भारतीय सेना का राष्ट्रीय सुरक्षा का मुख्य कार्य संप्रभु कार्य, इसे उद्योग के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट

Update: 2025-03-24 08:27 GMT
भारतीय सेना का राष्ट्रीय सुरक्षा का मुख्य कार्य संप्रभु कार्य, इसे उद्योग के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट

हाईकोर्ट ने फैसला सुनाया कि सेना उद्योग की परिभाषा में नहीं आती है> इस प्रकार लेबर कोर्ट जिसने भारतीय सेना में पोर्टर के रूप में सेवारत रिट याचिकाकर्ताओं के पक्ष में फैसला सुनाया, उन्हें पूर्ण बकाया वेतन के साथ बहाल करने का आदेश दिया, को इस मामले पर विचार करने का कोई अधिकार नहीं था।

न्यायालय ने कहा कि रिट याचिकाकर्ताओं का मामला यह नहीं है कि पोर्टर सेवाएं प्रदान करने वाले गैर-लड़ाकू कर्मियों के रूप में उनकी भूमिका संप्रभु कार्यों से अलग थी, जिसे उद्योग के रूप में वर्गीकृत किया जाना चाहिए।

जस्टिस संजीव कुमार और जस्टिस पुनीत गुप्ता की खंडपीठ ने कहा कि एक इकाई के रूप में सेना का एकमात्र उद्देश्य बाहरी आक्रमण से सीमाओं की रक्षा करना है। दुर्गम और कठिन इलाकों में राशन और गोला-बारूद ले जाने जैसी गतिविधियों के लिए मजदूरों के रूप में लगे पोर्टर निश्चित रूप से उन कर्तव्यों में बहुत योगदान देते हैं, जिन्हें सेना को अपने संप्रभु कार्यों के अभ्यास में निभाना आवश्यक है।

न्यायालय ने बैंगलोर जल आपूर्ति एवं सीवरेज बोर्ड बनाम ए. राजप्पा (1978) पर भरोसा किया, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने उद्योग के लिए तीन तरह के परीक्षण निर्धारित किए, अर्थात व्यवस्थित गतिविधि, नियोक्ता और कर्मचारी के बीच संगठित सहयोग तथा मानव कल्याण के लिए वस्तुओं/सेवाओं का उत्पादन या वितरण। न्यायालय ने यह भी कहा कि लेबर कोर्ट के पास अधिकार क्षेत्र नहीं है, क्योंकि सेना से संबंधित विवादों के लिए उपयुक्त सरकार केंद्र सरकार है, न कि जम्मू-कश्मीर सरकार।

उन्होंने कहा कि याचिकाकर्ताओं ने गलत तरीके से जम्मू-कश्मीर श्रम न्यायालय का रुख किया, क्योंकि उन्हें केंद्र सरकार द्वारा गठित न्यायाधिकरण से निवारण की आवश्यकता थी। न्यायालय ने फैसला सुनाया कि सेना 'उद्योग' की परिभाषा में नहीं आती है। इस प्रकार, श्रम न्यायालय के पास मामले पर विचार करने का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है। हालांकि, न्यायालय ने भारतीय सेना को सलाह दी कि वे कुलियों की निरंतर सेवा आवश्यकताओं को देखते हुए उनके प्रति अधिक दयालु दृष्टिकोण अपनाएं। इसने कहा कि सेना को नौकरी पर रखो और निकालो की पुरानी प्रथा का पालन करने की अनुमति देना उचित नहीं होगा।

न्यायालय ने अपीलकर्ताओं को निर्देश दिया कि वे रिट याचिकाकर्ताओं को बकाया वेतन का भुगतान करें तथा यदि अपीलकर्ता रिट याचिकाकर्ताओं को काम पर नहीं रखते हैं तो अपीलकर्ताओं द्वारा जमा किए गए ₹5 लाख रिट याचिकाकर्ताओं को बराबर हिस्सों में दिए जाएं, जिससे वे जीवन में अपना गुजारा कर सकें।

पृष्ठभूमि:

याचिकाकर्ताओं को अप्रैल, 2010 से दिसंबर, 2012 तक भारतीय सेना द्वारा कैजुअल पोर्टर के रूप में नियुक्त किया गया। उन्हें दिसंबर, 2012 में बिना किसी औपचारिक औचित्य के, काम की कमी का हवाला देते हुए नौकरी से निकाल दिया गया। याचिकाकर्ताओं ने अपने रोजगार को नियमित करने की मांग की तथा कानूनी नोटिस दायर किए, जिन्हें इस आधार पर अस्वीकार कर दिया गया कि कैजुअल पोर्टर के लिए ऐसा कोई प्रावधान मौजूद नहीं है।

याचिकाकर्ताओं ने औद्योगिक विवाद अधिनियम (ID Act), 1947 के तहत निवारण की मांग करते हुए सहायक श्रम आयुक्त (ALC), श्रीनगर से संपर्क किया। उनके आवेदन को खारिज कर दिया गया तथा विवाद को ID Act के दायरे से बाहर माना गया। इसके बाद उन्होंने वेतन भुगतान अधिनियम, 1936 के तहत क्षेत्रीय श्रम आयुक्त (केंद्रीय), जम्मू का रुख किया, जिसे अधिकार क्षेत्र की कमी का हवाला देते हुए खारिज कर दिया गया।

याचिकाकर्ताओं ने अंततः औद्योगिक न्यायाधिकरण-सह-श्रम न्यायालय, जम्मू-कश्मीर से ID Act की धारा 2-ए (2) के तहत संपर्क किया, जिसमें बहाली और बकाया वेतन की मांग की गई। श्रम न्यायालय ने उनके पक्ष में फैसला सुनाया, जिसमें पूरे बकाया वेतन के साथ बहाली का आदेश दिया गया। भारतीय सेना ने इस फैसले को जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट के समक्ष चुनौती दी, जिसने श्रम न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा। इसके बाद सेना ने डिवीजन बेंच के समक्ष लेटर्स पेटेंट अपील (LPA) दायर की।

केस टाइटल: जनरल ऑफिसर कमांडिंग कॉर्प्स और अन्य बनाम ऐजाज अहमद मीर एवं अन्य

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