'न्याय दिल से सुनता है': कर्नाटक हाईकोर्ट ने सांकेतिक भाषा से बहस करने वाली श्रवण-बाधित वकील की सराहना की

Update: 2025-11-10 12:45 GMT

कर्नाटक हाईकोर्ट ने श्रवण-बाधित अधिवक्ता सारा सनी की सराहना की, कहा — “उन्होंने मौन की सीमाओं को पार कर न्याय की नई परिभाषा लिखी”

कर्नाटक हाईकोर्ट ने हाल ही में एक ऐतिहासिक उदाहरण पेश करते हुए श्रवण-बाधित अधिवक्ता सारा सनी की खुलकर प्रशंसा की, जिन्होंने सांकेतिक भाषा अनुवादक (sign language interpreter) की मदद से अदालत में पेश होकर अपने मुवक्किल की ओर से प्रभावशाली दलीलें दीं।

जस्टिस एम. नागप्रसन्ना ने कहा —

“यह न्यायालय गहन प्रशंसा के साथ अधिवक्ता सारा सनी के प्रयासों को दर्ज करता है, जिन्होंने मौन की सीमाओं को पार किया है। उनका यह प्रयास एक स्थायी प्रेरणा रहेगा — यह उज्जवल स्मरण दिलाता है कि सच्चा न्याय केवल कानों से नहीं, बल्कि दिल से भी सुना जाता है।”

अदालत ने कहा —

“एडवोकेट सारा सनी बार की एक विशिष्ट सदस्य हैं, जिन्होंने यह साबित किया है कि सच्ची वकालत ध्वनि की सीमाओं से परे है।”

अदालत ने अपने आदेश में 24 मार्च 1982 के न्यूयॉर्क टाइम्स में प्रकाशित एक लेख का उल्लेख किया, जिसमें अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के समक्ष पेश होने वाली पहली श्रवण-बाधित अधिवक्ता का उल्लेख था, जिन्होंने एक 10 वर्षीय सुनने में अक्षम बच्ची का प्रतिनिधित्व किया था। उस ऐतिहासिक अवसर पर, अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार अदालत के भीतर विशेष इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के उपयोग की अनुमति दी थी।

अदालत ने कहा कि ऑस्ट्रेलिया और यूनाइटेड किंगडम जैसे देशों ने भी श्रवण-बाधित व्यक्तियों के लिए समावेशी कदम उठाए हैं — जिसमें यूके ने तो श्रवण-बाधित जूरी सदस्यों को भी शामिल करने की अनुमति दी है। ये सभी प्रयास समानता की दिशा में मानवता की सामूहिक प्रगति का प्रतीक हैं।

जस्टिस नागप्रसन्ना ने आगे कहा —

“एडवोकेट सारा सनी ने हर संदेह को चुनौती दी और शालीनता व आत्मविश्वास के साथ अपने तर्क रखे, जो किसी भी अनुभवी वकील की तरह ठोस और प्रभावशाली थे।”

पीठ ने कहा कि श्रवण-बाधित एडवोकेट कानूनी पेशे में एक अत्यंत दुर्लभ अल्पसंख्या हैं, और संविधानिक न्यायालयों का यह कर्तव्य है कि वे ऐसे अधिवक्ताओं को सशक्त और प्रोत्साहित करें ताकि वे “ध्वनि की बाधा” को पार कर न्यायिक प्रक्रिया में पूर्ण रूप से भाग ले सकें।

अदालत ने टिप्पणी की —

“उनकी प्रस्तुतियाँ, भले ही अनुवादक के माध्यम से की गईं, लेकिन उनमें परिष्कृत वकालत की पूरी झलक थी।”

मामला क्या था

एडवोकेट सारा सनी एक महिला की ओर से पेश हुई थीं, जिसने अपने पति के खिलाफ CrPC की धारा 41A के तहत जारी नोटिस को रद्द करने और जांच अधिकारियों पर विभागीय कार्रवाई करने की मांग की थी। इसके साथ ही, उसने यह निर्देश देने की भी मांग की थी कि जिन व्यक्तियों के खिलाफ LOC (Look Out Circular) जारी किया गया है, उनके देश में प्रवेश करने पर क्या प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए।

मामले में पति को स्कॉटलैंड से भारत लौटने पर जारी LOC के आधार पर हिरासत में लिया गया था। उसने हाईकोर्ट में याचिका दायर कर LOC को चुनौती दी, लेकिन कार्यवाही लंबित रहते हुए उसने मजिस्ट्रेट कोर्ट में LOC वापस लेने (recall) का आवेदन दायर किया।

मजिस्ट्रेट ने केवल राज्य पक्ष को सुने बिना LOC वापस ले लिया और पति को दोबारा स्कॉटलैंड लौटने की अनुमति दे दी। अगले दिन उसने अपनी याचिका वापस लेने का मेमो दाखिल कर दिया।

अदालत का निर्णय

रिकॉर्ड की जांच करने के बाद जस्टिस नागप्रसन्ना ने कहा —

“LOC एक प्रशासनिक आदेश है, जिसे केवल संवैधानिक अधिकार-क्षेत्र रखने वाली रिट अदालतें ही रद्द या संशोधित कर सकती हैं। निचली अदालतें इस पर कोई आदेश पारित नहीं कर सकतीं। ऐसा करना उनके अधिकार-क्षेत्र से बाहर है और इससे न्याय प्रणाली में अराजकता फैल सकती है।”

अदालत ने आगे कहा —

“यह स्पष्ट रूप से घोषित किया जाता है कि जिन मजिस्ट्रेटों के समक्ष आपराधिक कार्यवाही लंबित है, वे किसी भी बहाने से LOC को रद्द, निलंबित या संशोधित करने संबंधी आवेदन स्वीकार नहीं करेंगे। ऐसा करने पर यह अधिकार का अतिक्रमण माना जाएगा और कठोर अस्वीकृति का सामना करना पड़ेगा।”

अंत में, अदालत ने याचिकाओं का निस्तारण करते हुए राज्य की सभी आपराधिक अदालतों को इस आदेश की प्रति तत्काल भेजने का निर्देश दिया।

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