सहमति से पारित अवार्ड को स्पष्ट रूप से अवैध या सार्वजनिक नीति के विपरीत नहीं माना जा सकता: हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट
हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के जस्टिस तरलोक सिंह चौहान और सत्येन वैद्य की पीठ ने माना कि मुख्य रूप से सहमति पर आधारित अवार्ड को स्पष्ट रूप से अवैध या भारत की सार्वजनिक नीति के विपरीत नहीं माना जा सकता।
मामला
अपीलकर्ता द्वारा मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 (अधिनियम) की धारा 37(1)(C) के तहत वर्तमान अपील पेश की गई जिसमें एकल जज द्वारा 2016 के मध्यस्थता मामले संख्या 69 में 06.07.2023 को पारित आदेश को चुनौती दी गई।
इसके अनुसार एकल जज ने अधिनियम की धारा 34 के तहत याचिका के माध्यम से मध्यस्थ द्वारा पारित दिनांक 05.04.2016 के मध्यस्थता अवार्ड को चुनौती देने वाली अपील खारिज की।
प्रतिवादी को दिनांक 30.07.2009 के अवार्ड के अनुसार LWSS नैना देवी जी के निर्माण का कार्य सौंपा गया, जिसमें निष्पादन और सामग्री की आपूर्ति शामिल थी। कार्य को एक वर्ष के भीतर यानी 13.08.2010 तक पूरा किया जाना था।
कार्य के निष्पादन न किए जाने के संबंध में अपीलकर्ता ने याचिकाकर्ता के प्रदर्शन बांड को जब्त करने का इरादा किया, जिससे प्रतिवादी को इस न्यायालय में जाने से रोका जा सके, जिसके परिणामस्वरूप एक मध्यस्थ की नियुक्ति हुई।
मध्यस्थता कार्यवाही के समापन पर मध्यस्थ ने वृद्धि के लिए दावा नंबर 1 के तहत 57,45,832 रुपये की राशि प्रदान की, जबकि उन्होंने प्रतिवादी द्वारा प्रस्तुत अन्य दावों को अस्वीकार कर दिया।
एकल जज ने कहा कि अवार्ड की प्रकृति कमोबेश सहमति पर आधारित थी जिसमें ठेकेदार को पूरी साइट देर से सौंपने के संबंध में तथ्यों को स्वीकार किया गया। इसके कारण निर्धारित अवधि के भीतर उनके द्वारा काम पूरा नहीं किया गया और यह भी स्वीकार किया गया कि ठेकेदार को पूरी साइट सौंपने के एक वर्ष के भीतर काम पूरा किया जाना था।
मध्यस्थ ने वृद्धि के दावे के संबंध में अपीलकर्ता की स्वीकृति और सहमति भी दर्ज की थी, जिसे एकल जज के समक्ष विवादित नहीं किया गया।
अवलोकन:
अदालत ने शुरू में मध्यस्थता अधिनियम की धारा 37 के तहत हस्तक्षेप के दायरे पर चर्चा की और पंजाब राज्य नागरिक आपूर्ति निगम लिमिटेड और अन्य बनाम सनमान राइस मिल्स एवं अन्य, (2024) में सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया, जिसमें यह माना गया कि मध्यस्थता के मामलों में न्यायालय के हस्तक्षेप का दायरा वस्तुतः निषिद्ध है यदि पूर्णतः वर्जित नहीं है। हस्तक्षेप केवल अधिनियम की धारा 34 के तहत परिकल्पित सीमा तक ही सीमित है।
अधिनियम की धारा 37 की अपीलीय शक्ति अधिनियम की धारा 34 के क्षेत्राधिकार में सीमित है। इसका प्रयोग केवल यह पता लगाने के लिए किया जा सकता है कि क्या न्यायालय ने अधिनियम की धारा 34 के तहत शक्ति का प्रयोग करते हुए उसके तहत निर्धारित सीमाओं के भीतर कार्य किया है या इस प्रकार प्रदत्त शक्ति का अतिक्रमण किया है या प्रयोग करने में विफल रहा है।
अपील न्यायालय के पास मध्यस्थ न्यायाधिकरण के समक्ष विवादित मामले पर गुण-दोष के आधार पर विचार करने का कोई कानूनी अधिकार नहीं है, जिससे यह पता लगाया जा सके कि साक्ष्य के पुनर्मूल्यांकन पर मध्यस्थ न्यायाधिकरण का निर्णय सही है या गलत यह केवल तब होता है, जब धारा 34 के तहत शक्ति का प्रयोग करने वाला न्यायालय धारा 34 द्वारा उसे दिए गए अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने में विफल रहता है या अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर चला जाता है तब अपीलीय न्यायालय हस्तक्षेप कर सकता है और अधिनियम की धारा 34 के तहत पारित आदेश को रद्द कर सकता है। इसकी शक्ति उस अधीक्षण के समान है जो संशोधन शक्तियों का प्रयोग करते समय सिविल न्यायालयों में निहित है।
वर्तमान मामले के तथ्यों पर उपरोक्त अनुपात को लागू करते हुए न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि मुख्य रूप से सहमति पर आधारित अवार्ड स्पष्ट रूप से अवैध या भारत की सार्वजनिक नीति के साथ संघर्ष में नहीं माना जा सकता।
तदनुसार वर्तमान अपील को खारिज कर दिया गया।
केस टाइटल: कार्यकारी अभियंता, आई एंड पीएच डिवीजन, बिलासपुर बनाम रमेश खनेजा