पिता के साथ नाबालिग का रहना अवैध कारावास नहीं कहा जा सकता, यह मानना ​​उचित नहीं कि बच्चे के लिए केवल मां ही महत्वपूर्ण है: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट

Update: 2024-07-30 12:34 GMT

बच्चे के जीवन में माता-पिता दोनों के सर्वोपरि महत्व को रेखांकित करते हुए जम्मू-कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने सीआरपीसी की धारा 97 के तहत नाबालिग बच्चे की कस्टडी अवैध रूप से मां को देने के लिए मजिस्ट्रेट को कड़ी फटकार लगाई।

जस्टिस मोक्ष खजूरिया काज़मी की पीठ ने इस बात पर ज़ोर दिया कि पिता के साथ बच्चे की कस्टडी को गलत कारावास नहीं माना जा सकता।

पीठ ने रेखांकित किया,

"वास्तविकता यह है कि बच्चे के जीवन में पिता का प्यार, देखभाल, स्नेह और समर्थन बच्चे के विकास को बढ़ावा देने में समान रूप से महत्वपूर्ण है। साथ ही उन्होंने कहा कि पिता को नाबालिग बच्चे का प्राकृतिक अभिभावक माना जाता है, ऐसे में किसी भी परिस्थिति में पिता के साथ नाबालिग का रहना अवैध कारावास नहीं कहा जा सकता है, जो अपराध के बराबर है।"

याचिकाकर्ता फैयाज अहमद मीर ने 2015 में प्रतिवादी निगहत नसरीन से शादी की और उनका एक बेटा भी है। मां की गंभीर मेडिकल स्थिति के कारण बेटा पिता की देखभाल और संरक्षण में है। फैयाज ने दावा किया कि बीमारी के दौरान निगहत की हर संभव देखभाल की और इलाज का काफी खर्च उठाया। फरवरी 2024 में निगहत ने चडूरा के न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष धारा 97 सीआरपीसी के तहत आवेदन दायर किया, जिसमें आरोप लगाया गया कि फैयाज ने उनके बेटे को गलत तरीके से बंधक बनाया। मजिस्ट्रेट ने तलाशी वारंट जारी किया और नाबालिग को मां को सौंप दिया गया, जिसके कारण फैयाज ने उच्च न्यायालय से इस आदेश को रद्द करने की मांग की।

फैयाज के वकील शफाकत नजीर ने तर्क दिया कि इस संदर्भ में धारा 97 CrPc का प्रयोग करना न्यायालय की प्रक्रिया का दुरुपयोग है। उन्होंने तर्क दिया कि पिता के पास बच्चे की कस्टडी को गलत तरीके से कैद नहीं माना जा सकता। निगहत के वकील जहांगीर इकबाल गनई ने दावा किया कि फैयाज ने बच्चे को जबरन छीन लिया, जब वे रिश्तेदारों से मिलने जा रहे थे। उन्होंने तर्क दिया कि बच्चे के कल्याण की रक्षा के लिए मजिस्ट्रेट का आदेश उचित था।

प्रतिवादी के वकील ने बॉम्बे हाईकोर्ट और जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट के निर्णयों का हवाला दिया, जिसमें हिरासत के मामलों में नाबालिग के कल्याण को सर्वोपरि माना गया। तलाक की लड़ाई में बच्चों को मोहरे के रूप में इस्तेमाल करने की खतरनाक प्रवृत्ति पर प्रकाश डालते हुए बच्चे के कल्याण पर हानिकारक प्रभाव पर जोर देते हुए अदालत ने जोर दिया कि ऐसे मामलों में सर्वोपरि विचार बच्चे का कल्याण होना चाहिए न कि माता-पिता के व्यक्तिगत विवाद। बच्चों के पालन-पोषण में पिता की बदलती भूमिका की ओर इशारा करते हुए यह मानते हुए कि माता-पिता दोनों अपने बच्चों के पालन-पोषण में समान जिम्मेदारी साझा करते हैं।

पीठ ने कहा,

"वे दिन चले गए जब नाबालिग बच्चों का पालन-पोषण और देखभाल करना केवल मां की जिम्मेदारी थी और पिता केवल परिवार को वित्तीय सहायता देने के लिए जिम्मेदार हुआ करते थे। आजकल आम तौर पर माता-पिता दोनों काम करते हैं, वे लगभग समान समय देते हैं, अपने बच्चों को वित्तीय सहायता, देखभाल और प्यार प्रदान करते हैं और अपने बच्चों के कल्याण के लिए समान जिम्मेदारी साझा करते हैं।”

यह देखते हुए कि मजिस्ट्रेट ने पिता की हिरासत को गलत कारावास के रूप में मानने में अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किया था। पीठ ने याचिका को अनुमति दी और उप न्यायाधीश/न्यायिक मजिस्ट्रेट चडूरा की अदालत द्वारा शुरू किए गए विवादित आदेश और आगे की कार्यवाही रद्द कर दी। जबकि हाईकोर्ट ने मां को फिलहाल कस्टडी बनाए रखने की अनुमति दी इसने पक्षों को स्थायी हिरासत निर्णय के लिए संरक्षक और वार्ड अधिनियम के तहत उपयुक्त अदालत से संपर्क करने का निर्देश दिया। हाईकोर्ट ने मजिस्ट्रेट द्वारा मामले को संभालने में महत्वपूर्ण अनियमितताएं भी पाईं।

उल्लेखनीय है कि मजिस्ट्रेट द्वारा अपने आधिकारिक आवास पर शाम 7:30 बजे जारी किया गया आदेश हाईकोर्ट में प्रस्तुत डिजिटल रिकॉर्ड से गायब था। न्यायालय ने इस विसंगति पर आश्चर्य और चिंता व्यक्त की तथा रजिस्ट्रार सतर्कता को मामले की जांच करने का निर्देश दिया।

केस टाइटल- फैयाज अहमद मीर बनाम निगहत नसरीन

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