जन प्रतिनिधि वैध सार्वजनिक मुद्दे उठाने का हकदार: झारखंड हाइकोर्ट ने 2009 के प्रदर्शनों के लिए भाजपा सांसद निशिकांत दुबे को बरी किया

Update: 2024-02-14 12:27 GMT

झारखंड हाईकोर्ट ने कहा कि जन प्रतिनिधि शांतिपूर्ण प्रदर्शनों में वैध सार्वजनिक मुद्दा उठाने का हकदार है। इसके साथ ही हाइकोर्ट ने 9 फरवरी को संसद सदस्य (सांसद) निशिकांत दुबे को 2009 के विरोध प्रदर्शन से जुड़े आपराधिक मामले से मुक्त कर दिया।

भारतीय जनता पार्टी (BJP) के सदस्य दुबे झारखंड में गोड्डा निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करते हैं।

जस्टिस संजय कुमार द्विवेदी ने कहा,

''जनप्रतिनिधि वैध सार्वजनिक मुद्दा उठाने का हकदार है। इसके लिए हर जगह शांतिपूर्ण प्रदर्शन चल रहा है। याचिकाकर्ता हिंसा के किसी भी कार्य में शामिल नहीं है।''

कोर्ट ने आगे कहा,

"वर्तमान मामले के तथ्यों पर आते हुए सबूतों, एफआईआर की सामग्री के साथ-साथ यहां ऊपर दिए गए कानूनी मुद्दों की सराहना किए बिना याचिकाकर्ता का मामला मुक्ति के निर्देशित सिद्धांत के अंतर्गत आता है। इसे ध्यान में रखते हुए तथ्यों कारणों और विश्लेषण के आधार पर न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्ता इस मामले से बरी किए जाने के लिए उपयुक्त है।"

दुबे ने सेशन जज, गोड्डा द्वारा आपराधिक पुनर्विचार में पारित आदेश दिनांक 06-06-2018 रद्द करने के लिए याचिका दायर की, जिसके तहत उक्त याचिका खारिज कर दी गई और न्यायालय ने गोड्डा न्यायिक दंडाधिकारी, प्रथम श्रेणी, गोड्डा की अदालत में लंबित एक मामले के संबंध में न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी द्वारा पारित दिनांक 27-07-2017 के आदेश की पुष्टि की।

एएसआई की लिखित रिपोर्ट के अनुसार

एफआईआर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 143, 186, 283, 290, 291 और 353 के तहत दर्ज की गई। बताया गया कि 04-09-2009 को शाम करीब 5 बजे दुबे ने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पोरैयाहाट के पास प्रदर्शन किया और सड़क जाम कर दी। रिपोर्ट में आगे आरोप लगाया गया कि दुबे ने अपने सहयोगियों के साथ शिकायतकर्ता के गश्ती वाहन को गुजरने नहीं दिया और उक्त सड़क को अवरुद्ध कर दिया और सड़क के दोनों ओर जाम लगा दिया।

यह भी आरोप लगाया गया कि दुबे सहित BJP के अन्य नेताओं ने जाम हटाने के लिए शिकायतकर्ता के अनुरोध पर ध्यान नहीं दिया और सड़क पर भाषण देना शुरू कर दिया और तब भी जब SDOऔर SDPO मौके पर पहुंचे और अनुरोध किया। याचिकाकर्ता और उनके सहयोगियों ने जाम हटाने के अनुरोध पर कोई ध्यान नहीं दिया और वे और आक्रामक हो गये। आखिरकार, दुबे के अनुरोध पर रात करीब 11.45 बजे जाम हटाया गया।

दुबे की ओर से पेश हुए वकील प्रशांत पल्लव ने दलील दी कि कोई प्रत्यक्ष कृत्य नहीं था और याचिकाकर्ता ने खुद ही प्रदर्शनकारियों को वह जगह छोड़ने के लिए कहा था, जो एफआईआर में आया था। उन्होंने आगे तर्क दिया कि किसी भी व्यक्ति को धमकी देने या कोई चोट पहुंचाने का कोई कार्य नहीं किया गया। इसे देखते हुए आईपीसी की धारा 353 निश्चित रूप से लागू नहीं होती।

