BSF Rules | जांच कोर्ट शुरुआती तथ्य खोजने की प्रक्रिया, न कि अनुशासनात्मक ट्रायल: जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट
जम्मू-कश्मीर एंड लद्दाख हाईकोर्ट ने कहा कि ऐसी जांच सिर्फ़ एक तथ्य खोजने का तरीका है, जिसका मकसद अधिकारियों को भविष्य की कार्रवाई तय करने में मदद करना है। यह विभागीय कार्यवाही शुरू करने जैसा नहीं है।
जस्टिस संजीव कुमार और जस्टिस संजय परिहार की डिवीजन बेंच ने इस बात पर ज़ोर दिया कि जांच कोर्ट के नतीजे "शुरुआती रिपोर्ट" के रूप में होंगे। सिर्फ़ ऐसी जांच का आदेश देने या संबंधित अधिकारी को पेश होने और अपना बयान दर्ज कराने के लिए कहने से उसे किसी भी तरह से नुकसान नहीं होगा।
कोर्ट ने टिप्पणी की,
"...जांच कोर्ट के स्टेज पर, दोषी के खिलाफ कोई विभागीय कार्यवाही शुरू या प्रारंभ नहीं की जाती। हालांकि ऐसी जांच कोर्ट के नतीजे सक्षम अधिकारी द्वारा भविष्य की कार्रवाई के बारे में फैसला लेने का आधार बन सकते हैं। इसलिए यह साफ है कि जांच कोर्ट का आदेश देने या अपील करने वाले को पेश होने और अपना बयान रिकॉर्ड करने के लिए कहने से भी उसे किसी भी तरह से नुकसान नहीं होगा।"
ये टिप्पणियां BSF में असिस्टेंट कमांडेंट अखंड प्रकाश शाही द्वारा दायर दो इंट्रा-कोर्ट अपीलों को खारिज करते हुए आईं, जिसमें उन्होंने क्रमशः कोर्ट ऑफ इंक्वायरी शुरू करने और अपने सस्पेंशन जारी रहने को चुनौती दी थी। ये अपीलें एक सिंगल जज के आदेशों से उपजी थीं, जिन्होंने उनकी रिट याचिकाओं को खारिज कर दिया था।
मामले की पृष्ठभूमि
यह मामला BSF की महिला असिस्टेंट सब-इंस्पेक्टर (मिनिस्ट्रियल) द्वारा अपील करने वाले के खिलाफ दर्ज शिकायत से शुरू हुआ था, जो उस समय STC एयरपोर्ट, हुमहामा, श्रीनगर में असिस्टेंट कमांडेंट के पद पर तैनात थे। शिकायत पर कार्रवाई करते हुए पुलिस स्टेशन द्वारका (उत्तर), नई दिल्ली में IPC की धारा 376 के तहत अपराधों के लिए FIR दर्ज की गई। जांच पूरी होने के बाद सक्षम आपराधिक अदालत में चार्जशीट दायर की गई, आरोप तय किए गए और अपील करने वाले को जमानत दी गई, लेकिन वह फिलहाल मुकदमे का सामना कर रहा है।
आरोपों की गंभीरता को देखते हुए BSF अधिकारियों ने BSF नियमों के नियम 40A(1) के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए अपील करने वाले को सस्पेंड कर दिया, जिसे बाद में कन्फर्म कर दिया गया। साथ ही अधिकारियों ने आरोपों की जांच के लिए एक कोर्ट ऑफ इंक्वायरी का आदेश दिया। इससे अपील करने वाले ने यह तर्क देते हुए हाईकोर्ट का रुख किया कि समानांतर कार्यवाही आपराधिक मुकदमे में उसके बचाव को गंभीर रूप से नुकसान पहुंचाएगी।
रिट कोर्ट के सामने अपील करने वाले ने कोर्ट ऑफ इंक्वायरी शुरू करने और उसका प्रतिनिधित्व खारिज करने को यह तर्क देते हुए चुनौती दी कि जब समान आरोपों पर आपराधिक मुकदमा पहले से ही लंबित है तो प्रतिवादी कानूनी रूप से अनुशासनात्मक कार्रवाई के साथ आगे नहीं बढ़ सकते। हालांकि, सिंगल जज ने इन दलीलों को यह मानते हुए खारिज कर दिया कि एक साथ आपराधिक और विभागीय कार्यवाही के लिए कोई वैधानिक रोक नहीं है और इसमें तथ्य या कानून के कोई जटिल प्रश्न शामिल नहीं है।
