवानी के सत्र विभाग में सरकार की नीतियों के खिलाफ टिपण्णी करते पाए गए थे और उन्होंने एक कम्युनिस्ट प्रणाली का समर्थन किया। उच्च न्यायालय ने अपीलकर्ताओं के खिलाफ नोटिस जारी किया; जिसमे अदालत की आपराधिक अवमानना का मामला बनाया गया। अपील करने वालों को अदालत द्वारा सशर्त माफी मांगने के लिए बाध्य किया गया, ताकि अदालत की अवमानना के लिए उनके ऊपर कार्रवाई न की जाये। उनकी क्षमा - याचना को स्वीकार कर लिया गया था। उच्चतम अदालत ने यह माना कि, एक न्यायाधीश से अपने कार्यालय और कार्य की प्रकृति के कारण, विवादास्पद मामलों में शामिल नहीं होने एवं राजनीतिक दलों द्वारा किए गए राजनीतिक मुद्दों या नीतियों पर टिपण्णी न करने की उम्मीद की जाती है। फिर भी, यदि कोई न्यायाधीश राजनीतिक समस्याओं या विवादों पर ध्यान देता है या टिपण्णी करता है, तो न्यायाधीश स्वयं को सार्वजनिक रूप से चर्चा के लिए उजागर करता है। अगर जनता उनके द्वारा व्यक्त किए गए विचारों की चर्चा करती है और उनकी आलोचना करती है, तो वह अपने कार्यालय के पीछे आश्रय नहीं ले सकते हैं, और उनके आलोचकों के खिलाफ अदालत की अवमानना के आधार पर अदालत की सुरक्षात्मक छतरी का उपयोग नहीं किया जा सकता है।
दया शंकर बनाम हाई कोर्ट इलाहाबाद (AIR 1987 SC 1469) याचिकाकर्ता उत्तर प्रदेश राज्य न्यायिक सेवा के सदस्य थे। उन्हें 27 जनवरी, 1979 को मुंसिफ के रूप में नियुक्त किया गया और अलीगढ़ में नियुक्त किया गया। जब वह अलीगढ़ में काम कर रहे थे, तो उन्होंने अलीगढ़ विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम के तहत LLM का अध्ययन करने के लिए उच्च न्यायालय की अनुमति मांगी। वह जुलाई 1980 में प्रथम सेमेस्टर परीक्षा के लिए उपस्थित हुए थे। उन्हें परीक्षा में अनुचित साधनों का उपयोग करते पाया गया था। रजिस्ट्रार, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय ने जिला न्यायाधीश, अलीगढ़ को यह सूचित किया कि याचिकाकर्ता अपनी उत्तर पुस्तिका के साथ पांडुलिपि से नकल करते हुए पाए गए थे। अदालत ने उन्हें दोषी पाते हुए यह कहा कि, याचिकाकर्ता का आचरण निस्संदेह न्यायिक अधिकारी के योग्य नहीं है। न्यायिक अधिकारियों के लिए 2 मानक नहीं हो सकते, एक न्यायालय में और दूसरा न्यायालय के बाहर। उनके पास केवल एक मानक, निष्ठा, ईमानदारी और सत्यनिष्ठा होनी चाहिए। वे जिस कार्यालय में रहते हैं, उस कार्यालय के मूल्यों के विपरीत काम नहीं कर सकते।
"जिसके बारे में उसे सद्भावपूर्वक विश्वास है कि वह उसे विधि द्वारा दी गयी है"
धारा 77 के अंतर्गत जैसा कि हम समझ चुके हैं, न केवल न्यायाधीश द्वारा ऐसी किसी शक्ति के प्रयोग में किये गए कार्य को अपवाद मानता है बल्कि उस स्थिति में भी यह अपवाद होगा जब न्यायाधीश द्वारा ऐसी किसी शक्ति के प्रयोग सद्भावपूर्वक इस विश्वास से किया जाये कि वह शक्ति उसे विधि द्वारा दी गयी है। इसलिए उस स्थिति में जहाँ एक न्यायाधीश अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर कोई कार्य करता है, और अगर वह ऐसा सद्भावपूर्वक यह विश्वास करते हुए करता है कि वैसा करने की उसे विधि के अंतर्गत शक्ति दी गयी है या उसे यह मालूम नहीं था कि वह अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर कार्य कर रहा है, तो उसपर किसी प्रकार का कोई दोष मढ़ा नहीं जा सकता। हाँ, यह जरुर है कि उसे यह दर्शाना होगा कि वह सद्भावपूर्वक यह विश्वास रखता था कि उसे विधि के अंतर्गत उचित शक्तियां प्राप्त थी।