उन्होंने आगे कहा कि सभी आरोप इस आधार पर लगाए गए कि उस समय याचिकाकर्ता द्वारा प्रदर्शन किया जा रहा था, जो उस क्षेत्र का संसद सदस्य था। उनका कहना है कि शांतिपूर्ण प्रदर्शन भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत मौलिक अधिकार है।

इसके विपरीत प्रतिवादी राज्य की ओर से उपस्थित लोक अभियोजक वकील पंकज कुमार ने प्रस्तुत किया कि ट्रायल कोर्ट के साथ-साथ पुनर्विचार न्यायालय के आदेश अच्छी तरह से तर्कपूर्ण और अच्छी तरह से चर्चा किए गए आदेश हैं। उन्होंने आगे कहा कि सामग्रियां मौजूद हैं और प्रथम दृष्टया मामला बनता है। उसके मद्देनजर अदालत ने आरोपमुक्त करने की याचिका को सही ढंग से खारिज कर दिया।

मामले की पृष्ठभूमि को देखते हुए न्यायालय ने टिप्पणी की,

''यदि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में शांतिपूर्ण प्रदर्शन चल रहा था तो उक्त एफआईआर के आधार पर मौजूदा संसद सदस्य और अन्य पर मुकदमा चलाया जा सकता है या नहीं? अभियोजन प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर आधारित होना आवश्यक है।"

कोर्ट ने कहा,

“यदि ऐसा मामला होता कि किसी सदस्य द्वारा कोई प्रत्यक्ष कृत्य किया गया होता तो निश्चित रूप से अभियोजन कायम रखा जाता। हालांकि, अगर शांतिपूर्ण प्रदर्शन चल रहा था तो निश्चित रूप से भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत इस देश के नागरिक को कुछ सुरक्षा मिलती है।”

न्यायालय ने कहा कि भारत के संविधान का अनुच्छेद 19(1)(ए) इस देश के नागरिकों को बोलने की स्वतंत्रता का अधिकार प्रदान करता है। इस सुरक्षा के मद्देनजर, नागरिक नारे लगाने और शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने का हकदार है।

कोर्ट ने आगे कहा कि भारत के संविधान का अनुच्छेद 19(1)(बी) इकट्ठा होने का अधिकार देता है। इस प्रकार, एक सभा शांतिपूर्ण हो सकती है। भारत के संविधान का अनुच्छेद 19(1)(डी) पूरे क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से आवाजाही के लिए है।

मौजूदा मामले में कोर्ट ने पाया कि याचिकाकर्ता या प्रदर्शन स्थल पर मौजूद किसी भी व्यक्ति द्वारा किसी भी प्रत्यक्ष कृत्य का कोई आरोप नहीं लगाया गया। उस परिस्थिति में कोर्ट ने कहा कि क्या आईपीसी की धारा 353 को बरकरार रखा जा सकता है या नहीं। इसका उत्तर सुप्रीम कोर्ट ने माणिक तनेजा बनाम कर्नाटक राज्य [2014 एससीसी ऑनलाइन कर 4237] के मामले में दिया गया।

न्यायालय ने कहा,

''उक्त धारा के लागू होने के मद्देनजर किसी अन्य व्यक्ति को धमकी देने या उस व्यक्ति को चोट पहुंचाने या धमकी देने वाले व्यक्ति की संपत्ति को नुकसान पहुंचाने का कार्य होना चाहिए। वर्तमान मामले के तथ्यों पर आते हुए एफआईआर की संपूर्ण सामग्री में लोक सेवक पर आपराधिक बल या हमले का ऐसा कोई आरोप नहीं है। इसे ध्यान में रखते हुए आईपीसी की धारा 353 इस मामले में लागू नहीं होती।"

तदनुसार, न्यायालय ने सत्र न्यायाधीश, गोड्डा द्वारा पारित आदेश रद्द किया और दुबे को मामले से मुक्त किया।

अपीयरेंस

याचिकाकर्ता के लिए वकील- प्रशांत पल्लव और पार्थ जालान

प्रतिवादी राज्य के लिए वकील- पंकज कुमार

केस नंबर- सी.आर.एम.पी. 2018 का नंबर 2113

केस टाइटल- निशिकांत दुबे बनाम झारखंड राज्य

एलएल साइटेशन- लाइव लॉ (झा) 27 2024

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