डिवीजन बेंच के निष्कर्ष
सिंगल जज के विचार की पुष्टि करते हुए डिवीजन बेंच ने कहा कि अपील करने वाले की चुनौती मौलिक रूप से गलत है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि कोई भी विभागीय कार्यवाही शुरू नहीं की गई और BSF नियमों के नियम 173 के तहत जो आदेश दिया गया, वह केवल एक कोर्ट ऑफ इंक्वायरी है।
बेंच ने स्पष्ट रूप से कहा,
"सख्ती से कहें तो हमें यह ऐसा मामला नहीं लगता, जहां प्रतिवादी एक साथ आपराधिक अभियोजन और अनुशासनात्मक कार्यवाही कर रहे हों"।
कोर्ट ऑफ इंक्वायरी की प्रकृति पर विस्तार से बताते हुए बेंच ने कहा कि BSF नियमों के तहत यह एक तथ्यों की जांच का मकसद ऐसी सामग्री इकट्ठा करना है ताकि सक्षम अथॉरिटी यह तय कर सके कि अनुशासनात्मक कार्रवाई ज़रूरी है या नहीं। कोर्ट ने इस बात पर ज़ोर दिया कि इस स्टेज पर दोषी के खिलाफ कोई डिपार्टमेंटल कार्रवाई शुरू नहीं की गई। भले ही ये नतीजे भविष्य के फैसले का आधार बन सकते हैं, लेकिन वे पूरी तरह से शुरुआती प्रकृति के होते हैं।
बेंच ने यह देखते हुए आगे इस बात पर ज़ोर दिया कि ऐसी जांच में हिस्सा लेने से दोषी अधिकारी को कोई नुकसान नहीं होता कि उसे कोई भी ऐसा बयान देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता, जिससे वह खुद फंस जाए और उसके पास चुप रहने का विकल्प भी है। यह आशंका कि जांच के दौरान खुलासे से आपराधिक मुकदमे में बचाव कमजोर होगा, इसलिए इसे बिना किसी आधार के माना गया।
BSF नियम, 1969 के नियम 170, 173 और 174 की गहराई से जांच करते हुए बेंच ने पाया कि नियम 174 स्पष्ट रूप से "किसी भी अनुशासनात्मक मामले या किसी अन्य महत्वपूर्ण मामले" की जांच के लिए कोर्ट ऑफ इंक्वायरी आयोजित करने की अनुमति देता है। आरोपों की गंभीरता को देखते हुए बेंच ने अधिकारियों के लिए यह पूरी तरह से उचित पाया कि औपचारिक अनुशासनात्मक कार्यवाही शुरू करने का फैसला करने से पहले वे पहले कोर्ट ऑफ इंक्वायरी का आदेश दें। कोर्ट ने कहा कि ऐसी जांच वास्तव में संबंधित अधिकारी को अपना स्पष्टीकरण रिकॉर्ड पर रखने और संभवतः अधिकारियों को अनुशासनात्मक कार्रवाई शुरू न करने के लिए मनाने का अवसर देती है।
निलंबन अपील भी खारिज
अपीलकर्ता के निलंबन को चुनौती देने वाली संबंधित अपील में डिवीजन बेंच ने इस दलील को खारिज कर दिया कि विभागीय कार्यवाही में देरी के कारण निलंबन रद्द किया जाना चाहिए।
अदालत ने तर्क दिया,
"इसलिए किसी भी विभागीय जांच के लंबित होने या बिना किसी कारण के उसमें देरी को निलंबन आदेश रद्द करने का आधार नहीं बनाया जा सकता। अपीलकर्ता का निलंबन विभागीय कार्यवाही से कोई लेना-देना नहीं है, जो अभी तक प्रतिवादियों द्वारा शुरू नहीं की गई।"
यह निष्कर्ष निकालते हुए कि दोनों अपीलें समय से पहले और बिना किसी आधार के हैं, हाईकोर्ट ने उन्हें खारिज कर दिया।
Case Title: Akhand Prakash Shahi Vs Union of India