हालाँकि इस धारा का लाभ उन मामलों में नहीं मिलेगा जहाँ कार्य दोषपूर्ण चित्त से किया गया था, जैसे किसी व्यक्ति के खिलाफ सदोष कारावास (WRONGFUL IMPRISONMENT) का आदेश सुनना। एक और मामले में जहाँ दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 425 के अंतर्गत सजा के क्रियान्वयन के लिए वारंट जारी किया गया था, परन्तु उसमे यह नहीं लिखा गया था कि सजा को एक साथ चलना (Concurrently) था। अभियुक्त, जिसके खिलाफ वह वारंट जारी हुआ था उसे सजा के कार्यकाल से अधिक समय के लिए कारावास में रखा गया। यह माना गया कि वह अधिकारी जिसने वारंट जारी किया था उसे इस धारा के अंतर्गत लाभ मिलेगा (1985 Cr LJ 642)।
"न्यायालय के निर्णय या आदेश के अनुसरण में किया गया कार्य"
संहिता की धारा 78 जैसा कि हम देख चुके हैं अदालत के उन स्टाफ एवं सम्बंधित अधिकारियों द्वारा किये गए कार्य का बचाव करता है जिन्हें अदालत के आदेश या निर्णय के अनुपालन में किया जाये। वही बात यहाँ भी लागू होती है कि बावजूद इसके कि अगर कोई व्यक्ति, जो अदालत के किसी निर्णय या आदेश, जो अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जाकर दिया गया था, के अनुसरण में कार्य कर रहा था, अगर सद्भावपूर्वक यह समझता था कि उक्त अदालत के पास उचित अधिकार क्षेत्र था, तो ऐसे व्यक्ति को इस धारा (धारा 78) के अंतर्गत लाभ मिलेगा [कपूर चंद बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य (1976) 3 Cr LJ 376 (HP)]
अंत में इसके अंतर्गत यह भी ध्यान रखने योग्य बात है कि जहाँ व्यक्ति के द्वारा, अदालत द्वारा प्रदत्त शक्तियों के बाहर जाकर कार्य किया है, वहां इस धारा के अंतर्गत लाभ नहीं लिया जा सकता है।
न्यायिक कार्य: निष्कर्ष
इस लेख में हमने विस्तार से यह समझा कि आखिर तर्कसंगत कृत्य (Justifiable act) के अंतर्गत किन परिस्थितियों में न्यायिकतः कार्य करते हुए न्यायाधीश का कार्य (धारा 77) एवं न्यायालय के निर्णय का आदेश के अनुसरण में किया गया कार्य (धारा 78) किसी भी अपराध के लिए कब अपवाद बन सकता है। जहाँ न्यायिकतः कार्य करते हुए न्यायाधीश का कार्य, न्यायाधीश के रूप में न्यायिक कार्य का होना जरुरी है, जब वह विधि के अंतर्गत कार्य कर रहा है, या वह सद्भावपूर्वक ऐसा समझ रहा हो कि वह विधि के अंतर्गत कार्य कर रहा है। इसके अलावा धारा 78 के अंतर्गत यही बचाव अदालत के आदेशों के अंतर्गत कार्य कर रहे व्यक्तियों एवं स्टाफ पर लागू हो जाता है। इसी के साथ हम 'साधारण अपवाद' (General exception) श्रृंखला के पांचवे लेख को विराम देते हैं। इस लेख में हमने 'न्यायिक कार्य' (Judicial Acts) को तर्कसंगत कृत्य (Justifiable act) के अंतर्गत समझा। हम उम्मीद करते हैं कि आपको यह लेख उपयोगी लगा होगा, श्रृंखला के अगले लेख में हम 'प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार' को समझने की शुरुआत करेंगे। आप इस श्रृंखला से जुड़े रहें क्यूंकि इस श्रृंखला में हम साधारण अपवाद को पूर्ण रूप से समझ सकेंगे।